- दुर्योधन अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन करता है जिसे सुनकर विदुर जी दम की महत्ता को श्रेष्ठ बताते हुए दमयुक्त मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन करते हैं। अब विदुर जी धृतराष्ट्र को कौटुम्बिक कलह से होने वाली हानियाँ बताते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में यानसंधि पर्व के अंतर्गत अध्याय 64 में निम्न प्रकार हुआ है।[1]
विषय सूची
विदुर द्वारा कथा सुनाकर प्रेरित करना
विदुर जी कहते हैं- तात! हमने पूर्वपुरुषों के मुख से सुन रखा है कि किसी समय एक चिड़ीमार ने चिड़ियों को फंसाने के लिये पृथ्वी पर एक जाल फैलाया। उस जाल में दो ऐसे पक्षी फंस गये, जो सदा साथ-साथ उड़ने और विचरने वाले थे। वे दोनों पक्षी उस समय उस जाल को लेकर आकाश में उड़ चले। चिड़ीमार उन दोनों को आकाश में उड़ते देखकर भी खिन्न या हताश नहीं हुआ। वे जिधर-जिधर गये, उधर-उधर ही वह उनके पीछे दौड़ता रहा। उन दिनों उस वन में कोई मुनि रहते थे, जो उस समय संध्या-वंदन आदि नित्यकर्म करके आश्रम में ही बैठै हुए थे। उन्होंने पक्षियों को पकड़ने के लिये उनका पीछा करते हुए उस व्याध को देखा। कुरुनंदन! उन आकाशचारी पक्षियों के पीछे-पीछे भूमि पर पैदल दोड़ने वाले उस व्याध से मुनि ने निम्नाकिंत श्लोक के अनुसार प्रश्न किया-
विचित्रमिदमाश्चये मृगहन् प्रतिभाति मे।
प्लवमानौ हि खचरौ पदातिरनुधावसि।।
‘अरे व्याध! मुझे यह बात बड़ी विचित्र और आश्चर्य-जनक जान पड़ती है कि तू आकाश में उड़ते हुए इन दोनों पक्षियों के पीछे पृथ्वी पर पैदल दोड़ रहा है’। व्याध बोला- मुने! ये दोनों पक्षी आपस में मिल गये हैं, अत: मेरे एकमात्र जाल को लिये जा रहे हैं। अब ये जहां-कहीं एक-दूसरे से झगड़ेंगे, वहीं मेरे वश में आ जायंगे। विदुर जी कहते हैं- राजन! तदनंतर कुछ ही देर में काल के वशीभूत हुए वे दोनों दुर्बुद्धि पक्षी आपस में झगड़ने लगे और लड़ते-लड़ते पृथ्वी पर गिर पड़े। जब मौत के फंदे में फंसे हुए वे पक्षी अत्यंत कुपित होकर एक दूसरे से लड़ रहे थे, उसी समय व्याध ने चुपचाप उनके पास आकर उन दोनों को पकड़ लिया। इसी प्रकार जो कुटम्बीजन धन-सम्पत्ति के लिये आपस में कलह करते हैं, वे युद्ध करके उन्हीं दोनों पक्षियों की भाँति शत्रुओं के वश में पड़ जाते हैं। साथ बैठकर भोजन करना, आपस में प्रेम से वार्तालाप करना, एक दूसरे के सुख-दु:ख को पूछना और सदा मिलते-जुलते रहना ये ही भाई-बंधुओं के काम हैं, परस्पर विरोध करना कदापि उचित नहीं है।[1]
कौटुम्बिक कलह के दुष्परिणामों का वर्णन
विदुर कहते हैं- राजन! जो शुद्ध हृदय वाले मनुष्य समय-समय पर बड़े-बूढो़ं की सेवा एवं संग करते रहते हैं, वे सिंह से सुरक्षित वन के समान दूसरों के लिये दुर्धर्ष हो जाते हैं, शत्रु उनके पास आने का साहस नहीं करते हैं। भरतश्रेष्ठ! जो धन को पाकर भी सदा दीनों के समान तृष्णा से पीड़ित रहते हैं, वे आपस में कलह करके अपनी सम्पत्ति शत्रुओं को दे डालते हैं। भरतकुलभूषण धृतराष्ट्र! जैसे जलते हुए काष्ठ अलग-अलग कर दिये जाने पर जल नहीं पाते, केवल धूआं देते हैं और परस्पर मिल जाने पर प्रज्वलित हो उठते हैं, उसी प्रकार कुटम्बीजन आपसी फूट के कारण अलग-अलग रहने पर अशक्त हो जाते हैं तथा परस्पर संगठित होने पर बलवान एवं तेजस्वी होते हैं। कौरवनंदन! पूर्वकाल में किसी पर्वत पर मैंने जैसा देखा था, उसके अनुसार यह एक दूसरी बात बता रहा हूँ। इसे भी सुनकर आपको जिसमें अपनी भलाई जान पड़े, वही कीजिये।
एक समय की बात है, हम बहुत-से भीलों और देवोपम ब्राह्मणों के साथ उत्तर दिशा में गन्धमादन पर्वत पर गये थे। हमारे साथ जो ब्राह्मण थे, उन्हें मन्त्र-यन्त्रादि रूप विद्या और औषधियों के साधन आदि की बातें बहुत प्रिय थीं।[1] समस्त गन्धमादन पर्वत सब ओर से कुञ्च सा जान पड़ता था। वहाँ दिव्य औषधियां प्रकाशित हो रही थीं। सिद्ध और गन्धर्व उस पर्वत पर निवास करते थे। वहाँ हम सब लोगों ने देखा, पर्वत की एक दुर्गम गुफा में जहाँ से कोई कूल-किनारा न होने के कारण गिरने की ही अधिक सम्भावना रहती है, एक मधुकोष है। वह मक्खियों का तैयार किया हुआ नहीं था। उसका रंग सुवर्ण के समान पीला था और वह देखने में घड़े के समान जान पड़ता था। भयंकर विषधर सर्प उस मधु की रक्षा करते थे। कुबेर को वह मधु अत्यंत प्रिय था। हमारे साथी औषध-साधक ब्राह्मण लोग यह बता रहे थे कि इस मधु को पाकर मरणधर्मा मनुष्य भी अमरत्व प्राप्त कर लेता है। इसको पीने से अंधे को दृष्टि मिल जाती है और बूढ़ा भी जवान हो जाता है। महाराज! उस समय उस मधु का अद्भुत गुण सुनकर और उसे प्रत्यक्ष देखकर भीलों ने उसे पाने की चेष्टा की; परंतु सर्पों से भरी हुई उस दुर्गम पर्वतगुहा में जाकर वे सब-के-सब नष्ट हो गये। इसी प्रकार आपका यह दुर्योधन अकेला ही सारी पृथ्वी का राज्य भोगना चाहता है। यह मोहवश केवल मधु को ही देखता है, भावी पतन या विनाश की ओर इसकी दृष्टि नहीं जाती है।[2]
विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना
विदुर कहते हैं- राजन! दुर्योधन समरभूमि में सव्यसाची अर्जुन के साथ युद्ध करने की बात सोचता है, परंतु मैं इसके भीतर अर्जुन के समान तेज या पराक्रम नहीं देखता। जिस वीर ने अकेले ही रथ पर बैठकर सारी पृथ्वी पर विजय पायी है, विराट नगर पर चढ़ाई करने गये हुए भीष्म और द्रोण जैसे महान योद्धाओं को भी जिसने भयभीत करके भगा दिया है, उसके सामने आपका पुत्र क्या पराक्रम कर सकता है? यह आप ही देखिये। आज भी वह वीर आपकी मैत्रीपूर्ण दृष्टि की प्रतीक्षा कर रहा है और आपकी आज्ञा से वह कौरवों का सारा अपराध क्षमा कर सकता है। राजा द्रुपद, मत्स्यनरेश विराट और क्रोध में भरा हुआ अर्जुन ये तीनों वायु का सहारा पाकर प्रज्वलित हुई त्रिविध अग्नियों के समान जब युद्ध भूमि में आक्रमण करेंगे, तब किसी को जीता नहीं छोड़ेंगे। महाराज धृतराष्ट्र! आप राजा युधिष्ठिर को अपनी गोद में बैठा लीजिये; क्योंकि जब दोनों पक्षों में युद्ध छिड़ जायगा, तब विजय किसकी होगी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-16
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 64 श्लोक 17-27
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| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
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| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
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| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
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| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
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| कुंती का कर्ण के पास जाना
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| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
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| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
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| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
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| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
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