कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना

श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुँचते हैं जहाँ उनका स्वागत होता है तत्पश्चात् वह धृतराष्ट्र व विदुर के भवन में जाते हैं। विदुर के पूछने पर कृष्ण उनको पांडवों की सारी चेष्टाएँ विस्तार पूर्वक सुनाते हैं। अब वह अपनी बुआ कुंती से मिलने जाते हैं तो कुन्ती कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करती हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 90 में निम्न प्रकार हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण का कुंती से मिलने जाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! शत्रुदमन श्रीकृष्ण विदुर जी से मिलने के पश्चात् तीसरे पहर में अपनी बुआ कुंती देवी के पास गए। निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण को आते देख कुंती देवी उनके गले लग गयी और अपने पुत्रों को याद करके फूट-फूटकर रोने लगीं। अपने उन शक्तिशाली पुत्रों के बीच में रहकर उनके साथ विचारने वाले वृष्णिकुलनंदन गोविंद को दीर्घकाल के पश्चात् देखकर कुंती देवी आंसुओं की वर्षा करने लगीं। उन्‍होंने योद्धाओं के स्वामी श्रीकृष्ण का अतिथि-सत्कार किया। जब वे आतिथ्य ग्रहण करके आसन पर विराजमान हुए, तब सूखे मुँह और अश्रुगद्गद कंठ से कुंती देवी इस प्रकार बोलीं-[1]

कुंती द्वारा पांडवों का कुशल समाचार पूछना

कुंती कहती हैंं- 'वत्स! मेरे पुत्र पांडव, जो बाल्यकाल से ही गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर रहते, परस्पर स्नेह रखते, सर्वत्र सम्मान पाते और मन में सबके प्रति समानभाव रखते थे, शत्रुओं की शठता के शिकार होकर राज्य से हाथ धो बैठे और जनसमुदाय में रहने योग्य होकर भी निर्जन वन में चले गए। मेरे बेटे हर्ष और क्रोध को जीत चुके थे। वे ब्राह्मणों का हित साधन करने वाले तथा सत्यवादी थे, तथापि शत्रुओं के अन्याय से विवश हो प्रियजन एवं सुख भोग से मुँह मोड़ मुझे रोती-बिलखती छोड़कर वे वन की ओर चल दिये। केशव! वन जाते समय महात्मा पांडव मेरे हृदय को जड़-मूल सहित खींचकर अपने साथ ले गए। वे वनवास के योग्य कदापि नहीं थे। फिर उन्हें यह कष्ट कैसे प्राप्त हुआ? तात! वे बचपन में ही पिता के प्यार से वंचित हो गए थे। मैंने ही सदा उनका लालन-पालन किया। मेरे पुत्र सिंह, व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए उस विशाल वन में कैसे रह रहे होंगे? माता-पिता को न देखते हुए उन्‍होंने उस महान वन में किस प्रकार निवास किया होगा?

केशव! बाल्यावस्था से ही पांडव शंख और दुंदुभियों की गंभीर ध्वनि से, मृदंगों के मधुर नाद से तथा बांसुरी की सुरीली तान से जगाए जाते थे। जब वे अपनी राजधानी में ऊँची अट्टालिकाओं के भीतर रंकुमृग के चर्म से बने हुए बिछौनों से युक्त सुकोमल शय्याओं पर शयन करते थे, उन दिनों हाथियों के चिंघाड़ने, घोड़ों के हिनहिनाने तथा रथ के पहियों के घरघराने से उनकी निद्रा टूटती थी। शंख और भेरी की तुमुल ध्वनि तथा वेणु और वीणा के मधुर स्वरों से उन्हें जगाया जाता था। साथ ही ब्राह्मण लोग पुण्याहवाचन के पवित्र घोष से उनका समादर करते थे। वे महात्मा ब्राह्मणों के मंगलमय आशीर्वाद सुनकर उठते थे। पूजित और पूजनीय पुरुष भी उनके गुण गा-गाकर अभिनंदन किया करते थे एवं उठकर वे रत्नों, वस्त्रों एवं अलंकारों के द्वारा ब्राह्मणों की पूजा करते थे। जनार्दन! वे ही उस पांडव उस विशाल वन में हिंसक जंतुओं के क्रूरतापूर्ण शब्द सुनकर अच्छी तरह नींद भी नहीं ले पाते रहे होंगे, यद्यपि इस दुरावस्था के योग्य वे कदापि नहीं थे। मधुसूदन! जो भेरी एवं मृदंग के नाद से, शंख एवं वेणु की ध्वनि से तथा स्त्रियों के गीतों के मधुर शब्द तथा सूत, मागध एवं वंदीजनों द्वारा की हुई स्तुति सुनकर जागते थे, वे ही बड़े-बड़े जंगलों में हिंसक जंतुओं के कठोर शब्द सुनकर किस प्रकार नींद तोड़ते रहे होंगे?[1]

श्रीकृष्ण! जो लज्जाशील, सत्य को धारण करने वाले, जितेंद्रिय तथा सब प्राणियों पर दया करने वाले हैं, जो काम, राग एवं द्वेष को वश में करके सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करते हैं, जो अम्बरीष, मान्धाता, ययाति, नहुष, भरत, दिलीप एवं उशीनर पुत्र शिबि आदि प्राचीन राजर्षियों के सदाचार पालन रूप धारण करने में कठिन धर्म की धुरी को धारण करते हैं, जिनमें शील और सदाचार की संपत्ति भरी हुई है, जो धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और सर्वगुणसंपन्न होने के कारण इस भूमंडल के ही नहीं, तीनों लोकों के भी राजा हो सकते हैं, जिनका मन सदा धर्म में ही लगा रहता है, जो धर्मशास्त्रज्ञान और सदाचार सभी दृष्टियों से समस्त कौरवों में सबसे श्रेष्ठ हैं; जिनकी अंगकांति शुद्ध जाम्बूनद सुवर्ण के समान गौर है, जो देखने में सभी को प्रिय लगते हैं; वे महाबाहु अजातशत्रु युधिष्ठिर इस समय कैसे हैं? 'मधुसूदन! जो पांडुनंदन महाबली भीम दस हजार हाथियों के समान शक्तिशाली है, जिसका वेग वायु के समान है, जो असहिष्णु होते हुए भी अपने भाई को सदा ही प्रिय है और भाइयों का प्रिय करने में ही लगा रहता है, जिसने भाई-बंधुओं सहित कीचक का विनाश किया है, जिसे शूरवीर के हाथ से क्रोधवश नामक राक्षसों का, हिडिंबासुर तथा बक का भी संहार हुआ है, जो पराक्रम में इन्द्र, बल में वायु देव तथा क्रोध में महेश्वर के समान है, जो प्रहार करने वाले योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं भयंकर है, शत्रुओं को संताप देने वाला जो पांडुपुत्र भीम अपने भीतर क्रोध, बल और अमर्ष को रखते हुए भी मन को काबू में रखकर सदा भाई की आज्ञा के अधीन रहता है, जो स्वभावत: अमर्षशील है, जिसमें तेज की राशि संचित है, जो महात्मा, सर्वश्रेष्ठ, अमित तेजस्वी तथा देखने में भी भयंकर है, वृष्णिनंदन जनार्दन! उस मेरे द्वितीय पुत्र भीमसेन का समाचार बताओ। इस समय परिघ के समान सुदृढ़ भुजाओं वाला मेरा मंझला पुत्र पांडुकुमार भीमसेन कैसे है?

श्रीकृष्ण! जो अर्जुन दो भुजाओं से युक्त होकर भी सदा प्राचीनकाल के सहस्र भुजाधारी कार्तवीर्य अर्जुन के साथ स्पर्धा रखता है; केशव! जो एक ही वेग से पाँच सौ बाण चलाता है, जो पांडव अर्जुन धनुर्विद्या में कार्तवीर्य|राजा कार्तवीर्य के समान ही समझा जाता है, जिसका तेज सूर्य के समान है, जो इंद्रियसंयम में महर्षियों के, क्षमा में पृथ्वी के और पराक्रम में देवराज इन्द्र के समान है; मधुसूदन! कौरवों का यह विशाल साम्राज्य, जो सम्पूर्ण राजाओं में प्रख्यात एवं प्रकाशित हो रहा है, जिसे अर्जुन ने ही अपने पराक्रम से बढ़ाया है; समस्त पांडव जिसके बाहुबल का भरोसा रखते हैं, जो सम्पूर्ण रथियों में श्रेष्ठ तथा सत्यपराक्रमी है, संग्राम में जिसके सम्मुख जाकर कोई जीवित नहीं लौटता है, अच्युत! जो सम्पूर्ण भूतों को जीतने में समर्थ, विजयशील एवं अजेय है तथा जैसे देवताओं के आश्रय इन्द्र हैं, उसी प्रकार जो समस्त पांडवों का अवलंब है, वह तुम्हारा भाई और मित्र अर्जुन इस समय कैसे है? मधुसूदन श्रीकृष्ण! जो समस्त प्राणियों के प्रति दयालु, लज्जाशील, महान अस्त्रवेटा, कोमल, सुकुमार, धार्मिक तथा मुझे विशेष प्रिय है; जो महाधनुर्धर शूरवीर सहदेव रणभूमि में शोभा पाने वाला, सभी भाइयों का सेवक, धर्म और अर्थ के विवेचन में कुशल तथा युवावस्था से युक्त है; कलयांकारी आचार वाले जिस महात्मा सहदेव के आचार-व्यवहार की सभी भाई प्रशंसा करते हैं, जो बड़े भाइयों के प्रति अनुरक्त, युद्धों के नेता और मेरी सेवा में तत्पर रहने वाला है; उस माद्रीकुमार वीर सहदेव का समाचार मुझे बताओ।[2] श्रीकृष्ण! जो सुकुमार, युवक, शौर्यसंपन्न तथा दर्शनीय है, जो सभी भाइयों के बाहर विचरने वाला प्रिय प्राणस्वरूप है, जिसमें युद्ध की विचित्र कला शोभा पाती है, वह महान धनुर्धर, महाबली एवं मुझसे पाला हुआ मेरा पुत्र पांडुनंदन नकुल शकुशल तो है न? महाबाहो! क्या मैं सुख-भोग के योग्य, दुःख भोगने के अयोग्य एवं सुकुमार महारथी नकुल को फिर कभी देख सकूँगी? 'वीर! आँखों की पलकें गिरने में जितना समय लगता है, उतनी देर भी नकुल से अलग रहने पर मैं धैर्य खो बैठती थी, परंतु अब इतने दिनों से उसे न देखकर भी जी रही हूँ। देखो, मैं कितनी निर्मम हूँ।'[3]

कुंती द्वारा द्रौपदी के दुखों का वर्णन करना

'जनार्दन! द्रुपदकुमारी कृष्णा मुझे अपने सभी पुत्रों से अधिक प्रिय है। वह कुलीन, अनुपम सुंदरी तथा समस्त सद्गुणों से सम्पन्न है। पुत्रलोक से पतिलोक को श्रेष्ठ समझकर उसका वरन् करने वाली सत्यवादिनी द्रौपदी अपने प्यारे पुत्रों को भी त्याग कर पांडवों का अनुसरण करती है। अच्युत! मैंने सब प्रकार की वस्तुएँ देकर जिसका समादर किया है, वह परम उत्तम कुल में उत्पन्न हुई सर्वकल्याणी महारानी द्रौपदी इन दिनों कैसी दशा में है? हाय! जो महाधनुर्धर, शूरवीर, युद्धकुशल तथा अग्नितुल्य तेजस्वी पाँच पतियों से युक्त है, वह द्रुपदकुमारी कृष्णा भी दुःखभागिनी हो गयी। शत्रुदमन! यह चौदहवाँ वर्ष बीत रहा है। इतने दिनों से मैंने पुत्रों के बिछोह से संतप्त हुई सत्यवादिनी द्रौपदी को नहीं देखा है। यदि वैसे सदाचार और सत्कर्मों से युक्त द्रुपदकुमारी अक्षय सुख नहीं पा रही है, तब तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि मनुष्य पुण्यकर्मों से सुख नहीं पाता है। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव भी मुझे द्रौपदी से अधिक प्रिय नहीं हैं। उसी द्रौपदी को मैंने भरी सभा में लायी गयी देखा, उससे बढ़कर महान दुःख मुझे पहले कभी नहीं हुआ था।

क्रोध और लोभ के वशीभूत हुए दुष्ट दुर्योधन ने रजस्वलावस्था में एकवस्त्रधारिणी द्रौपदी को सभा में बुलवाया और उसे श्वसुरजनों के समीप खड़ी कर दिया। उस समय सभी कौरवों ने उसे देखा था। वहीं राजा धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लिक, कृपाचार्य, सोमदत्त तथा अन्यान्य कौरव खेद में भरे हुए बैठे थे। मैं तो उस कौरव-सभा में सबसे अधिक आदर विदुर जी को देती हूँ, जिन्होंने द्रौपदी के प्रति किए जाने वाले अन्याय का प्रकट रूप में विरोध किया था। मनुष्य अपने सदाचार से ही श्रेष्ठ होता है, धन और विद्या से नहीं। श्रीकृष्ण! परम बुद्धिमान गंभीरस्वभाव महात्मा विदुर का शील ही आभूषण है, जो सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त[4] करके स्थित है।'

कुंती द्वारा अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण को आया हुआ देख कुंती देवी शोकातुर तथा आनंदित हो अपने ऊपर आए हुए नाना प्रकार के सम्पूर्ण दुःखों का पुन: वर्णन करने लगी। 'शत्रुदमन श्रीकृष्ण! पहले के दुष्ट राजाओं ने जो जूआ और शिकार की परिपाटी चला दी है, वह क्या इन सबके लिए सुखावह सिद्ध हुई है? अपितु कदापि नहीं। सभा में कौरवों के समीप धृतराष्ट्र के पुत्रों ने द्रौपदी को जो ऐसा कष्ट पहुँचाया है, जिससे किसी का मंगल नहीं हो सकता, वह अपमान मेरे हृदय को दग्ध करता रहता है।[3]परंतप जनार्दन! पांडवों का नगर से निकाला जाना तथा उनका वन में रहने के लिए बाध्य होना आदि नाना प्रकार के दुःखों का मैं अनुभव कर चुकी हूँ। परंतप माधव! मेरे बालकों को अज्ञातभाव से रहना पड़ा है और अब राज्य न मिलने से उनकी जीविका का भी अवरोध हो गया है। पुत्रों के साथ मुझे इतना महान क्लेश नहीं प्राप्त होना चाहिए। दुर्योधन ने मेरे पुत्रों को कपट द्यूत के द्वारा राज्य से वंचित कर दिया। उन्हें इस दुरवस्था में रहते आज चौदहवाँ वर्ष बीत रहा है। यदि सुख भोगने का अर्थ है पुण्य के फल का क्षय होना, तब तो पाप के फलस्वरूप दुःख भोग लेने के कारण अब हमें भी दुःख के बाद सुख मिलना ही चाहिए। श्रीकृष्ण! मेरे मन में पांडवों तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के प्रति कभी भेदभाव नहीं था। इस सत्य के प्रभाव से निश्चय ही मैं देखूँगी कि तुम भावी संग्राम में शत्रुओं को मारकर पांडवों सहित संकट से मुक्त हो गए तथा राज्यलक्ष्मी ने तुम लोगों का ही वरण किया है। पांडवों में ऐसे सभी गुण मौजूद हैं, जिनके ही कारण शत्रु इन्हें परास्त नहीं कर सकते। मैं जो कष्ट भोग रहीं हूँ, इसके लिए न अपने को दोष देती हूँ, न दुर्योधन को; अपितु पिता की ही निंदा करती हूँ, जिन्होंने मुझे राजा कुंतिभोज के हाथ में उसी प्रकार दे दिया, जैसे विख्यात दानी पुरुष याचक को साधारण धन देते हैं। मैं अभी बालिका थी, हाथ में गेंद लेकर खेलती फिरती थी, उसी अवस्था में तुम्हारे पितामह ने मित्रधर्म का पालन करते हुए अपने सखा महात्मा कुंतिभोज के हाथ में मुझे दे दिया।

परंतप श्रीकृष्ण! इस प्रकार मेरे पिता तथा श्वसुरों ने भी मेरे साथ वञ्च्नापूर्ण बर्ताव किया है। इससे मैं अत्यंत दुखी हूँ। मेरे जीवित रहने से क्या लाभ? अर्जुन के जन्मकाल में जब मैं सूतिकागृह में थी, उस रात्रि में आकाशवाणी ने मुझसे यह कहा था- 'भद्रे! तेरा यह पुत्र सारी पृथ्वी को जीत लेगा। इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा। यह महान संग्राम में कौरवों का संहार करके राज्य पर अधिकार कर लेगा, फिर अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। मैं इस आकाशवाणी को दोष नहीं देती, अपितु महाविष्णुस्वरूप धर्म को ही नमस्कार करती हूँ। वही इस जगत का स्रष्टा है। धर्म ही सदा समस्त प्रजा को धारण करता है। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! यदि धर्म है तो तुम भी वह सब काम पूरा कर लोगे, जिसे उस समय आकाशवाणी ने बताया था। माधव! वैधव्य, धन का नाश तथा कुटुम्बीजनों के साथ बढ़ा हुआ बैर-भाव इनसे मुझे उतना शोक नहीं होता, जितना कि पुत्रों का विरह मुझे शोकदग्ध कर रहा है। समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ गांडीवधारी अर्जुन को जब तक मैं नहीं देख रही हूँ, तब तक मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी? गोविंद! चौदहवाँ वर्ष है, जब से कि मैं युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव को नहीं देख पा रही हूँ। जनार्दन! जो लोग प्राणों का नाश होने से अदृश्य होते हैं, उनके लिए मनुष्य श्राद करते हैं। यदि मृत्यु का अर्थ अदृश्य हो जाना ही है तो मेरे लिए पांडव मर गए हैं और मैं भी उनके लिए मर चुकी हूँ।[5]

माधव! तुम धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर से कहना- बेटा! तुम्हारे धर्म की बड़ी हानि हो रही है। तुम उसे व्यर्थ नष्ट न करो। वासुदेव! जो स्त्री दूसरों के आश्रित होकर जीवन-निर्वाह करती है, उसे धिक्कार है। दीनता से प्राप्त हुई जीविका की अपेक्षा तो मर जाना ही उत्तम है। श्रीकृष्ण! तुम अर्जुन तथा युद्ध के लिए सदा उदयत्त रहने वाले भीमसेन से कहना कि क्षत्राणी जिस प्रयोजन के लिए पुत्र उत्पन्न करती है, उसे पूरा करने का यह समय आ गया है। यदि ऐसा समय आने पर भी तुम युद्ध नहीं करोगे तो यह व्यर्थ बीत जाएगा। तुम लोग इस जगत के सम्मानित पुरुष हो। यदि तुम कोई अत्यंत घृणित कर्म कर डालोगे तो उस नृशंस कर्म से युक्त होने के कारण मैं तुम्हें सदा के लिए त्याग दूँगी। पुत्रों! तुम्हें तो समय आने पर अपने प्राणों को त्याग देने के लिए उद्यत रहना चाहिए। गोविंद! तुम सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले माद्रीनंदन नकुल-सहदेव से भी कहना- पुत्रों! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी पराक्रम से प्राप्त किए हुए भोगों को ही ग्रहण करना। पुरुषोत्तम! क्षत्रिय धर्म से जीवन निर्वाह करने वाले मनुष्य के मन को पराक्रम से प्राप्त हुआ धन ही सदा संतुष्ट रखता है। महाबाहो! तुम पांडवों के पास जाकर सम्पूर्ण शस्त्र-धारियों में श्रेष्ठ पांडुनंदन वीर अर्जुन से कहना कि तुम द्रौपदी के बताए हुए मार्ग पर चलो। श्रीकृष्ण! तुम तो जानते ही हो; यदि भीमसेन और अर्जुन अत्यंत कुपित हो जाएँ तो वे यमराज के समान होकर देवताओं को भी मृत्यु के मुख में पहुँचा सकते हैं।

द्रौपदी को जो सभा में उपस्थित होना पड़ा तथा दु:शासन और कर्ण ने जो उसके प्रति कठोर बातें कहीं, यह सब भीमसेन और अर्जुन का ही अपमान है। दुर्योधन ने प्रधान-प्रधान कौरवों के सामने मनस्वी भीमसेन का अपमान किया है। इसका जो फल मिलेगा, उसे वह देखेगा। भीमसेन बैर हो जाने पर कभी शांत नहीं होता। भीमसेन का बैर तब तक दीर्घकाल के बाद भी समाप्त नहीं होता है, जब तक वह शत्रुओं का संहार नहीं कर डालता। राज्य छिन गया, यह कोई दुःख का कारण नहीं है। जूए में हार जाना भी दुःख का कारण नहीं है। मेरे पुत्रों को वन में भेज दिया, इससे भी मुझे दुःख नहीं हुआ है; परंतु मेरी श्रेष्ठ सुंदरी वधू को एक वस्त्र धारण किए जो सभा में जाना पड़ा और दुष्टों की कठोर बातें सुननी पड़ीं, इससे बढ़कर महान दुःख की बात और क्या हो सकती है? सदा क्षत्रिय धर्म में अनुराग रखने वाली मेरी सर्वांग-सुंदरी बहू कृष्णा उस समय रजस्वला थी। वह सनाथ होती हुई भी वहाँ किसी को अपना नाथ[6] न पा सकी। पुरुषोत्तम! मधुसूदन! पुत्रों सहित जिस कुंती के बलवानों में श्रेष्ठ बलराम, महारथी प्रद्युम्न तथा तुम रक्षक हो, युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले विजयी अर्जुन और दुर्धष भीमसेन सरीखे जिसके पुत्र जीवित हैं, वहीं मैं ऐसे-ऐसे दुःख सह रही हूँ'।[7]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 1-16
  2. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 17-38
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 39-57
  4. विख्यात
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 58-72
  6. रक्षक
  7. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 90 श्लोक 73-90

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सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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