धृतराष्ट्र-विदुर संवाद

महाभारत उद्योग पर्व में प्रजागर पर्व के अंतर्गत त्रयस्त्रिंश अध्याय में 'धृतराष्ट्र-विदुर संवाद' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय![2] महाबुद्धिमान राजा धृतराष्‍ट्र ने द्वारपाल से कहा-‘मैं विदुर से मिलना चाहता हूँ। उन्‍हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ’। धृतराष्‍ट्र का भेजा हुआ वह दूत जाकर विदुर से बोला-‘महामते! हमारे स्‍वामी महाराज धृतराष्‍ट्र आपसे मिलना चाहते हैं।' उसके ऐसा कहने पर विदुरजी राजमहल के पास जाकर बोले-‘द्वारपाल धृतराष्‍ट्र को मेरे आने की सूचना दे दो’। द्वारपाल ने जाकर कहा- महाराज! आपकी आज्ञा से विदुर जी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे आपके चरणों का दर्शन करना चाहते हैं। मुझे आज्ञा दीजिये, उन्‍हें क्‍या कार्य बताया जाये? धृतराष्‍ट्र ने कहा- महाबुद्धिमान दूरदूर्शी विदुर को भीतर ले आओ, मुझे इस विदुर से मिलने में कभी भी अड़चन नहीं है। द्वारपाल विदुर के पास आकर बोला-विदुरजी! आप बुद्धिमान महाराज धृतराष्‍ट्र के अन्‍त:पुर में प्रवेश कीजिये। महाराज ने मुझसे कहा है कि मुझे विदुर से मिलने में कभी अड़चन नहीं है।

धृतराष्‍ट्र की चिंता

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-राजन! तदानंतर विदुर, धृतराष्‍ट्र के महल के भीतर जाकर चिंता में पड़े हुए राजा से हाथ जोड़कर बोले- 'महाप्राज्ञ मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञा से यहाँ आया हूँ। यदि मेरे करने योग्‍य कुछ काम हो तो मैं उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये।' धृतराष्‍ट्र ने कहा- विदुर बुद्धिमान संजय आया था, वह मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है। कल सभा में वह अजातशत्रु युधिष्ठिर के वचन सुनायेगा। आज में उस कुरुवीर युधिष्ठिर की बात न जान सका- यही मेरे अंगों को जला रहा है और इसी ने मुझे अब तक जगा रखा है। तात! मैं चिंता से जलता हुआ अभी तक जग रहा हूँ। मेरे लिये जो कल्‍याण की बात समझो, वह कहो, क्‍योंकि हम लोगों में तुम्‍हीं धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण हो। संजय जब से पाण्‍डवों के यहाँ से लौटकर आया है, तब से मेरे मन को पूर्ण शांति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियां वि‍फल हो रही हैं। कल वह क्‍या कहेगा, इसी बात की मुझे इस समय बड़ी भारी चिंता हो रही है।

धृतराष्‍ट्र-विदुर संवाद

विदुरजी बोले- राजन! जिसका बलवान के साथ विरोध हो गया है, उस साधनहीन दुर्बल मनुष्‍य को, जिसका सब कुछ हर लिया गया है, उस कमी को तथा चोर को रात में नींद नहीं आती। धृतराष्‍ट्र ने कहा- विदुर! मैं तुम्‍हारे धर्मयुक्‍त तथा कल्‍याण करने वाले सुंदर वचन सुनना चाहता हूँ, क्‍योंकि इस राजर्षिवंश में केवल तुम्‍हीं विद्वानों के भी माननीय हो। विदुरजी बोले- महाराज धृतराष्‍ट्र! श्रेष्‍ठ लक्षणों से सम्‍पन्‍न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्‍वामी हो सकते हैं। वे आपके आज्ञाकारी थे, पर आपने उन्‍हें वन में भेज दिया। आप धर्मात्‍मा और धर्म के जानकार होते हुए भी आँखों की ज्‍योति से हीन होने के कारण उन्‍हें पहचान न सके, इसी से उनके अत्‍यंत विपरीत हो गये और उन्‍हें राज्‍य का भाग देने में आपकी सम्‍मति नहीं हुई। युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्‍य तथा पराक्रम है, वे आप में पूज्‍यबुद्धि रखते हैं। इन्‍हीं सद्गणों के कारण वे सोच-विचारकर चुपचाप बहुत-से क्‍लेश सह रहे हैं। आप दुर्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दु:शासन- जैसे अयोग्‍य व्‍यक्तियों पर राज्‍य का भार रखकर कैसे कल्‍याण चाहते हैं?

विद्वानों के गुणों का वर्णन

विदुरजी कहते है- कि अपने वास्‍तविक स्‍वरूप का ज्ञान, उद्योग, दु:ख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिरता- ये गुण, जिस मनुष्‍य-को पुरुषार्थ से च्‍युत नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। जो अच्‍छे कर्मों का सेवन करता है और बुरे कर्मों से दूर रहता है, साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके वे सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं।[1] क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्‍जा उद्दण्‍डता तथा अपने को पूज्‍य समझना- ये भाव जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्‍ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है। दूसरे लोग जिसके कर्तव्‍य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जानते, बल्कि काम पूरा हो जाने पर ही जानते हैं, वही पण्डित कहलाता है। सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्‍पत्ति अथवा दरिद्रता ये जिसके कार्य में विघ्‍न नहीं डालते, वही पण्डित कहलाता है। जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थ का ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरुषार्थ का ही वरण करता है, वही पण्डित कहलाता है। विवेकपूर्ण बुद्धि वाले पुरुष शक्ति के अनुसार काम करने की इच्‍छा रखते हैं और करते भी हैं तथा किसी वस्‍तु को तुच्‍छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं करते। विद्वान पुरुष किसी विषय को देर तक सुनता है; किंतु शीघ्र ही समझ लेता है, समझकर कर्तव्‍यबुद्धि से पुरुषार्थ में प्रवृत्‍त होता है- कामना से नहीं, बिना पुछे दूसरे के विषय में व्‍यर्थ कोई बात नहीं कहता है। उसका यह स्‍वभाव पण्डित की मुख्‍य पहचान है। पण्डितों की-सी बुद्धि रखने वाले मनुष्‍य दुर्लभ वस्तु की कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तु के विषय में शोक करना नहीं चाहते और विपत्ति में पड़कर घबराते नहीं हैं। जो पहले निश्चय करके फिर कार्य का आरम्भ करता है, कार्य के बीच में नहीं रुकता, समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्त को वश में रखता है, वही पण्डित कहलाता है। भरतकुलभूषण! पण्डित जन श्रेष्‍ठ कर्मों में रुचि रखते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते। जो अपना आदर होने पर हर्ष के मारे फूले नहीं उठता, अनादर से संतप्त नहीं होता तथा गंगाजी के हृद (गहरे गर्त) के समान जिसके चित्त को क्षोभ नहीं होता, वही पण्डित कहलाता है। जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थों की असलियत का ज्ञान रखने वाला, सब कार्यों के करने का ढंग जानने वाला तथा मनुष्‍यों में सबसे बढ़कर उपाय का जानकार है, वह मनुष्‍य पण्डित कहलाता है। जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो विचित्र ढंग से बातचीत करता है, तर्क में निपुण और प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्य को शीघ्र बता सकता है, जो बहुत धन, विद्या तथा ऐश्‍वर्य को पाकर भी उद्दण्‍डतापूर्वक नहीं चलता है ,वह पण्डित कहलाता है। जिसकी विद्या बुद्धि का अनुसरण करती है और बुद्धि विद्या का तथा जो शिष्‍ट पुरुषों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वही पण्डित की संज्ञा पा सकता है।[3]

बिना पढे़ ही गर्व करने वाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े़ मनोरथ करने वाले और बिना काम किये ही धन पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्‍य को पण्डित लोग मूर्ख कहते हैं। जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरे के कर्तव्य का पालन करता है तथा मित्र के साथ असत आचरण करता है, वह मूर्ख कहलाता है। जो न चाहने वालों को चाहता है और चाहने वालों को त्याग देता है तथा जो अपने से बलवान के साथ वैर बांधता है, उसे मूढ़ विचार का मनुष्‍य कहते हैं। जो शत्रु को मित्र बनाता है और मित्र से द्वेष करते हुए उसे कष्‍ट पहुँचाता है तथा सदा बुरे कर्मों का आरम्भ किया करता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं।[3] भरतश्रेष्ठ जो अपने कामों को व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र संदेह करता है तथा शीघ्र होने वाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है। जो पितरों का श्राद्ध और देवताओं का पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद मित्र नहीं मिलता, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं। मूढ़ चित्त वाला अधम मनुष्‍य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा अविश्‍वसनीय मनुष्‍य पर भी विश्‍वास करता है। स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरे पर उसके दोष बताकर आक्षेप करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थ का क्रोध करता है, वह मनुष्‍य महामूर्ख है। जो अपने बल को न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थ से विरुद्ध तथा न पाने योग्य वस्तु की इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसार में मूढ़ बुद्धि कहलाता है। राजन! जो अनाधिकारी को उपदेश देता और शून्य की उपासना करता है तथा जो कृपण का आश्रय लेता है, उसे मूढ़ चित्त वाला कहते हैं। जो अपने द्वारा भरण-पोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना अकेले ही उत्तम भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा?[4]

मनुष्‍य अकेला पाप कर के धन कमाता है और उस धन का उपभोग बहुत-से लोग करते हैं। उपभोग करने वाले तो दोष से छूट जाते हैं, पर उसका कर्ता दोष का भागी होता है। किसी धनुर्धर वीर के द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है, एक को भी मारे या न मारे। परन्तु बुद्धिमान द्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजा के साथ-साथ सम्पूर्ण राष्‍ट्र का विनाश कर सकती है। एक बुद्धि से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्‍चय करके (चार साम, दान, भेद,दण्‍ड) से तीन (शत्रु, मित्र तथा उदासीन) को वश में कीजिये। पांच (इन्द्रियों) को जीतकर छ: (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणों को जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्‍ड की कठोरता और अन्याय से धनोपार्जन) को छोड़कर सुखी हो जाइये[5] विष का रस एक (पीने वाले) को ही मारता है, शस्त्र से एक का ही वध होता है; किंतु गुप्त मन्त्रणा का प्रकाशित होना राष्‍ट्र और प्रजा के साथ ही राजा का भी विनाश कर डालता है। अकेले स्वादिष्‍ट भोजन न करे, अकेले किसी विषय का निश्चय न करे, अकेले रास्ता न चले और बहुत से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे। राजन! जैसे समु्द्र के पार जाने के लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्ग के लिये सत्य ही एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं; किंतु आप इसे नहीं समझ रहे हैं। क्षमाशील पुरुषों में एक ही दोष का आरोप होता है, दूसरे की तो सम्भावना ही नहीं है। वह दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्‍य को लोग असमर्थ समझ लेते हैं। किंतु क्षमाशील पुरुष का वह दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है। क्षमा असमर्थ मनुष्‍यों का गुण तथा समर्थों का भूषण है।[4]

इस जगत में क्षमा वशीकरण रूप है। भला, क्षमा से क्या नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथ में शान्ति रूपी तलवार है, उसका दुष्‍ट पुरुष क्या कर लेंगे? तृण रहित स्थान में गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरुष अपने को तथा दूसरे को भी दोष का भागी बना लेता है। केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है, एकमात्र क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्‍ठ उपाय है। एक विद्या ही परम संतोष देने वाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देने वाली है। समुद्र पर्यन्त इस सारी पृथ्‍वी में ये दो प्रकार के अधम पुरुष हैं- अकर्मण्‍य गृहस्थ और कर्मों में लगा हुआ संन्यासी।। बिल में रहने वाले जीवों को जैसे साँप खा जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्‍वी शत्रु से विरोध न करने वाले राजा और परदेश सेवन न करने वाले ब्राह्मण- इन दोनों को खा जाती है। जरा भी कठोर न बोलना और दुष्‍ट पुरुषों का आदर न करना- इन दो कर्मों को करने वाला मनुष्‍य इस लोक में विशेष शोभा पाता है। दूसरी स्त्री द्वारा चाहे गये पुरुष की कामना करने वाली स्त्रियां तथा दूसरों के द्वारा पूजित मनुष्‍य का आदर करने वाले पुरुष- ये दो प्रकार के लोग दूसरों पर विश्‍वास करके चलने-वाले होते हैं। जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तु की इच्छा रखता है और असमर्थ होकर भी क्रोध करता है- ये दोनों ही अपने लिये तीक्ष्‍ण कांटों के समान हैं एवं अपने शरीर को सुखाने वाले हैं। दो ही अपने विपरीत कर्म के कारण शोभा नहीं पाते-अ‍कर्मण्‍य गृहस्थ और प्रपंच में लगा हुआ संन्यासी। राजन! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और निर्धन होने पर भी दान देने वाला।[6]

न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन के दो ही दुरुपयोग समझने चाहिये- अपात्र को देना और सत्पात्र को न देना। जो धनी होने पर भी दान न दे और दरिद्र होने पर भी कष्‍ट सहन न कर सके- इन दो प्रकार के मनुष्‍यों को गले में मजबूत पत्थर बांधकर पानी में डूबा देना चाहिये। पुरुषश्रेष्‍ठ! ये दो प्रकार के पुरुष सूर्यमण्‍डल को भेदकर ऊर्ध्‍वगति प्राप्त होते हैं- योगयुक्त संन्यासी और संग्राम में शत्रओं के सम्मुख युद्ध करके मारा गया योद्धा। भरतश्रेष्‍ठ! मनुष्‍यों की कार्य सिद्धि के लिये उत्तम, मध्‍यम और अधम- ये तीन प्रकार के न्यायानूकूल उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान जानते हैं। राजन! उत्तम, मध्‍यम और अधम- ये तीन प्रकार के पुरुष होते हैं; इनको यथायोग्य तीन ही प्रकार के कर्मों में लगाना चाहिये। राजन! तीन ही धन के अधिकारी नहीं माने जाते- स्त्री, पुत्र तथा दास। ये जो कुछ कमाते हैं, वह धन उसी का होता है, जिसके अधीन ये रहते हैं। दूसरे के धन का हरण, दूसरे की स्त्री का संसर्ग तथा सुहृद् मित्र का परित्याग- ये तीनों ही दोष क्षय करने वाले होते हैं। काम, क्रोध और लोभ- ये आत्मा का नाश करने वाले नरक के तीन दरवाजे है; अत: इन तीनों को त्याग देना चाहिये।[6]

भारत! वरदान पाना, राज्य की प्राप्ति और पुत्र का जन्म- ये तीन एक ओर और शत्रु के कष्‍ट से छूटना- यह एक ओर वे तीन और यह एक बराबर ही हैं। भक्त, सेवक तथा मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहने वाले- इन तीन प्रकार के शरणागत मनुष्‍यों को संकट पड़ने पर भी नहीं छोड़ना चाहिये। थोड़ी बुद्धिवाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करने वाले लोगों के साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये। ये चारों महाबली राजा के लिये त्याग ने योग्य बताये गये हैं। विद्वान पुरुष ऐसे लोगों को पहचान लें। गृहस्‍थ धर्म में स्थित आप लक्ष्‍मीवान के घर में चार प्रकार के मनुष्‍यों को सदा रहना चाहिये-अपने कुटुम्‍ब का बूढ़ा, संकट में पड़ा हुआ उच्‍च कुल का मनुष्‍य, धनहीन मित्र ओर बिना संतान की बहिन।[7]

महाराज! इन्‍द्र के पूछने पर उनसे बृहस्‍पतिजी ने जिन चारों को तत्‍काल फल देन वाला बताया था, उन्‍हें आप मुझसे सुनिये- देवताओं का संकल्‍प, बुद्धिमानों का प्रभाव, विद्वानों की नम्रता ओर पापियों का विनाश। चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं; किंतु वे ही यदि ठीक तरह से सम्‍पादित न हों, तो भय प्रदान करते हैं। वे कर्म हैं- आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्‍वाध्‍याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्‍ठान। भरतश्रेष्‍ठ! पिता, माता, अग्नि, आत्‍मा और गुरु- मनुष्‍य को इन पांच अग्नियों की बड़े यत्‍न से सेवा करनी चाहिये। देवता, पितर, मनुष्‍य, संयासी और अतिथि- इन पांचों की पूजा करने वाला मनुष्‍य शुद्ध यश प्राप्‍त करता है। राजन! आप जहाँ-जहाँ जायंगे, वहाँ-वहाँ मित्र, शत्रु, उदासीन, आश्रय देन वाले तथा आश्रय पाने वाले- ये पांच आपके पीछे लगे रहेंगे। पांच ज्ञानेन्द्रियों वाले पुरुष की यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष) युक्‍त हो जाय तो उससे उसकी वृद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेद से पानी। ऐश्र्वर्य या उन्‍नति चाहने वाले पुरुषों को नींद, तन्‍द्रा (ऊंघना), डर, क्रोध,आलस्‍य तथा दीर्घसूत्रता[8] इन छ: दुर्गुणों को त्‍याग देना चाहिये। उपदेश न देने वाले आचार्य, मन्‍त्रोच्‍चारण न करने वाले होता, रक्षा करने में असमर्थ राजा, कुद वचन बोलने वाली स्‍त्री, ग्राम में रहने की इच्‍छा वाले ग्‍वाले तथा वन में रहने की इच्‍छा वाले नाई-इन छ: को उसी भाँति छोड़ दे, जैसे समुद्र की सैर करने वाला मनुष्‍य छिद्र युक्‍त नाव का परित्‍याग कर देता है। मनुष्‍य को कभी भी सत्‍य, दान, कर्मण्‍यता, अनसूया (गुणों में दोष दिखाने की प्रवृत्ति का अभाव), क्षमा तथा धैर्य- इन छ: गुणों का त्‍याग नहीं करना चाहिये।

राजन धन की प्राप्ति, नित्‍य नीरोग रहना, स्‍त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी होना, पुत्र का आज्ञा के अंदर रहना तथा धन पैदा कराने वाली विद्या का ज्ञान- ये छ: बातें इस मनुष्‍य लोक में सुखदायिनी होती हैं। मन में नित्‍य रहने वाले छ: शत्रु-(काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्‍सर्य) को जो वश में कर लेता है, वह जितेन्द्रिय पुरुष पापों से ही लिप्‍त नहीं होता, फिर उनसे उत्‍पन्‍न होने वाले अनर्थों से युक्‍त होने की तो बात ही क्‍या है? निम्‍नाकित छ: प्रकार के मनुष्‍य छ: प्रकार के लोगों से अपनी जीविका चलाते हैं, सातवें की उपलब्धि नहीं होती। चोर असावधान पुरुष से, वैद्य रोगी से, कामोन्‍मत्‍त स्त्रियां कामियों से, पुरोहित यजमानों से, राजा झगड़ने वालों से तथा विद्वान पुरुष मूर्खों से अपनी जीविका चलाते हैं। मुहूर्त भर भी देख-रेख न करने से गौ, सेवा, खेती, स्‍त्री, विद्या तथा शूद्रों से मेल- ये छ: चीजें नष्‍ट हो जाती हैं।[7] ये छ: प्राय: सदा अपने पूर्व उपकारी का सम्‍मान नहीं करते हैं- शिक्षा समाप्‍त हो जाने पर शिष्‍य आचार्य का, वि‍वाहित बेटे माता का, काम वासना की शांति हो जाने पर पुरुष स्‍त्री का, कृतकार्य मनुष्‍य सहायक का, नदी की दुर्गम धारा पार कर लेने वाले पुरुष नाव का तथा रोगी पुरुष रोग छूटने के बाद वेद्य का राजन! नीरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्‍छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निर्भय होकर र‍हना- ये छ: मनुष्‍य लोक के सुख हैं। ईर्ष्‍या करने वाला, घृणा करने वाला, अंसतोषी, क्रोधी, सदा शंकित रहने वाला और दूसरे के भाग्‍य पर जीवन-निर्वाह करने वाला- ये छ: सदा दुखी रहते हैं। स्‍त्रीविषयक आसक्ति, जुआ, शिकार, मद्यपान, वचन की कठोरता, अत्‍यंत कठोर दण्‍ड देना और धन का दुरुपयोग करना- ये सात दु:खदायी दोष राजा को सदा त्‍याग देने चाहिये। इनसे दृढ़मूल राजा भी प्राय: नष्‍ट हो जाते हैं। विनाश के मुख में पड़ने वाले मनुष्‍य के आठ पूर्वचिन्‍हृ हैं- प्रथम तो वह ब्राह्मणों से द्वेष करता है, फिर उनके विरोध का पात्र बनता है, ब्राह्मणों का धन हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणों की निंदा में आनंद मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता, यज्ञ-यागादि में उनका स्‍मरण नहीं करता तथा कुछ मांगने पर उनमें दोष निकालने लगता है।[9]

इन सब दोषों को बुद्धिमान मनुष्‍य समझे और समझकर त्‍याग दे। भारत! मित्रों से समागम, अधिक धन की प्राप्ति, पुत्र का आलिंगन, मैथुन में संलग्‍न होना, समय पर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्ग के लोगों में उन्‍नति, अभीष्‍ट वस्‍तु की प्राप्ति और जन-समाज में सम्‍मान- ये आठ हर्ष के सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने लौकिक सुख के भी साधन होते हैं। बुद्धि, कुलीनता, इन्द्रियनिग्रह,शास्‍त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्ति के अनुसार दान और कृतज्ञता- ये आठ गुण पुरुष की ख्‍याति बढ़ा देते हैं। जो विद्वान पुरुष [2] नौ दरवाजे वाले, तीन [3] खंभो वाले, पांच (ज्ञानेन्द्रिय रूप) साक्षी वाले, आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी गृह को तत्त्व से जानता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी है। महाराज धृतराष्‍ट्र! दस प्रकार के लोग धर्म के तत्त्व को नहीं जानते, उनके नाम सुनो। नशे में मतवाला, असावधान, पागल, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, जल्दबाज, लोभी, भयभीत और कामी- ये दस हैं। अत: इन सब लोगों में विद्वान पुरुष आसक्त न होवे। इसी विषय में असुरों के राजा प्रह्लाद ने सुधन्वा के साथ अपने पुत्र के प्रति कुछ उपदेश दिया था।

नीतिज्ञ लोग उस पुरातन इतिहास का उदाहरण देते हैं। जो राजा काम और क्रोध का त्याग करता है और सुपात्र- को धन देता है, शास्त्रों का ज्ञाता और कर्तव्य को शीघ्र पूरा करने वाला है, उस (के व्यवहार और वचनों) का सब लोग प्रमाण मानते हैं। जो मनुष्‍यों में विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध प्रमाणित हो गया है उन्हीं को जो दण्‍ड देता है, जो दण्‍ड देने की न्युनाधिक मात्रा तथा क्षमा का उपयोग जानता है, उस राजा की सेवा में सम्पूर्ण सम्पत्ति चली आती है। जो किसी दुर्बल का अपमान नहीं करता, सदा सावधान रहकर शत्रु के साथ बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानों के साथ युद्ध पसंद नहीं करता तथा समय आने पर पराक्रम दिखाता है, वही धीर है।[9]

श्रेष्‍ठ मनुष्य के गुण

विदुर जी कहते है-जो धुरन्धर महापुरुष आपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय पर दु:ख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही हैं। जो घर छोड़कर निरर्थक विदेशवास, पापियों से मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्‍ड, चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान- इन सबका सेवन नहीं करता, वह सदा सुखी रहता है। जो क्रोध या उतावली के साथ धर्म, अर्थ तथा काम का आरम्भ नहीं करता, पूछने पर यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्र के लिये झगड़ा नहीं पंसद करता, आदर न पाने पर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरों के दोष नहीं देखता, सब पर दया करता है, असमर्थ होते हुए किसी की जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवाद को सह लेता है, ऐसा मनुष्‍य सब जगह प्रशंसा पाता है। जो कभी उद्दण्‍ड का-सा वेष नहीं बनाता, दूसरों के सामने अपने पराक्रम की श्‍लाघा भी नहीं करता, क्रोध से व्याकुल होने पर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्‍य को लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं। जो शान्त हुई वैर की आग को फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा ‘मैं विपत्ति में पड़ा हूँ’ ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम आचरण वाले पुरुष को आर्यजन सर्वश्रेष्‍ठ कहते हैं। जो अपने सुख में प्रसन्न नहीं होता, दूसरे के दु:ख के समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्चात्ताप नहीं करता, वह सज्जनों में सदाचारी कहलाता है। जो मनुष्‍य देश के व्यवहार, अवसर तथा जातियों के धर्मों को तत्त्व से जानना चाहता है, उसे उत्तम-अधम का विवेक हो जाता है। वह जहाँ कहीं भी जाता है, सदा महान जनसमूह-पर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है। जो बुद्धिमान दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म, राजद्रोह, चुगलखोरी, समूह से वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनों से विवाद छोड़ देता है, वह श्रेष्‍ठ है।[10]

जो दान, होम, देवपूजन, मांगलिक कर्म, प्रायश्चित्त तथा अनेक प्रकार के लौकिक आचार- इन नित्य किये जाने योग्य कर्मों को करता है, देवता लोग उसके अभ्युदय की सिद्धि करते हैं। जो अपने बराबर वालों के साथ विवाह, मित्रता,व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषों के साथ नहीं; और गुणों में बढे़-चढे़ पुरुषों को सदा आगे रखता है, उस विद्वान की नीति श्रेष्‍ठ नीति है। जो अपने आश्रित जनों को बांटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है तथा मांगने पर जो मित्र नहीं है, उस मनस्वी पुरुष को सारे अनर्थ दूर से ही छोड़ देते हैं। जिसकी अपनी इच्छा के अनुकूल और दूसरों की इच्छा के विरुद्ध कार्य को दूसरे लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभिष्‍ट कार्य का ठीक-ठीक सम्पादन होने के कारण उसका थोडा़ भी काम बिगड़ने नहीं पाता। जो मनुष्‍य सम्पूर्ण भूतों को शान्ति प्रदान करने में तत्पर, सत्यवादी, कोमल, दूसरों को आदर देने वाला तथा पवित्र विचार वाला होता है, वह अच्छी खान से निकले और चमकते हुए श्रेष्‍ठ रत्न की भाँति अपनी जाति वालों में अधिक प्रसिद्धि पाता है। जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है, वह सब लोगों में श्रेष्‍ठ समझा जाता है। वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रता से युक्त होन के कारण कान्ति में सूर्य के समान शोभा पाता है। अम्बिकानन्दन! [11] शाप से दग्ध राजा पाण्‍डु के जो पांच पुत्र वन में उत्पन्न हुए, वे पांच इन्द्रों के समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आपने ही बचपन से पाला और शिक्षा दी हैं; वे भी आपकी आज्ञा का पालन करते रहते हैं। तात! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रों के साथ आनन्दित होते हुए सुख भोगिये। नरेन्द्र! ऐसा करने पर आप देवताओं तथा मनुष्‍यों की आलोचना के विषय नहीं रह जांयगे।

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-16
  2. संजय के चले जाने पर
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 17-33
  4. 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 34-49
  5. 1.यहाँ ‘उपास्ते’ के स्थान पर ‘उपासते’ यह प्रयोग आर्ध समझना चाहिये।
  6. 6.0 6.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 50-66
  7. 7.0 7.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 67-86
  8. जल्‍दी हो जाने वाले काम में अधिक देर लगाने की आदत
  9. 9.0 9.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 87-106
  10. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 33 श्लोक 107-123
  11. मृगरूपधारी किंदम ऋषि के

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महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
विराट की सभा में श्रीकृष्ण का भाषण | विराट की सभा में बलराम का भाषण | सात्यकि के वीरोचित उद्गार | द्रुपद की सम्मति | श्रीकृष्ण का द्वारका गमन | विराट और द्रुपद के संदेश | द्रुपद का पुरोहित को दौत्य कर्म के लिए अनुमति | पुरोहित का हस्तिनापुर प्रस्थान | श्रीकृष्ण का दुर्योधन और अर्जुन को सहायता देना | शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना | इन्द्र द्वारा त्रिशिरा वध | वृत्तासुर की उत्पत्ति | वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध | देवताओं का विष्णु जी की शरण में जाना | इंद्र-वृत्तासुर संधि | इन्द्र द्वारा वृत्तासुर का वध | इंद्र का ब्रह्महत्या के भय से जल में छिपना | नहुष का इंद्र के पद पर अभिषिक्त होना | नहुष का काम-भोग में आसक्त होना | इंद्राणी को बृहस्पति का आश्वासन | देवता-नहुष संवाद | बृहस्पति द्वारा इंद्राणी की रक्षा | नहुष का इन्द्राणी को काल अवधि देना | इंद्र का ब्रह्म हत्या से उद्धार | शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना | उपश्रुति देवी की मदद से इंद्र-इंद्राणी की भेंट | इंद्राणी के अनुरोध पर नहुष का ऋषियों को अपना वाहन बनाना | बृहस्पति और अग्नि का संवाद | बृहस्पति द्वारा अग्नि और इंद्र का स्तवन | बृहस्पति एवं लोकपालों की इंद्र से वार्तालाप | अगस्त्य का इन्द्र से नहुष के पतन का वृत्तांत बताना | इंद्र का स्वर्ग में राज्य पालन | शल्य का युधिष्ठिर आश्वासन देना | युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाओं का संक्षिप्त वर्णन

संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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