भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

धृतराष्ट्र के कहने पर श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाते हुए कहते हैं कि- 'तात! संधि होने पर ही सम्पूर्ण जगत का भला हो सकता है। तुम श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरता से रहित हो। अत: भरतश्रेष्ठ! तुम पिता और माता के शासन के अधीन रहो। भारत! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसी को श्रेष्ठ पुरुष अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं।' अब भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र सभी दुर्योधन को समझाते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 125 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

भीष्म द्वारा दुर्योधन को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण का पूर्वोक्त वचन सुनकर शांतनुनन्दन भीष्म ने ईर्ष्या और क्रोध में भरे रहने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा- 'तात! भगवान श्रीकृष्ण ने सुहृदयों में परस्पर शांति बनाए रखने की इच्छा से जो बात कही है, उसे स्वीकार करो। क्रोध के वशीभूत न होना। तात! महात्मा केशव की बात न मानने से तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे। वत्स! महाबाहु केशव ने तुमसे धर्म और अर्थ के अनुकूल बात कही है। राजन! तुम उसे स्वीकार कर लो, प्रजा का विनाश न करो। बेटा! यह भरतवंश की राजलक्ष्मी समस्त राजाओं में प्रकाशित हो रही है, किन्तु मैं देखता हूँ की तुम अपनी दुष्टता के कारण इसे धृतराष्ट्र के जीते-जी ही नष्ट कर दोगे। साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धि के कारण तुम पुत्र, भाई, बांधवजन तथा मंत्रियों सहित अपने आपको भी जीवन से वंचित कर दोगे। भरतश्रेष्ठ! केशव का वचन सत्य और सार्थक है। तुम उनके, अपने पिता के तथा बुद्धिमान विदुर के वचनों की अवहेलना करके कुमार्ग पर न चलो। कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धि से कलंकित न बनो तथा माता पिता को शोक के समुद्र में न डुबाओ।'[1]

द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन को समझाना

तत्पश्चात रोष के वशीभूत होकर बारंबार लंबी सांस खींचने वाले दुर्योधन से द्रोणाचार्य ने इस प्रकार कहा- ‘तात! भगवान श्रीकृष्ण और शांतनुनन्दन भीष्म ने धर्म और अर्थ से युक्त बात कही है। नरेश्वर! तुम उसे स्वीकार करो। राजन! ये दोनों महापुरुष विद्वान, मेधावी, जितेंद्रिय, तुम्हारा भला चाहने वाले और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं। इन्होंने तुमसे हित की ही बात कही है, अत: तुम इसका सेवन करो। महामते! श्रीकृष्ण और भीष्म ने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो। परंतप! तुम तुच्छ बुद्धि वाले लोगों की बात पर आस्था मत रखो। शत्रुदमन! अपनी बुद्धि के मोह से माधव का तिरस्कार न करो। जो लोग तुम्हें युद्ध के लिए उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते। ये युद्ध का अवसर आने पर बैर का बोझ दूसरे के कंधे पर डाल देंगे। समस्त प्रजाओं, पुत्रों, और भाइयों की हत्या न कराओ। जिनकी ओर भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्ध में अजेय समझो। तात! भरतनन्दन! तुम्हारा वास्तविक हित चाहने वाले श्रीकृष्ण और भीष्म का यही यथार्थ मत है। यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पछताओगे। जमदग्निनन्दन परशुराम जी ने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान है और देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तो देवताओं के लिए भी अत्यंत दु:सह हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगने वाली अधिक बातें कहने से क्या लाभ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। भरतवंश विभूषण! अब तुमसे और कुछ कहने के लिए मेरे मन में उत्साह नहीं है।’[1]

विदुर द्वारा दुर्योधन को समझाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदुर जी भी अमर्ष में भरे हुए धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन की ओर देखकर बीच में ही कहने लगे- ‘भरतभूषण दुर्योधन! मैं तुम्हारे लिए शोक नहीं करता। मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गांधारी और धृतराष्ट्र के लिए भारी शोक हो रहा है।[1] क्योंकि ये दोनों तुम-जैसे दुष्ट सहायक के कारण मित्रों और मंत्रियों के मारे जाने पर पंख कटे हुए पक्षियों की भाँति अनाथ[2] होकर विचरेंगे। तुम्हारे जैसे पापी और कुलघाती कुपुरुष पुत्र को जन्म देने के कारण ये दोनों शोकमग्न हो भिक्षुक की भाँति इस पृथ्वी पर इधर-उधर भटकते फिरेंगे।’[3]

धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना

तत्पश्चात राजा धृतराष्ट्र ने राजाओं से घिरकर भाइयों के साथ बैठे हुए दुर्योधन से कहा- ‘दुर्योधन! मेरी इस बात पर ध्यान दो। महात्मा श्रीकृष्ण ने जो बात बताई है, वह अत्यंत कल्याणकारक, योगक्षेम की प्राप्ति कराने वाली तथा दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली है, तुम इसे स्वीकार करो। अनायास ही महान कर्म करने वाले इन भगवान श्रीकृष्ण की सहायता से हम लोग समस्त राजाओं में सम्मानित रहकर अपने सभी अभीष्ट मनोरथों को प्राप्त कर लेंगे। तात! भगवान श्रीक़ृष्ण से मिलकर तुम युधिष्ठिर के पास जाओ और पूर्ण रूप से मंगल सम्पादन करो, जिससे भरतवंशियों को कोई क्षति न उठानी पड़े। तात! भगवान श्रीक़ृष्ण को मध्यस्थ बनाकर अब शांति धारण करो। मैं तुम्हारे लिए यही समयोचित कर्तव्य मानता हूँ। दुर्योधन! तुम मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन न करो। यदि तुम शांति के लिए प्रार्थना करने वाले भगवान श्रीक़ृष्ण का जो तुम्हारे हित की बात बता रहे हैं, तिरस्कार करोगे- इनकी आज्ञा नहीं मानोगे तो तुम्हारा पराभव हुए बिना नहीं रह सकता।’[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 125 श्लोक 1-19
  2. असहाय
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 125 श्लोक 20-27

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सैन्यनिर्याणपर्व
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उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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