पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर

दुर्योधन के द्वारा दिये हुए संदेश को उलूक पांडवों के पास आकर युधिष्ठिर से क्रोध न करने को कहकर सम्पूर्ण बातें कह सुनाता है, जिसे सुनकर पांडव व श्रीकृष्ण सहित समस्त राजा क्रोधित हो अपने आसन से उठ खड़े होते हैं, तभी कृष्ण, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर और सहदेव क्रुद्ध होकर उलूक दुर्योधन के संदेश का उत्तर देते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में उलूकदूतागमन पर्व के अंतर्गत अध्याय 162 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

पाण्‍डव पक्ष की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर

संजय कहते हैं- राजन! उलूक ने विषधर सर्प के समान क्रोध में भरे हुए अर्जुन को अपने वाग्‍बाणों से और भी पीड़ा देते हुए दुर्योधन की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। उसकी बात सुनकर पाण्‍डवों को बड़ा रोष हुआ। एक तो वे पहले से ही अधिक क्रुद्ध थे, दूसरे जुआरी शकुनि के बेटे ने भी उनका बड़ा तिरस्‍कार किया। वे आसनों से उठकर खडे़ हो गये और अपनी भुजाओं को इस प्रकार हिलाने लगे, मानो प्रहार करने के लिये उद्यत हों। वे विषैले सर्पों के समान अत्‍यन्‍त कुपित हो एक-दूसरे की ओर देखने लगे। भीमसेन ने फुफकारते हुए विषधर नाग की भाँति लम्‍बी साँसें खींचते हुए सिर नीचे किये लाल नेत्रों से भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखा। वायुपुत्र भीम को क्रोध से अत्‍यन्‍त पीड़ित और आहत देख दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्‍ण ने उलूक से मुस्‍कराते हुए से कहा- 'जुआरी शकुनि के पुत्र उलूक! तू शीघ्र लौट जा और दुर्योधन से कह दे कि पाण्‍डवों ने तुम्‍हारा संदेश सुना और उसके अर्थ को समझकर स्‍वीकार किया। युद्ध के विषय में जैसा तुम्‍हारा मत है, वैसा ही हो।' नृपश्रेष्‍ठ! ऐसा कहकर महाबाहु केशव ने पुन: परम बुद्धिमान राजा युधिष्ठिर की ओर देखा। फिर उलूक ने भी समस्‍त सृंजयवंशी क्षत्रिय समुदाय, यशस्‍वी श्रीकृष्‍ण तथा पुत्रों सहित द्रुपद और विराट के समीप सम्‍पूर्ण राजाओं की मण्‍डली में शेष बातें कहीं। उसने विषधर सर्प के सदृश कुपित हुए अर्जुन को पुन: अपने बाग्‍बाणों से पीड़ा देते हुए दुर्योधन की कही हुई सब बातें कह सुनायीं। साथ ही श्रीकृष्‍ण आदि अन्‍य सब लोगों से कहने के लिये भी उसने जो-जो संदेश दिये थे, उन्‍हें भी उन सबको यथावत रूप से सुना दिया। उलूक के कहे हुए उस पापपूर्ण दारुण वचन को सुनकर कुन्‍तीपुत्र अर्जुन को बड़ा क्षोभ हुआ। उन्‍होंने हाथ से ललाट का पसीना पोंछा नरेश्‍वर! अर्जुन को उस अवस्‍था में देखकर राजाओं की वह समिति तथा पाण्‍डव महारथी सहन न कर सके। राजन! महात्‍मा अर्जुन तथा श्रीकृष्‍ण के प्रति आक्षेपपूर्ण वचन सुनकर वे पुरुषसिंह शूरवीर क्रोध से जल उठे।[1]

भीम द्वारा उलूक को उत्तर देना

धृष्टद्युम्न, शिखण्‍डी, महारथी सात्‍यकि, पाँच भाई केकयराजकुमार, राजा धृष्टकेतु, पराक्रमी भीमसेन तथा महारथी नकुल-सहदेव सब-के-सब क्रोध से लाल आंखे किये अपने आसनों से उछलकर खडे़ हो गये और अंगद, पारिहार्य [2] तथा केयूरों से विभूषित एवं लाल चन्‍दन से चर्चित अपनी सुन्‍दर भुजाओं को थमाकर दाँतों पर दाँत रगड़ते हुए ओठों के दोनों कोने चाटने लगे। उनकी आकृति और भाव को जानकर कुन्‍तीपुत्र वृकोदर बड़े वेग से उठे और क्रोध से जलते हुए के समान सहसा आँखे फाड़-फाड़कर देखते, कटकटाते और हाथ से हाथ रगड़ते हुए उलूक से इस प्रकार बोले- 'ओ मूर्ख! दुर्योधन ने तुझसे जो कुछ कहा है, वह तेरा वचन हमने सुन लिया। मानो हम असमर्थ हों और तू हमें प्रोत्‍साहन देने के निमित्त यह सब कुछ कह रहा हो। मूर्ख उलूक! अब तू मेरी कही हुई दु:सह बातें सुन और समस्‍त राजाओं की मण्‍डली में सूतपुत्र कर्ण और अपने दुरात्‍मा पिता शकुनि के सामने दुर्योधन को सुना देना- दुराचारी दुर्योधन! हम लोगों ने सदा अपने बड़े भाई को प्रसन्‍न रखने की इच्‍छा से तेरे बहुत से अत्‍याचारों को चुपचाप सह लिया है; परंतु तू इन बातों को अधिक महत्त्व नहीं दे रहा है। बुद्धिमान धर्मराज ने कौरवकुल के हित की इच्‍छा से शान्ति चाहने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण को कौरवों के पास भेजा था। परंतु तू निश्‍चय ही काल से प्रेरित हो यमलोक में जाना चाहता है इसलिये संधि की बात नहीं मान सका। अच्‍छा, हमारे साथ युद्ध में चल। कल निश्‍चय ही युद्ध होगा। पापात्‍मन! मैंने भी जो तेरे और तेरे भाइयों के वध की प्रतिज्ञा की है, वह उसी रूप में पूर्ण होगी। इस विषय में तुझे कोई अन्‍यथा विचार नहीं करना चाहिये।[1] वरुणालय समुद्र शीघ्र ही अपनी सीमा का उल्‍लंघन कर जाये और पर्वत जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर जायें, परंतु मेरी कही हुई बात झूठी नहीं हो सकती। दुर्बुद्धे! तेरी सहायता के लिये यमराज, कुबेर अथवा भगवान रुद्र ही क्‍यों न आ जायं, पाण्‍डव अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सब कार्य अवश्‍य करेंगे। मैं अपनी इच्‍छा के अनुसार दु:शासन का रक्त अवश्‍य पीऊँगा। उस समय साक्षात भीष्‍म को भी आगे करके जो कोई भी क्षत्रिय क्रोधपूर्वक मेरे ऊपर धावा करेगा, उसे उसी क्षण यमलोक पहुँचा दूँगा। मैंने क्षत्रियों की सभा में यह बात कही है, जो अवश्‍य सत्‍य होगी। यह मैं अपनी सौगन्‍ध खाकर कहता हूँ।'[3]

सहदेव द्वारा युद्ध में उलूक व शकुनि के वध का निश्चय

भीमसेन का वचन सुनकर सहदेव का भी अमर्ष जाग उठा। तब उन्‍होंने भी क्रोध से आँखे लाल करके यह बात कही- 'ओ पापी! मैं इन वीर सैनिकों की सभा में गर्वीले शूरवीर के योग्‍य वचन बोल रहा हूँ। तू इसे सुन ले और अपने पिता के पास जाकर सुना दे। यदि धृतराष्ट्र का तेरे साथ सम्‍बन्‍ध न होता, तो कभी कौरवों के साथ हम लोगों की फूट नहीं होती। तू सम्‍पूर्ण जगत तथा धृतराष्‍ट्रकुल के विनाश के लिये पापाचारी मूर्तिमान वैर पुरुष होकर उत्‍पन्‍न हुआ है। तू अपने कुल का भी नाश करने वाला है। उलूक! तेरा पापात्‍मा पिता जन्‍म से ही हम लोगों के प्रति प्रतिदिन क्रूरतापूर्ण अहितकर बर्ताव करना चाहता है। इसलिये मैं शकुनि में देखते देखते सबसे पहले तेरा वध करके सम्‍पूर्ण धनुर्धरों के सामने शकुनि को भी मार डालूँगा और इस प्रकार अत्‍यन्‍त दुर्गम शत्रुता से पार हो जाऊँगा।'[3]

भीमसेन और सहदेव दोनों के वचन सुनकर अर्जुन ने भीमसेन से मुस्‍कराते हुए कहा- आर्य भीम! जिनका आपके साथ वैर ठन गया है, वे घर में बैठकर सुख का अनुभव करने वाले मूर्ख कौरव काल के पाश में बँध गये हैं अर्थात उनका जीवन नहीं के बराबर है। पुरुषोत्तम! आपको इस उलूक से कोई कठोर बात नहीं कहनी चाहिये। बेचारे दूतों का क्‍या अपराध है। भयंकर पराक्रमी भीमसेन से ऐसा कहकर महाबाहु अर्जुन ने धृष्टद्युम्न वीर सुहृदों से कहा- बन्‍धुओं! आप लोगों ने उस पापी दुर्योधन की बात सुनी है न इसमें उसके द्वारा विशेषत: मेरी और भगवान श्रीकृष्ण की निन्‍दा की गयी है। आप लोग हमारे हित की कामना रखते हैं, इसलिये इस निन्‍दा को सुनकर कुपित हो उठे हैं। परंतु भगवान वासुदेव के प्रभाव और आप लोगों के प्रयत्‍न से मैं इस समस्‍त भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण क्षत्रियों को भी कुछ नहीं गिनता हूँ। यदि आप लोगों की आज्ञा हो तो मैं इस बात का उत्तर उलूक को दे दूँ, जिसे यह दुर्योधन को सुना देगा अथवा आपकी सम्‍मति हो, तो कल सवेरे सेना के मुहाने पर उसकी इन शेखी भरी बातों का ठीक-ठीक उत्तर गाण्डीव धनुष द्वारा दे दूँगा; क्‍योंकि केवल बातों में उत्‍तर देने वाले तो नपुंसक होते हैं। अर्जुन की इस प्रवचन शैली से सभी श्रेष्‍ठ भूपाल आश्‍चर्य चकित हो उठे और वे सब-के-सब उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

युधिष्ठिर द्वारा दुर्योधन के लिए उलूक को उत्तर देना

धर्मराज ने उन समस्‍त राजाओं को उनकी अवस्‍था और प्रतिष्‍ठा के अनुसार अनुनय-विनय करके शान्‍त किया और दुर्योधन को देने योग्‍य जो संदेश था, उसे इस प्रकार कहा- 'उलू‍क! कोई भी श्रेष्‍ठ राजा शान्‍त रहकर अपनी अवज्ञा सहन नहीं कर सकता। मैंने तुम्‍हारी बात ध्‍यान देकर सुनी है। अब मैं तुम्‍हें उत्तर देता हूँ, उसे सुनो। भरतश्रेष्‍ठ जनमेजय! इस प्रकार युधिष्ठिर ने उलूक से पहले मधुर वचन बोलकर फिर ओजस्‍वी शब्‍दों में उत्‍तर दिया। उलूक के मुख से पहले दुर्योधन के पूर्वोक्‍त संदेश को सुनकर युधिष्ठिर रोष से अत्यंत लाल हुए नेत्रों द्वारा देखते हुए विषधर सर्प के समान उच्‍छवास लेने लगे। फिर ओठों के दोनों कोनों को चाटते हुए वे श्रीकृष्‍ण तथा विशाल भुजा ऊपर उठा धूर्त जुआरी शकुनि के पुत्र उलूक से मुस्‍कराते हुए से बोले[3]- 'जुआरी श‍कुनि के पुत्र तात उलूक! तुम जाओ और वैर के मूर्तिमान स्‍वरूप उस कृतघ्‍न, दुबुर्द्धि एवं कुलांगार दुर्योधन से इस प्रकार कह दो- पापी दुर्योधन! तू पाण्‍डवों के साथ सदा कुटिल बर्ताव कराता आ रहा है। पापात्‍मन! जो किसी से भयभीत न होकर अपने वचनों का पालन करता है और अपने ही बाहुबल से पराक्रम प्रकट करके शत्रुओं को युद्ध के लिये बुलाता है, वही पुरुष क्षत्रिय है। कुलाधम! तू पापी है! देख, क्षत्रिय होकर और हम लोगों को युद्ध के लिये बुलाकर ऐसे लोगों को आगे करके रणभूमि में न आना, जो हमारे माननीय वृद्ध गुरुजन और स्‍नेहास्‍पद बालक हों। कुरुनन्‍दन! तू अपने तथा भरणीय सेवक वर्ग के बल ओर पराक्रम का आश्रय लेकर ही कुन्‍ती के पुत्रों का युद्ध के लिये आह्वान कर। सब प्रकार से क्षत्रियत्‍व का परिचय दे। जो स्‍वयं सामना करने में असमर्थ होने के कारण दूसरों के पराक्रम का भरोसा करके शत्रुओं को युद्ध के लिये ललकारता है, उसका यह कार्य उसकी नपुंसकता का ही सूचक है। तू तो दूसरों के ही बल से अपने आपको बहुत अधिक शक्तिशाली मानता है; परंतु ऐसा असमर्थ होकर तू हमारे सामने गर्जना कैसे कर रहा है।'[4]

श्रीकृष्ण द्वारा दुर्योधन के लिए उलूक को उत्तर देना

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- उलूक! इसके बाद तू दुर्योधन से मेरी यह बात भी कह देना- दुर्मते! अब कल ही तू रणभूमि में आ जा और अपने पुरुषत्‍व का परिचय दे। मूढ़! तू जो यह समझता है कि कुन्‍ती के पुत्रों ने श्रीकृष्ण से सारथी बनने का अनुरोध किया है, अत: वे युद्ध नहीं करेंगे। सम्‍भवत: इसीलिये तू मुझसे डर नहीं रहा है। परंतु याद रख, मैं चाहूं, तो इन सम्‍पूर्ण नरेशों को अपनी क्रोधाग्नि से उसी प्रकार भस्‍म कर सकता हूं, जैसे आग घास-फूस को जला डालती है। किंतु युद्ध के अन्‍त तक मुझे ऐसा करने का अवसर न मिले; यही मेरी इच्‍छा है। राजा युधिष्ठिर के अनुरोध से मैं जितेन्द्रिय महात्‍मा अर्जुन के युद्ध करते समय उनके सा‍रथि का काम अवश्‍य करूंगा। अब तू यदि तीनों लोकों से ऊपर उड़ जाये अथवा धरती में समा जाय, तो भी, तू जहाँ-जहाँ जायेगा, वहाँ-वहाँ कल प्रात:काल अर्जुन का रथ पहुँचा हुआ देखेगा। इसके सिवा, तू जो भीमसेन की कही हुई बातों को व्‍यर्थ मानने लगा है, यह ठीक नहीं है। तू आज ही निश्चित रूप से समझ ले कि भीमसेन ने दु:शासन का रक्त पी लिया। तू पाण्‍डवों के विपरीत कटुभाषण करता जा रहा है, परंतु अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव तुझे कुछ भी नहीं समझते हैं।[4]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 1-25
  2. मोतियों के गुच्छों
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 26-50
  4. 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 162 श्लोक 51-63

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संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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