संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना

महाभारत उद्योग पर्व में संजययान पर्व के अंतर्गत चौबीसवें एवं पच्चीसवें अध्याय में 'संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करने' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर देना

इस प्रकार युधिष्ठिर द्वारा प्रश्न पूछने पर संजय बोला- कुरुश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिल्कुल ठीक है। कौरवों तथा अन्य लोगों के विषय में आप जो कुछ पूछ रहे हैं, वह बताता हूँ, सुनिये। तात! कुन्तीनन्दन! आपने जिन श्रेष्ठ कुरुवंशियो के कुशल समाचार पूछे हैं, वे सभी मनस्वी पुरुष स्वस्थ और सानन्द हैं। पाण्डव! धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन के पास जैसे बहुत-से पापी रहते हैं, उसी प्रकार उसके यहाँ साधु स्वभाव वाले वृद्ध पुरुष भी रहते ही हैं। आप इस बात को सत्य ही समझें। दुर्योधन तो शत्रुओं को भी धन देता है, फिर वह ब्राह्मणों की जीविका का लोप तो कर ही कैसे सकता है। आप लोगों ने दुर्योधन के प्रति कभी द्रोह का भाव नहीं रखा है, तो भी वह आपके प्रति जो क्रूरतापूर्ण व्यवहार करता है- द्रोही पुरुषों के समान ही आचरण करता है,[2] यह उचित नहीं है। आप जैसे साधु-स्वभाव लोगों से द्वेष करने पर तो पुत्रों सहित राजा धृतराष्ट्र असाधु और मित्र द्रोही ही समझे जायेंगे। अजातशत्रो! राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को आप से द्वेष करने की आज्ञा नहीं देते; बल्कि आपके प्रति उनके द्रोह की बात सुनकर वे मन-ही-मन अत्यन्त संतप्त होते तथा शोक किया करते हैं; क्योंकि वे अपने यहाँ पधारे हुए ब्राह्मणों से मिलकर सदा उनसे यही सुना करते हैं कि मित्र द्रोह सब पापों से बढ़ कर है। नरदेव! कौरवगण युद्ध की चर्चा चलने पर आपको तथा वीराग्रणी अर्जुन को भी स्मरण करते हैं। युद्धकाल में जब दुन्दुभि और शंख की ध्वनि गूंज उठती है, उस समय उन्हें गदापाणि भीमसेन की बहुत याद आती है। समरांगण में जिन्हें हराना तो दूर की बात है, विचलित या कम्पित करना भी अत्यन्त कठिन है, जो शत्रु सेना पर निरन्तर बाणों की वर्षा करते हैं और संग्राम में सम्पूर्ण दिशाओं में आक्रमण करते हैं, उन महारथी माद्रीकुमार नकुल, सहदेव को भी कौरव सदा याद करते हैं।[1]

संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा

पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर! मेरा यह विश्वास है कि मनुष्य का भविष्य जब तक वह सामने नहीं आता, किसी को ज्ञात नहीं होता; क्योंकि आप जैसे सर्वधर्मसम्पन्न पुरुष भी अत्यन्त भयंकर क्लेश में पड़ गये। अजातशत्रो! संकट में पड़ने पर भी आप ही अपनी बुद्धि से विचार कर इस झगड़े की शान्ति के लिये पुनः कोई सरल उपाय ढूंढ़ निकालिये। पाण्डु के सभी पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी हैं। वे किसी भी स्वार्थ के लिये कभी भी धर्म का त्याग नहीं करते। अत: अजात शत्रो! आप ही इस समस्या को हल कीजिये, जिससे धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, पाण्डव सृंजवंशी क्षत्रिय तथा अन्य नरेश, जो आकर सेना की छावनी में टिके हुए हैं; कल्याण के भागी हों। महाराज युधिष्ठिर! आपके ताऊ धृतराष्ट्र ने रात के समय मुझसे आप लोगों के लिये जो संदेश कहा था, उसे आप मन्त्रियों और पुत्रों सहित मेरे इन शब्दों में सुनिये।[1]

संजय द्वारा युधिष्ठिर को संदेश सुनाना

युधिष्ठिर बोले- गवल्गणकुमार सूतपुत्र संजय! यहाँ पाण्डव, सृंजय, भगवान श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा राजा विराट- सब एकत्र हुए हैं। राजा धृतराष्ट्र ने तुम्हारे द्वारा जो संदेश भेजा है, उसे कहो। संजय बोला- मैं, अजातशत्रु युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण, सात्यकि, चेकितान, विराट, पांचाल देश के बूढ़े नरेश द्रुपद तथा उनके पुत्र वृषतवंशी धृष्टद्युम्न को भी आमन्त्रित करता हूँ। मैं कौरवों की भलाई चाहता हुआ जो कुछ कह रहा हूँ, मेरी उस वाणी को आप सब लोग सुनें। राजा धृतराष्ट्र शान्ति का आदर करते है [3] उन्होंने बड़ी उतावली के साथ मेरे लिये शीघ्रता पूर्वक रथ तैयार कराया और मुझे यहाँ भेजा। मैं चाहता हूँ कि भाई, पुत्र तथा स्वजनों सहित राजा धृतराष्ट्र का यह शान्ति संदेश पाण्डवों को रुचिकर प्रतीत हो और दोनों पक्षों में सन्धि स्थापित हो जाय।

कुन्ती के पुत्रों! आप लोग अपने दिव्य शरीर, दयालु एवं कोमल स्वभाव और सरलता आदि गुणों तथा सम्पूर्ण धर्मों से युक्त हैं। आप लोगों का उत्तम कुल में जन्म हुआ है। आप लोगों में क्रूरता का सर्वथा अभाव है। आप लोग उदार, लज्जाशील कर्मों के परिणाम को जानने वाले हैं। भयंकर सैन्य संग्रह करने वाले पाण्डवों! आप लोगों में ऐसा सत्त्वगुण भरा है कि आपके द्वारा कोई नीच कर्म बन ही नहीं सकता। यदि आप लोगों में कोई दोष होता तो वह सफेद वस्त्र में काले दाग की भाँति चमक उठता [4]। जिसमें सब का विनाश दिखायी देता है, जिससे पूर्णतः पाप का उदय होता है, जो नरक का हेतु है, जिसके अन्त में अभाव ही हाथ लगता है जिसमें जय तथा पराजय दोनों समान हैं, उस युद्ध जैसे कठोर कर्म के लिये कौन समझदार मनुष्य कभी उद्योग करेगा?
जिन्होंने जाति और कुटुम्ब के हितकर कार्यों का साधन किया है, वे धन्य हैं। वे ही पुत्र, मित्र तथा बान्धव कहलाने योग्य हैं। कौरवों को चाहिये कि वे निन्दित जीवन का परित्याग कर दें, कौरवकुल का अभ्युदय अवश्यम्भावी हो। कुन्तीकुमारों! यदि आप लोग समस्त कौरवों को निश्चित रूप से अपना शत्रु मानकर उन्हें दण्ड देंगे, कैद करेंगे अथवा उनका वध कर डालेंगे तो उस दशा में जो आपका जीवन होगा, वह आपके द्वारा कुटुम्बीजनों का वध होने के कारण अच्छा नहीं समझा जायेगा। वह निन्दित जीवन तो मृत्यु के समान ही होगा। भगवान श्रीकृष्ण, चेकितान और सात्यकि आप लोगों के सहायक हैं। आप लोग महाराज द्रुपद के बाहुबल से सुरक्षित हैं। ऐसी दशा में इन्द्र सहित समस्त देवताओं को अपने सहायक रूप में पाकर भी कौन-सा ऐसा मनुष्य होगा, जो आप लोगों को जीतने का साहस करेगा?[5]

संजय का शांति प्रस्ताव

राजन! इसी प्रकार द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा, शल्य, कृपाचार्य आदि वीरों तथा अन्य राजाओं सहित कर्ण के द्वारा सुरक्षित कौरवों को युद्ध में जीतने का साहस कौन कर सकता है? राजा दुर्योधन के पास विशालवाहिनी एकत्र हो गयी है। कौन ऐसा वीर है, जो स्वयं क्षीण न होकर उस सेना का विनाश कर सके? इस युद्ध में किसी पक्ष की जय हो या पराजय, कोई कल्याण की बात नहीं देखता हूँ। भला कुन्ती के पुत्र नीच कुल में उत्पन्न हुए दूसरे अधम मनुष्यों के समान ऐसा (निन्दित) कर्म कैसे कर सकते हैं, जिससे न तो धर्म की सिद्धि होने वाली है और न अर्थ की ही। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण हैं तथा वृद्ध पाचांलराज द्रुपद भी उपस्थित हैं। इन सबको प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ, हाथ जोड़कर आप लोगों की शरण में आया हूँ आप स्वयं विचार करें कि कुरु तथा संजयवंश का कल्याण कैसे हो। मुझे विश्वास है कि भगवान श्रीकृष्ण अथवा अर्जुन इस प्रकार प्रार्थना पूर्वक कही हुई मेरी बात को ठुकरा नहीं सकते। इतना ही नहीं मेरे मांगने पर अर्जुन अपने प्राण दे सकते हैं, फिर दूसरी किसी वस्तु के लिये तो कहना ही क्या है, विद्वान राजा युधिष्ठिर! मैं संधि‌-कार्य की सिद्धि के लिये ही यह सब कह रहा हूँ। भीष्म तथा राजा धृतराष्ट्र को भी यही अभिमत है और इसी से आप सब लोगों को उत्तम शान्ति प्राप्त हो सकती है।[6]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-10
  2. दुर्योधन के लिये
  3. युद्ध नहीं चाहते
  4. छिप नहीं सकता
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-11
  6. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 25 श्लोक 12-15

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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
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