सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर

महाभारत उद्योग पर्व में सनत्सुजातपर्व के अंतर्गत 42वें अध्याय में 'सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर' का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-


धृतराष्‍ट्र द्वारा सनत्सुजात मुनि से प्रश्‍‍न पूछना

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर बुद्धिमान एवं महामना राजा धृतराष्‍ट्र ने विदुर के कहे हुए उस वचन का भली-भाँति आदर करके उत्कृष्‍ट ज्ञान की इच्छा से एकान्त में सनत्सुजात मुनि से प्रश्‍‍न किया। धृतराष्‍ट्र बोले- सनत्सुजात जी मैं यह सुना करता हूँ कि मृत्यु है ही नहीं, ऐसा आपका सिद्धान्त है। साथ ही यह भी सुना है कि देवता और असुरों ने मृत्यु से बचने के लिये ब्रह्मचर्य का पालन किया था। इन दोनों में कौन-सी बात यथा‍र्थ है?

सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्‍‍न का उत्तर देना

सनत्सुजात ने कहा- राजन! इस विषय में दो पक्ष हैं मृत्यु है और वह ब्रह्मचर्य पालन रूप कर्म से दूर होती है- यह एक पक्ष है और ‘मृत्यु है ही नहीं'- यह दूसरा पक्ष है। परंतु यह बात जैसी है, वह मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो और मेरे कथन में संदेह न करना। क्षत्रिय इस प्रश्‍न के उक्त दोनों ही पहलुओं को सत्य समझो। कुछ विद्वानों ने मोहवश इस मृत्यु की सत्ता स्वीकार की है किंतु मेरा कहना तो यह है कि प्रमाद ही मृत्यु है और अप्रमाद ही अमृत है। प्रमाद के ही कारण असुरगण[2] मृत्यु से पराजित हुए और अप्रमाद से ही देवगण[3] ब्रह्मस्वरूप हुए। यह निश्चय है कि मृत्यु व्याघ्र के समान प्राणियों का भक्षण नहीं करती, क्योंकि उसका कोई रूप देखने में नहीं आता। कुछ लोग इस प्रमाद से भिन्न ‘यम’ को मृत्यु कहते हैं और हृदय से दृढ़तापूर्वक पालन किये हुए ब्रह्मचर्य को ही अमृत मानते हैं। यमदेव पितृलोक में राज्य-शासन करते हैं। वे पुण्‍यात्माओं के लिये मंगलमय और पापियों के लिये अमंगलमय हैं। इन यम की आज्ञा से ही क्रोध, प्रमाद और लोभरूपी मृत्यु मनुष्‍यों के विनाश में प्रवृत्त होती हैं। अहंकार के वशीभूत होकर विपरीत मार्ग पर चलता हुआ कोई भी मनुष्‍य परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाता। मनुष्‍य (क्रोध, प्रमाद और लोभ से) मोहित होकर अहंकार के अधीन हो इस लोक से जाकर पुन: पुन: जन्म-मरण के चक्कर में पड़ते हैं। मरने के बाद उनके मन, इन्द्रिय और प्राण भी साथ जाते हैं। शरीर से प्राणरूपी इन्द्रियों का वियोग होने के कारण मृत्यु ‘मरण’ संज्ञा को प्राप्त होती है। प्रारब्ध कर्म का उदय होने पर कर्म के फल में आसक्ति रखने वाले लोग[4] परलोक का अनुगमन करते हैं इसीलिये वे मृत्यु को पार नहीं कर पाते। देहाभिमानी जीव परमात्मा साक्षात्कार के उपाय को न जानने से विषयों के उपभोग के कारण सब ओर[5] भटकता रहता है। इस प्रकार विषयों का जो भोग है, वह अवश्‍य ही इन्द्रियों को महान मोह में डालने वाला है और इन झूठे विषयों में राग रखने वाले मनुष्‍य की उनकी ओर प्रवृत्ति होनी स्वाभाविक है। मिथ्‍या भोगों में आसक्ति होने से जिसके अन्त:करण की ज्ञान शक्ति नष्‍ट हो गयी है, वह सब ओर विषयों का ही चिन्तन करता हुआ मन-ही-मन उनका आस्वादन करता है। पहले तो विषयों का चिन्तन ही लोगों को मारे डालता है। इसके बाद वह काम और क्रोध को साथ लेकर पुन: जल्दी ही प्रहार करता है। इस प्रकार ये विषय-चिन्तन (काम और क्रोध) ही विवेक हीन मनुष्‍यों को मृत्यु के निकट पहुँचाते हैं परंतु जो स्थिर बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे धैर्य से मृत्यु के पार हो जाते हैं।[1] अत: जो मृत्यु को जीतने की इच्छा रखता है, उसे चाहिये कि परमात्मा का ध्‍यान करके विषयों को तुच्छ मानकर उन्हें कुछ भी न गिनते हुए उनकी कामनाओं का उत्पन्न होते ही नष्‍ट कर डाले। इस प्रकार जो विद्वान विषयों की इच्छा को मिटा देता है, उसको साधारण प्राणियों की मृत्यु की भाँति मृत्यु नहीं मारती [6] कामनाओं के पीछे चलने वाला मनुष्‍य कामनाओं के साथ ही नष्‍ट हो जाता है; परंतु ज्ञानी पुरुष कामनाओं का त्याग कर देने पर जो कुछ भी जन्म-मरण रूप दु:ख है, उन सबको वह नष्‍ट कर देता है। काम ही समस्त प्राणियों के लिये मोहक होने के कारण तमोमय और अज्ञानरूप है तथा नरक के समान दु:खदायी देखा जाता है। जैसे मद्यपान से मोहित हुए पुरुष चलते-चलते गड्ढे़ की ओर दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही कामी पुरुष भोगों में सुख मानकर उनकी ओर दौड़ते हैं। जिसके चित्त की वृत्तियां विषय भोगों से मोहित नहीं हुई हैं, उस ज्ञानी पुरुष का इस लोक में तिनकों के बनाये हुए व्याघ्र के समान मृत्यु क्या बिगाड़ सकती है? इसलिये राजन! विषय भोगों के मूल कारणरूप अज्ञान को नष्‍ट करने की इच्छा से दूसरे किसी भी सांसारिक पदार्थ को कुछ भी न गिनकर उसका चिन्तन त्याग देना चाहिये। यह जो तुम्हारे शरीर के भीतर अन्तरात्मा है, मोह के वशीभूत होकर यही क्रोध, लोभ[7] और मृत्यु रूप हो जाता है। इस प्रकार मोह से होने वाली मृत्यु को जानकर जो ज्ञाननिष्‍ठ हो जाता है, वह इस लोक में मृत्यु से कभी नहीं डरता। उसके समीप आकर मृत्यु उसी प्रकार नष्‍ट हो जाती है, जैसे मृत्यु के अधिकार में आया हुआ मरण-धर्मा मनुष्‍य।

धृतराष्‍ट्र-सनत्सुजात संवाद

धृतराष्‍ट्र बोले- द्विजातियों के लिये यज्ञों द्वारा जिन पवित्रतम सनातन एवं श्रेष्‍ठ लोकों की प्राप्ति बतायी गयी हैं, यहाँ वेद उन्हीं को परम पुरुषार्थ कहते हैं। इस बात को जानने वाला विद्वान उत्तम कर्मों का आश्रय क्यों न लें? सनत्सुजात ने कहा- राजन! अज्ञानी पुरुष इस प्रकार भिन्न-भिन्न लोकों में गमन करता है तथा वेद कर्म के बहुत से प्रयोजन भी बताते हैं; परंतु जो निष्‍काम पुरुष है, वह ज्ञान मार्ग के द्वारा अन्य सभी मार्गों का बाध करके परमात्मा स्वरूप होता हुआ ही परमात्मा को प्राप्त होता है धृतराष्‍ट्र बोले- विद्वन! यदि वह परमात्मा ही क्रमश: इस सम्पूर्ण जगत के रूप में प्रकट होता है तो उस अजन्मा और पुरातन पुरुष पर कौन शासन करता है? अथवा उसे इस रूप में आने की क्या आवश्‍यकता है और क्या सुख मिलता है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये। सनत्सुजात ने कहा- तुम्हारे इस प्रश्‍न के अनुसार जीव और ब्रह्म का विशेष भेद प्राप्त होता है, जिसे स्वीकार कर लेने पर वेद विरोध रूप महान दोष की प्राप्ति होती है। अतएव अनादि माया के सम्बन्ध से जीवों का काम सुख आदि से सम्बन्ध होता रहता है। ऐसा होने पर भी जीव की महत्ता नष्‍ट नहीं होती क्योंकि माया के सम्बन्ध से जीव के देहादि पुन: उत्पन्न होते रहते हैं। जो नित्यस्वरूप भगवान हैं, वे ही परब्रह्म माया के सहयोग से इस विश्‍व ब्रह्माण्‍ड की सृष्टि करते हैं। वह माया उन्हीं परब्रह्म की शक्ति है। महात्मा पुरुष इसे मानते हैं। इस प्रकार के अर्थ के प्रतिपादन में वेद भी प्रमाण हैं।[8]

धृतराष्‍ट्र बोले- इस जगत में कुछ लोग ऐसे हैं, जो धर्म का आचरण नहीं करते तथा कुछ लोग उसका आचरण करते हैं, अत: धर्म पाप के द्वारा नष्‍ट होता है या धर्म ही पाप को नष्‍ट कर देता है। सनत्सुजात ने कहा-राजन! धर्म और पाप दोनों के पृथक-पृथक फल होते हैं और उन दोनों का उपभोग करना पड़ता है। किंतु परमात्मा में स्थित होने पर विद्वान पुरुष उस[9]ज्ञान के द्वारा अपने पूर्वकृत पाप और पुण्‍य दोनों का नाश कर देता है यह बात सदा प्रसिद्ध है। यदि ऐसी स्थिति नहीं हुई तो देहाभिमानी मनुष्‍य कभी पुण्‍यफल को प्राप्‍त करता है और कभी क्रमश: प्राप्‍त हुए पूर्वोपार्जित पाप के फल का अनुभव करता है। इस प्रकार पुण्‍य और पाप के जो स्‍वर्ग-नरक दो अस्थिर फल हैं, उनका भोग करके वह [10] पुन: तदनुसार कर्मों में लग जाता है; किंतु कर्मों के तत्‍व को जानने वाला पुरुष निष्‍काम धर्मरूप कर्म के द्वारा अपने पूर्व पाप का यहाँ ही नाश कर देता है। इस प्रकार धर्म ही अत्‍यंत बलवान यहाँ ही नाश कर देता है। इस प्रकार धर्म ही अत्‍यंत बलवान है। इसलिये निष्‍काम भाव से धर्माचरण करने वालों को समयानुसार अवश्‍य सिद्धि प्राप्‍त होती है।

धृतराष्‍ट्र बोले- विद्वन पुण्‍य कर्म करने वाले द्विजातियों को अपने-अपने धर्म के फलस्‍वरूप जिन सनातन लोकों की प्राप्ति बतायी गयी है, उनका क्रम बतालाइये तथा उनसे भिन्‍न जो अन्‍याय लोक है, उनका भी निरूपण कीजिये। अब मैं सकाम कर्म की बात नहीं जानना चाहता। सनत्सुजात ने कहा- जैसे दो बलवान वीरों में अपना बल बढ़ाने के निमित्त एक दूसरे से स्‍पर्धा रहती है, उसी प्रकार जो निष्‍काम भाव से यम-नियमादि के पालन में दूसरों से बढ़ने का प्रयास करते हैं, वे ब्राह्मण यहाँ से मरकर जाने के बाद ब्रह्मलोक में अपना प्रकाश फैलाते हैं। जिनकी धर्म के पालन में स्‍पर्धा है, उनके लिये वह ज्ञान का साधन है; किंतु वे ब्राह्मण[11] तो मृत्‍यु के पश्चात यहाँ से देवताओं के निवास स्‍थान स्‍वर्ग में जाते हैं। ब्राह्मण के सम्‍यक आचार की वेदवेत्ता पुरुष प्रशंसा करते हैं,किंतु जो धर्म पालन में बहिर्मुख है, उसे अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये। जो निष्‍काम भाव पूर्वक धर्म का पालन करने से अन्तर्मुख हो गया है, ऐसे पुरुष को श्रेष्‍ठ समझना चाहिये। जैसे वर्षा ऋतु में तृण-घास आदि की बहुतायत होती है, उसी प्रकार जहाँ ब्राह्मण के योग्य अन्न-पान आदि की अधिकता मालूम पड़े, उसी देश में रहकर वह जीवन निर्वाह करे। भूख-प्यास से अपने को कष्‍ट नहीं पहुँचाये। किंतु जहाँ अपना माहात्म्य प्रकाशित न करने पर भय और अमंगल प्राप्त हो, वहाँ रहकर भी जो अपनी विशेषता प्रकट नहीं करता, वही श्रेष्‍ठ पुरुष है; दूसरा नहीं। जो किसी को आत्मप्रशंसा करते देख जलता नहीं तथा ब्राह्मण के स्वत्व का उपभोग नहीं करता, उसके अन्न को स्वीकार करने में सत्पुरुषों की सम्मति है। जैसे कुत्ता अपना वमन किया हुआ भी खा लेता है, उसी प्रकार जो अपने ब्राह्मणत्व के प्रभाव का प्रदर्शन करके जीविका चलाते हैं, वे ब्राह्मण वमन का भोजन करने वाले हैं और इससे उनकी सदा ही अवनति होती है। जो कुटुम्बीजनों के बीच में रहकर भी अपनी साधना को उनसे सदा गुप्त रखने का प्रयत्न करता है, ऐसे ब्राह्मणों को ही विद्वान पुरुष ब्राह्मण मानते हैं।[12]

इस प्रकार जो भेदशून्य, चिह्नरहित, अविचल, शुद्ध एवं सब प्रकार के द्वैत से रहित आत्मा है, उसके स्वरूप को जानने वाला कौन ब्रह्मवेत्ता पुरुष उसका हनन [13] करना चाहेगा? इसलिये उपर्युक्त रूप से जीवन बिताने वाला क्षत्रिय भी ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव करता है तथा ब्रह्म को प्राप्त होता है। जो उक्त प्रकार से वर्तमान आत्मा को उसके विपरीत रूप से समझता है, आत्मा का अपहरण करने वाले उस चोर ने कौन-सा पाप नहीं किया? जो कर्तव्य-पालन में कभी थकता नहीं, दान नहीं लेता, सत्पुरुषों में सम्मानित और उपद्रव रहित है तथा शिष्‍ट होकर भी शिष्‍टता का विज्ञापन नहीं करता, वही ब्राह्मण ब्रह्मवेत्ता एवं विद्वान है। जो लौकिक धन की दृष्टि से निर्धन होकर भी दैवी सम्पत्ति तथा यज्ञ-उपासना आदि से सम्पन्न हैं, वे दुर्धर्ष हैं और किसी भी विषय से चलायमान नहीं होते हैं। उन्हें ब्रह्म की साक्षात मूर्ति समझना चाहिये। यदि कोई इस लोक में अभीष्‍ट सिद्ध करने वाले सम्पूर्ण देवताओं को जान ले, तो भी वह ब्रह्मवेत्ता के समान नहीं होता; क्योंकि वह तो अभीष्‍ट फल की सिद्धि के लिये ही प्रयत्न कर रहा है। जो दूसरों से सम्मान पाकर भी अभिमान न करे और सम्माननीय पुरुष को देखकर जले नहीं तथा प्रयत्न न करने पर भी विद्वान लोग जिसे आदर दें, वही वास्तव में सम्मानित है। जगत में जब विद्वान पुरुष आदर दें, तब सम्मानित व्यक्ति को ऐसा मानना चाहिये कि आँखों को खोलने-मीचने के समान अच्छे लोगों की यह स्वाभाविक वृत्ति है, जो आदर देते हैं। किंतु इस संसार में जो अधर्म में निपुण, छल-कपट में चतुर और माननीय पुरुषों का अपमान करने वाले मूढ़ मनुष्‍य हैं, वे आदरणीय व्यक्तियों का भी आदर नहीं करते। यह निश्चित है कि मान और मौन सदा एक साथ नहीं रहते; क्योंकि मान से इस लोक में सुख मिलता है और मौन से परलोक में। ज्ञानी जन इस बात को जानते हैं। राजन! लोक में ऐश्वर्यरूपा लक्ष्मी सुख का घर मानी गयी है, पर वह भी कल्याण मार्ग में लुटेरों की भाँति विघ्‍न डालने वाली है; किंतु ब्रह्म ज्ञानमयी लक्ष्‍मी प्रज्ञाहीन मनुष्‍य के लिये सर्वथा दुर्लभ है। संत पुरुष यहाँ उस ब्रह्म ज्ञानमयी लक्ष्‍मी की प्राप्ति के अनेकों द्वार बतलाते हैं, जो कि मोह को जगाने वाले नहीं हैं तथा जिनको कठिनता से धारण किया जाता है। उनके नाम हैं- सत्य, सरलता, लज्जा, दम, शौच और विद्या।[14]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 1-11
  2. आसुरी सम्पत्ति वाले
  3. दैवी सम्पत्ति वाले
  4. देहत्याग के पश्‍चात
  5. नाना प्रकार की योनियों में
  6. अर्थात वह जन्म-मरण से मु‍क्त हो जाता है।
  7. प्रमाद
  8. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 12-21
  9. परमात्‍मा के
  10. इस जगत में जन्‍म ले
  11. यदि सकाम भाव से उसका अनुष्‍ठान करें
  12. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 22-34
  13. अध:पतन
  14. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 42 श्लोक 35-46

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युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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