- संजय अपनी माता विदुला के वचन सुनकर युद्ध के लिये तैयार हो जाते है तथा कुंती श्रीकृष्ण से विदुला के वचनों की प्रशंसा करती हैं और कहती है कि विदुला के यह उत्तम उपाख्यान वीरों के लिए अत्यंत उत्साहवर्धक और कायरों के लिए भयंकर है। अब कुंती श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन के लिये संदेश भेजती है जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत 137वें अध्याय में हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
कुंती का पाण्डु पुत्रों व द्रौपदी के लिये संदेश
कुंती बोली- केशव! तुम अर्जुन से जाकर कहना, तुम्हारे जन्म के समय जब मैं नारियों से घिरी हुई आश्रम के सूतिकागार में बैठी थी, उसी समय आकाश में यह दिव्यरूपा मनोरम वाणी सुनाई दी- कुंती! तेरा यह पुत्र इन्द्र के समान पराक्रमी होगा। यह भीमसेन के साथ रहकर युद्ध में आए हुए समस्त कौरवों को जीत लेगा और शत्रु-समुदाय को व्याकुल कर देगा। तेरा यह पुत्र भगवान श्रीकृष्ण के साथ रह कर इस भूमंडल को जीत लेगा, इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा और यह संग्राम में विपक्षी कौरवों को मारकर अपने पैतृक राज्य-भाग का पुनरुद्धार करेगा। यह शोभासंपन्न बालक अपने भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा।' अच्युत! सव्यसाची अर्जुन जैसा सत्यप्रतिज्ञ है तथा उसमें जितना बल एवं दुर्जेय शक्ति है, उसे तुम्हीं जानते हो। दशार्हकुलनंदन श्रीकृष्ण! आकाशवाणी ने जैसा कहा है, वैसा ही हो, यही मेरी भी इच्छा है। वृष्णिनन्दन! यदि धर्म की सत्ता है तो वह सब उसी रूप में सत्य होगा। श्रीकृष्ण! तुम स्वयं भी वह सब कुछ उसी रूप में पूर्ण करोगे। आकाशवाणी ने जैसा कहा है, उसमें मैं किसी दोष की उद्भावना नहीं करती हूँ। मैं तो उस महान धर्म को नमस्कार करती हूँ, क्योंकि धर्म ही समस्त प्रजा को धारण करता है। तुम अर्जुन से तथा युद्ध के लिए सदा उद्यत रहने वाले भीमसेन से भी जाकर कहना। क्षत्राणी जिसके लिए पुत्र को जन्म देती है, उसका यह उपयुक्त अवसर आ गया है। श्रेष्ठ मनुष्य किसी से वैर ठन जाने पर उत्साहहीन नहीं होते।
शत्रुदमन श्रीकृष्ण! तुम्हें भीमसेन का विचार तो सदा से ज्ञात ही है, वह जब तक शत्रुओं का अंत नहीं कर लेगा, तब तक शांत नहीं होगा। माधव! श्रीकृष्ण! तुम सब धर्मों को विशेष रूप से जानने वाली महात्मा पांडु की पुत्रवधू कल्याणमयी, यशस्विनी द्रौपदी से कहना। बेटी! तू परम सौभाग्यशाली यशस्वी कुल में उत्पन्न हुई है। तूने मेरे सभी पुत्रों के साथ जो धर्मानुसार यथोचित बर्ताव किया है, वह तेरे ही योग्य है।' पुरुषोत्तम! तदनंतर क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले दोनों माद्रीकुमारों से भी मेरा यह संदेश कहना- वीरो! तुम प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने पराक्रम से प्राप्त हुए भोगों का ही उपभोग करो। क्षत्रिय धर्म से निर्वाह करने वाले मनुष्य के मन को पराक्रम द्वारा प्राप्त किए हुए पदार्थ ही सदा संतुष्ट रखते हैं।
कुंती का दुख
पांडवो! सब प्रकार से धर्म की वृद्धि करने वाले तुम सब लोगों के देखते-देखते पाञ्चाल राजकुमारी द्रौपदी को जो कटुवचन सुनाये गए हैं, उन्हें कौन वीर क्षमा कर सकता है? श्रीकृष्ण! मुझे राज्य छिन जाने का उतना दु:ख नहीं है, जितना जूए में हारने और पुत्रों के वनवास होने का भी मेरे मन में उतना महान दु:ख नहीं है, परंतु भरी सभा में मेरी सुंदरी युवती पुत्रवधू द्रौपदी ने रोते हुए जो दुर्योधन के कटुवचन सुने थे, वही मेरे लिए महान दु:ख का कारण बन गया है। क्षत्रिय धर्म में सदा तत्पर रहने वाली मेरी सर्वांगसुंदरी सती-साध्वी बहू कृष्णा उन दिनों राजस्वलावस्था में थी। वह सब प्रकार से सनाथ थी, तो भी उस दिन कौरव सभा में उसे कोई रक्षक नहीं मिला, वह अनाथ सी रोती हुई अपमान सह रही थी।[1]
कृष्ण का कुंती से विदा लेकर जाना
महाबाहो! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ पुरुषसिंह अर्जुन से कहना कि तुम द्रौपदी के इच्छित पथ पर चलो। श्रीकृष्ण! तुम तो अच्छी तरह जानते ही हो कि भीमसेन और अर्जुन कुपित हो जाएँ तो वे यमराज तथा अंत के समान भयंकर हो जाते हैं और देवताओं को भी यमलोक पहुँचा सकते हैं। जूए के समय द्रौपदी को जो सभा में जाना पड़ा और कौरव वीरों के सामने ही दुर्योधन और दु:शासन ने जो उसे गालियां दीं, वह सब भीमसेन और अर्जुन का ही तिरस्कार है। मैं पुन: उसकी याद दिला देती हूँ। जनार्दन! तुम मेरी ओर से द्रौपदी और पुत्रों सहित पांडवों से कुशल पूछना और फिर मुझे भी सकुशल बताना। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, मेरे पुत्रों की रक्षा करना। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने कुंती देवी को प्रणाम करके उनकी परिक्रमा भी की और फिर सिंह के समान मस्तानी चाल से वहाँ से निकल गए। फिर भीष्म आदि प्रधान कुरुवंशियों को उन्होंने विदा कर दिया और कर्ण को रथ पर बैठाकर सात्यकि के साथ वहाँ से प्रस्थान किया।[2]
कौरवों का आपस में बर्तालाप करना
दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण के चले जाने पर सब कौरव आपस में मिलें और उनके अत्यंत अद्भुत एवं महान आश्चर्यजनक बल-वैभव की चर्चा करने लगे। वे बोले- यह सारी पृथ्वी मृत्युपाश में आबद्ध हो मोहाच्छ्न्न हो गई है। जान पड़ता है, दुर्योधन की मूर्खता से इसका विनाश हो जाएगा।
श्रीकृष्ण का उपप्लव्य नगर जाना
उधर पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण जब नगर से निकलकर उपप्लव्य की ओर चले, तब उन्होंने दीर्घकाल तक कर्ण के साथ मंत्रणा की। फिर राधानन्दन कर्ण को विदा करके सम्पूर्ण यदुकुल को आनंदित करने वाले श्रीकृष्ण ने तुरंत ही बड़े वेग से अपने रथ के घोड़े हँकवाये। दारुक के हाँकने पर वे महान वेगशाली अश्व मन और वायु के समान तीव्र गति से आकाश को पीते हुए से चले। उन्होंने शीघ्रगामी बाज पक्षी की भाँति उस विशाल पथ को तुरंत ही तय कर लिया और शार्गंधनुष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण को उपप्लव्य नगर में पहुँचा दिया।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 137 श्लोक 1-19
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 137 श्लोक 20-32
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| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
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| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
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| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
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| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
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| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
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दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
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रथातिरथसंख्यानपर्व
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| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
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| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
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अम्बोपाख्यानपर्व
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| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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