कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश

श्रीकृष्ण दुर्योधन की दुर्भावनाओं को जानकर विदुर से कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य इस प्रकार बताते हैं- 'मैं धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की दुष्टता और क्षत्रिय योद्धाओं के बैरभाव इन- सब बातों को जानकर ही आज कौरवों के पास आया हूँ। अश्व, रथ और हाथियों सहित यह सारी पृथ्वी विनष्ट होना चाहती है। जो इसे मृत्युपाश से छुड़ाने का प्रयत्न करेगा, उसे ही उत्तम धर्म प्राप्त होगा।' अब श्रीकृष्ण कौरव सभा में जाते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 94 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

दुर्योधन एवं शकुनि के द्वारा श्रीकृष्ण को बुलाना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय बुद्धिमान श्रीकृष्ण तथा विदुर के इस प्रकार वार्तालाप करते हुए ही वह नक्षत्रों से सुशोभित मंगलमयी रात्रि बहुत-सी व्यतीत हो चुकी थी। महात्मा श्रीकृष्ण धर्म, अर्थ और काम के विषय में अनेक प्रकार की बातें कहते रहे। उनकी वाणी के पद, अर्थ और अक्षर बड़े विचित्र थे; अत: महात्मा विदुर भगवान की कही हुई उन विविध वार्ताओं को प्रसन्नतापूर्वक सुनते रहे। इस प्रकार अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण और विदुर दोनों ही एक दूसरे की मनोनुकूल कथावार्ता में इतने तन्मय थे कि बिना इच्छा के ही उनकी वह रात्रि बहुत-सी व्यतीत हो गयी थी। तदनंतर मधुर स्वर से युक्त बहुत-से सूत और मागध शंख और दुंदुभियों के घोष से भगवान श्रीकृष्ण को जगाने लगे। तब समस्त यदुवंशियों के शिरोमणि दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण ने शैय्या से उठकर प्रात:काल का समस्त आवश्यक कर्म क्रमश: सम्पन्न किया। संध्या-तर्पण और जप करके अग्निहोत्र करने के पश्चात् माधव ने अलंकृत होकर उदयकाल में सूर्य का उपस्थान किया। इसी समय राजा दुर्योधन और सुबलपुत्र शकुनि भी संध्योपासना में लगे हुए अपार्जित वीर दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के पास आए और उनसे इस प्रकार बोले- 'गोविंद! महाराज धृतराष्ट्र सभा में आ गए हैं। भीष्म आदि कौरव तथा अन्य समस्त भूपाल भी वहाँ उपस्थित हैं। जैसे स्वर्ग में देवता इंद्र का आवाहन करते हैं, इसी प्रकार भीष्म आदि सब लोग आपसे वहाँ दर्शन देने की प्रार्थना करते हैं।' यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने परम मधुर सांत्वनापूर्ण वचन द्वारा उन दोनों का अभिनंदन किया।[1]

श्रीकृष्ण के दिव्य रथ की शोभा का वर्णन

तदनंतर निर्मल सूर्यदेव का उदय होने जाने पर शत्रुओं को संताप देने वाले भगवान जनार्दन ने ब्राह्मणों को सुवर्ण, वस्त्र, गौ तथा घोड़े दान किए। अनेक प्रकार के रत्नों का दान करके खड़े हुए उन अपराजित दाशार्हवीर के पास जाकर सारथी ने उनके चरणों में मस्तक झुकाया। इसके बाद क्षुद्र घंटिकाओं से विभूषित और उत्तम घोड़ों से जुते हुए चमकीले विशाल रथ के साथ दारुक शीघ्र ही भगवान की सेवा में उपस्थित हुआ। भगवान के लिए जोतकर खड़ा किया हुआ वह विश्वविख्यात श्रेष्ठ रथ बड़ी शोभा पा रहा था। उसमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम वाले चार घोड़े जुते हुए थे। उनमें से शैव्य का रंग तोतों की पांख के समान हरा था। सुग्रीव पलास के फूल की भाँति लाल था। मेघपुष्प की कान्ति मेघों के ही समान थी और बलाहक सफ़ेद था। शैव्य दाहिने भाग में जुतकर उस रथ का वहन करता था और सुग्रीव बाएँ भाग में। मेघपुष्प और बलाहक क्रमश: इनके पीछे जुते हुए थे। सत्त्वगुण के अधिष्ठानस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के रथ में लगे हुए ध्वजदण्ड की उस पताका में सूर्य का स्पर्श करते हुए-से सर्पशत्रु विनतानन्दन गरुड़ विराज रहे थे। कीर्तिमान श्रीकृष्ण का वह श्रेष्ठ रथ उस उज्ज्वल एवं प्रकाशमान गरुड़ध्वज के द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था। सोने की जालियों, पताकाओं तथा सुवर्णमय ध्वज के द्वारा भगवान का वह उत्तम रथ प्रलयकाल में उदित हुए सूर्य के समान उद्भासित हो रहा था। उस रथ के गरुड़ध्वज, चंदोवे, स्वर्णजालविभूषित मध्यभाग तथा पृथक-पृथक दण्डमार्गों का विश्वकर्मा ने सुंदर ढंग से निर्माण किया था। प्रवाल (मूंगा), मनी, सुवर्ण, वैदूर्य, मुक्ता आदि विविध आभूषणों, शत-शत क्षुद्र-घंटिकाओं तथा वालमणि की झालरों से उस रथ के अंत:प्रदेश सुसज्जित किए गए थे। सुवर्णमय कमलिनियों, तपाये हुए सुवर्ण के ही वृक्षों तथा व्याघ्र, सिंह, वराह, वृषभ, मृग, पक्षी, तारा, सूर्य और हाथियों की स्वर्णमयी प्रतिमाओं से उस श्रेष्ठ रथ की अत्यंत शोभा हो रही थी। कूबर[2] की गोलाकार संधियों में वज्र, अंकुश तथा विमान की आकृतियों से उस रथ को विभूषित किया गया था।[1]

श्रीकृष्ण का कौरव सभा के लिए प्रस्थान करना

महान सजल मेघों की गर्जना के समान गंभीर शब्द करने वाले तथा सब प्रकार के रत्नों से विभूषित हुए उस दिव्य रथ को उपस्थित जान अग्नि एवं ब्राह्मणों को दाहिने करके, गले में कौस्तुभ मणि डालकर, अपनी उत्कृष्ट शोभा से प्रकाशित हुए, कौरवों से घिरकर एवं वृष्णिवंशी वीरों से सुरक्षित हो समस्त यादवों को आनंद प्रदान करने वाले महामना शूरनंदन जनार्दन श्रीकृष्ण उस रथ पर आरूढ़ हुए।[1] समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण बुद्धिमानों में उत्तम दशार्हनन्दन श्रीकृष्ण के पश्चात् समस्त धर्मों के ज्ञाता विदुर जी भी उस रथ पर जा बैठे। तदनंतर शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे दुर्योधन और सुबलपुत्र शकुनि भी दूसरे रथ पर बैठ कर चले गए। सात्यकि, कृतवर्मा तथा वृष्णिवंश के दूसरे रथी भी हाथी, घोड़ों तथा रथों पर बैठकर श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे गए। राजन! उन सबके जाते समय सोने के आभूषणों से विभूषित, उत्तम घोड़ों से जुते हुए एवं गंभीर घोषयुक्त उनके विचित्र रथ बड़ी शोभा पा रहे थे। अपनी दिव्य कान्ति से प्रकाशित होने वाले परम बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण यथासमय उस विशाल राजपथ पर जा पहुँचे, जिस पर पूर्वकाल के राजर्षि यात्रा करते थे। वहाँ की धूल झाड़ दी गयी थी और सर्वत्र जल से छिड़काव किया गया था।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रस्थान करने पर ढोल, शंख तथा दूसरे-दूसरे बाजे एक साथ बज उठे। शत्रुओं को संताप देने वाले, सिंह के समान पराक्रमी तथा सम्पूर्ण जगत के प्रख्यात तरुण वीर भगवान श्रीकृष्ण के रथ को घेरकर चलते थे। श्रीकृष्ण के आगे चलने वाले सैनिकों की संख्या कई सहस्र थी। उन सब ने विचित्र एवं अद्भुत वस्त्र धारण कर रखे थे। उनके हाथों में खड्ग और प्रास आदि आयुध शोभा पाते थे। किसी से पराजित न होने वाले दशार्हवंशी वीर भगवान श्रीकृष्ण के पीछे उस यात्रा के समय पाँच सौ हाथी और सहस्रों रथ पर जा रहे थे। शत्रुदमन जनमेजय! उस समय भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए बालक, वृद्ध तथा स्त्रियों सहित कौरवों का सारा नगर सड़क पर आ गया था। छतों के सड़क की ओर वाले भाग पर बैठी हुई झुंड-की-झुंड स्त्रियों के भार से मानो हस्तिनापुर के सारे भवन कंपित से हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण कौरवों से सम्मानित होते हुए, उनकी मीठी-मीठी बातें सुनते हुए और यथायोग्य उनका भी सत्कार करते हुए धीरे-धीरे सबकी ओर देखते जा रहे थे। कौरव सभा के समीप पहुँचकर श्रीकृष्ण के अनुगामी सेवकों ने शंख और वेणु आदि वाद्यों की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाओं को गूँजा दिया। तत्पश्चात् अमित तेजस्वी राजाओं की वह सारी सभा भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की आकांक्षा के कारण हर्षोल्लास से चंचल हो उठी।[3]

श्रीकृष्ण का कौरव सभा में प्रवेश

श्रीकृष्ण के निकट आने पर उनके रथ का मेघगर्जना के समान गंभीर घोष सुनकर सभी नरेश रोमांचित हो उठे। सभा के द्वार पर पहुँचकर सर्वयादवशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने कैलाशशिखर के समान समुज्ज्वल रथ से नीचे उतरकर नूतन मेघ के समान श्याम तथा तेज से प्रज्वलित-सी होने वाली इंद्रभवनतुल्य उस कौरव सभा के भीतर प्रवेश किया। राजन! जैसे सूर्य अपनी प्रभा से आकाश के तारों को तिरोहित कर देते हैं, उसी प्रकार महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण अपनी दिव्य कान्ति से कौरवों को आच्छादित करते हुए विदुर और सात्यकि का हाथ पकड़े सभा में आए। वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण के आगे-आगे कर्ण और दुर्योधन थे और उनके पीछे कृतवर्मा तथा अन्य वृष्णिवंशी वीर थे। उस समय भीष्म और द्रोणाचार्य आदि सब लोग भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान करने के लिए राजा धृतराष्ट्र को आगे करके अपने आसनों से उठकर आगे बढ़े।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 94 श्लोक 1-14
  2. युगंधर
  3. 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 94 श्लोक 15-36

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महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
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प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
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यानसंधि पर्व
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भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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