- श्रीकृष्ण कुंती के पास पहुँचकर उनसे पांडवों के लिए संदेश पूछते हैं तब कुंती अपने पुत्रों को क्षत्रियधर्म का पालन करने का संदेश देती हैं वह कृष्ण से विदुला द्वारा उसके पुत्र को युद्ध के लिए उत्साहित करने का उपाख्यान कर, युधिष्ठिर को सुनाने के लिए कहती हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 133 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
कुंती द्वारा कृष्ण के समक्ष विदुलोपाख्यान का वर्णन करना
कुंती बोली- शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण! इस प्रसंग में विद्वान पुरुष विदुला और उसके पुत्र के संवाद रूप इस पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। इस इतिहास में जो कल्याणकारी उपदेश हो, उसे तुम युधिष्ठिर के सामने यथावत रूप से फिर कहना। विदुला नाम से प्रसिद्ध एक क्षत्रिय महिला हो गई है, जो उत्तम कुल में उत्पन्न, यशस्विनी, तेजस्विनी, मानिनी, जितेंद्रिया, क्षत्रिय-धर्मपरायणा और दूरदर्शिनी थी। राजाओं की मंडली में उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अनेक शास्त्रों को जानने वाली और महापुरुषों के उपदेश सुनकर उससे लाभ उठाने वाली थी। एक समय उनका पुत्र सिंधुराज से पराजित हो अत्यंत दीनभाव से घर आकर सो रहा था। राजरानी विदुला ने अपने उस औरस पुत्र को इस दशा में देखकर उसकी बड़ी निंदा की। विदुला बोली- अरे, तू मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है तो भी मुझे आनंदित करने वाला नहीं है। तू तो शत्रुओं का ही हर्ष बढ़ाने वाला है, इसलिए अब मैं ऐसा समझने लगी हूँ कि तू मेरी कोख से पैदा ही नहीं हुआ। तेरे पिता ने भी तुझे उत्पन्न नहीं किया, फिर तुझ जैसा कायर कहाँ से आ गया? तू सर्वथा क्रोधशून्य है, क्षत्रियों में गणना करने योग्य नहीं है। तू नाम मात्र का पुरुष है। तेरे मन आदि सभी साधन नपुंसकों के समान हैं। क्या तू जीवनभर के लिए निराश हो गया? अरे! अब भी तो उठ और अपने कल्याण के लिए पुन: युद्ध का भार वहन कर।
अपने को दुर्बल मानकर स्वयं ही अपनी अवहेलना न कर, इस आत्मा का थोड़े धन से भरण-पोषण न कर, मन को परम कल्याणमय बनाकर उसे शुभ संकल्पों से सम्पन्न करके निडर हो जा, भय को सर्वथा त्याग दे। ओ कायर! उठ, खड़ा हो, इस तरह शत्रु से पराजित होकर घर में शयन न कर।[2] ऐसा करके तो तू सब शत्रुओं को ही आनंद दे रहा है और मान-प्रतिष्ठा से वंचित होकर बंधु-बांधवों को शोक में डाल रहा है। जैसे छोटी नदी थोड़े जल से अनायास ही भर जाती है और चूहे कि अंजलि थोड़े अन्न से ही भर जाती है, उसी प्रकार कायर को संतोष दिलाना बहुत सुगम है, वह थोड़े से ही संतुष्ट हो जाता है। तू शत्रुरूपी साँप के दाँत तोड़ता हुआ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जा। प्राण जाने का संदेह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम ही प्रकट कर। आकाश में नि:शंक होकर उड़ने वाले बाज पक्षी की भाँति रणभूमि में निर्भय विचरता हुआ तू गर्जना करके अथवा चुप रहकर शत्रु के छिद्र देखता रह। कायर! तू इस प्रकार बिजली के मारे हुए मुर्दे की भाँति यहाँ क्यों निश्चेष्ट होकर पड़ा है? बस, तू खड़ा हो जा, शत्रुओं से पराजित होकर यहाँ मत पड़ा रह। तू दीन होकर अस्त न हो जा। अपने शौर्यपूर्ण कर्म से प्रसिद्धि प्राप्त कर। तू मध्यम, अधम अथवा निकृष्ट भाव का आश्रय न ले, वरन् युद्धभूमि में सिंहनाद करके डट जा।[1]
तू तिन्दुक की जलती हुई लकड़ी के समान दो घड़ी के लिए प्रज्वलित हो उठ, थोड़ी देर के लिए ही सही, शत्रु के सामने महान पराक्रम प्रकट कर, परंतु जीने की इच्छा से भूसी की ज्वाला रहित आग के समान केवल धुआँ न कर मंद पराक्रम से काम न ले। दो घड़ी भी प्रज्वलित रहना अच्छा, परंतु दीर्घकाल तक धूआँ छोड़ते हुए सुलगना अच्छा नहीं। किसी भी राजा के घर में अत्यंत कठोर अथवा अत्यंत कोमल स्वभाव के पुरुष का जन्म न हो। वीर पुरुष युद्ध में जाकर यथाशक्ति उत्तम पुरुषार्थ प्रकट करके धर्म के ऋण से उऋण होता है और अपनी निंदा नहीं कराता है। विद्वान पुरुष को अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या ना हो, वह उसके लिए शोक नहीं करता। वह अपनी पूरी शक्ति के अनुसार प्राणपर्यंत निरंतर चेष्टा करता है और अपने लिए धन की इच्छा नहीं करता। बेटा! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिए निश्चित है, अन्यथा किसलिए जी रहा है? कायर! तेरे इष्ट और आपूर्त कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गयी और भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, अब तू किसलिए जी रहा है? मनुष्य डूबते समय अथवा ऊंचे से नीचे गिरते समय भी शत्रु की टांग अवश्य पकड़े और ऐसा करते समय यदि अपना मूलोच्छेद हो जाये तो भी किसी प्रकार विषाद न करे। अच्छी जाति के घोड़े न तो थकते हैं और न शिथिल ही होते हैं। उनके इस कार्य को स्मरण करके अपने ऊपर रखे हुए युद्ध आदि के भार को उद्योगपूर्वक वहन करे। बेटा! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर।
अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर। जिसके महान और अद्भुत पुरुषार्थ एवं चरित्र की सब लोग चर्चा नहीं करते हैं, वह मनुष्य अपने द्वारा जनसंख्या की वृद्धि मात्र करने वाला है। मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न पुरुष ही है। दान, तपस्या, सत्यभाषण, विद्या तथा धनोपार्जन में जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नहीं होता है, वह मनुष्य अपनी माता का पुत्र नहीं, मलमूत्र मात्र ही है। जो शास्त्रज्ञान, तपस्या, धन-संपति अथवा पराक्रम के द्वारा दूसरे लोगों को पराजित कर देता है, वह उसी श्रेष्ठ कर्म के द्वारा पुरुष कहलाता है। तुझे हिजड़ों, कापालिकों, क्रूर मनुष्यों तथा कायरों के लिए उचित भिक्षा आदि निंदनीय वृत्ति का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह अपयश फैलाने वाली और दु:खदायिनी होती है। जिस दुर्बल मनुष्य का शत्रुपक्ष के लोग अभिनंदन करते हों, जो सब लोगों के द्वारा अपमानित होता हो, जिसके आसन और वस्त्र निकृष्ट श्रेणी के हों, जो थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होकर विस्मय प्रकट करता हो, जो सब प्रकार से हीन, क्षुद्र जीवन बिताने वाला और ओछे स्वभाव का हो, ऐसे बंधु को पाकर उसके भाई-बंधु सुखी नहीं होते। तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर सम्पूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जाएँगे। संजय! तू सत्पुरुषों के बीच में अशोभन कार्य करने वाला है, कुल और वंश की प्रतिष्ठा का नाश करने वाला है। जान पड़ता है, तेरे रूप में पुत्र के नाम पर मैंने कलि-पुरुष को ही जन्म दिया है।[3]
संसार की कोई भी नारी ऐसे पुत्र को जन्म न दे, जो अमर्षशून्य, उत्साहहीन, बल और पराक्रम से रहित तथा शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला हो। अरे! धूम की तरह न उठ। ज़ोर-ज़ोर से प्रज्वलित हो जा और वेगपूर्वक आक्रमण करके शत्रुसैनिकों का संहार कर डाल। तू एक मुहूर्त या एक क्षण के लिए भी वैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनकर छा जा। जिस क्षत्रिय के हृदय में अमर्ष है और जो शत्रुओं के प्रति क्षमाभाव धारण नहीं करता, इतने ही गुणों के कारण वह पुरुष कहलाता है। जो क्षमाशील और अमर्षशून्य है, वह क्षत्रिय न तो स्त्री है और न पुरुष ही कहलाने योग्य है। संतोष, दया, उद्योगशून्यता और भय- ये संपत्ति का नाश करने वाले हैं। निश्चेष्ट मनुष्य कभी कोई महत्त्वपूर्ण पद नहीं पा सकता। पराजय के कारण जो लोक में तेरी निंदा और तिरस्कार हो रहे हैं, इन सब दोषों से तू स्वयं ही अपने आपको मुक्त कर और अपने हृदय को लोहे के समान दृढ़ बनाकर पुन: अपने योग्य पद और राज्यवैभव का अनुसंधान कर। जो पर अर्थात शत्रु का सामना करके उसके वेग को सह लेता है, वही उस पुरुषार्थ के कारण पुरुष कहलाता है। जो इस जगत में स्त्री की भाँति भीरुतापूर्ण जीवन बिताता है, उसका ‘पुरुष’ नाम व्यर्थ कहा गया है। यदि बढ़े हुए तेज और उत्साह वाला, शूरवीर एवं सिंह के समान पराक्रमी राजा युद्ध में दैववश वीरगति को प्राप्त हो जाये तो भी उसके राज्य में प्रजा सुखी ही रहती है। जो अपने प्रिय और सुख का परित्याग करके संपत्ति का अन्वेषन करता है, वह शीघ्र ही अपने मंत्रियों का हर्ष बढ़ाता है।
पुत्र बोला- माँ! यदि तू मुझे न देखे तो यह सारी पृथ्वी मिल जाने पर भी तुझे क्या सुख मिलेगा? मेरे न रहने पर तुझे आभूषणों की भी क्या आवश्यकता होगी? भाँति-भाँति के भोगों और जीवन से भी तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? विदुला बोली- बेटा! आज क्या भोजन होगा? इस प्रकार की चिंता में पड़े हुए दरिद्रों के जो लोक हैं, वे हमारे शत्रुओं को प्राप्त हों और सर्वत्र सम्मानित होने वाले पुण्यात्मा पुरुषों के जो लोक हैं, उनमें हमारे हितैषी सुहृद पधारें। संजय! भृत्यहीन, दूसरों के अन्न पर जीने वाले, दीन-दुर्बल मनुष्यों की वृत्ति का अनुसरण न कर। तात! जैसे सब प्राणियों की जीविका मेघ के अधीन है तथा जैसे सब देवता इन्द्र के आश्रित होकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण तथा हितैषी सुहृद तेरे सहारे जीवन-निर्वाह करें। संजय! पके फल वाले वृक्ष के समान जिस पुरुष का आश्रय लेकर सब प्राणी जीविका चलाते हैं, उसी का जीवन सार्थक है। जैसे इन्द्र के पराक्रम से सब देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार जिस शूरवीर पुरुष के बल और पुरुषार्थ से उसके भाई-बंधु सुखपूर्वक उन्नति करते हैं, इस संसार में उसी का जीवन श्रेष्ठ है। जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन व्यतीत करता है, वही इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में शुभ गति को पाता है।[4]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 1-13
- ↑ उद्योगशून्य न हो जा
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 14-29
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 30-45
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| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
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| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
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| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
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| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
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| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
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| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
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| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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