महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 30-45

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 30-45 का हिन्दी अनुवाद
  • संसार की कोई भी नारी ऐसे पुत्र को जन्म न दे, जो अमर्षशून्य, उत्साहहीन, बल और पराक्रम से रहित तथा शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाला हो। (30)
  • अरे! धूम की तरह न उठ। ज़ोर-ज़ोर से प्रज्वलित हो जा और वेगपूर्वक आक्रमण करके शत्रुसैनिकों का संहार कर डाल। तू एक मुहूर्त या एक क्षण के लिए भी वैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनकर छा जा। (31)
  • जिस क्षत्रिय के हृदय में अमर्ष है और जो शत्रुओं के प्रति क्षमाभाव धारण नहीं करता, इतने ही गुणों के कारण वह पुरुष कहलाता है। जो क्षमाशील और अमर्षशून्य है, वह क्षत्रिय न तो स्त्री है और न पुरुष ही कहलाने योग्य है। (32)
  • संतोष, दया, उद्योगशून्यता और भय- ये संपत्ति का नाश करने वाले हैं। निश्चेष्ट मनुष्य कभी कोई महत्त्वपूर्ण पद नहीं पा सकता। (33)
  • पराजय के कारण जो लोक में तेरी निंदा और तिरस्कार हो रहे हैं, इन सब दोषों से तू स्वयं ही अपने आपको मुक्त कर और अपने हृदय को लोहे के समान दृढ़ बनाकर पुन: अपने योग्य पद और राज्यवैभव का अनुसंधान कर। (34)
  • जो पर अर्थात शत्रु का सामना करके उसके वेग को सह लेता है, वही उस पुरुषार्थ के कारण पुरुष कहलाता है। जो इस जगत में स्त्री की भाँति भीरुतापूर्ण जीवन बिताता है, उसका ‘पुरुष’ नाम व्यर्थ कहा गया है। (35)
  • यदि बढ़े हुए तेज और उत्साह वाला, शूरवीर एवं सिंह के समान पराक्रमी राजा युद्ध में दैववश वीरगति को प्राप्त हो जाये तो भी उसके राज्य में प्रजा सुखी ही रहती है। (36)
  • जो अपने प्रिय और सुख का परित्याग करके संपत्ति का अन्वेषन करता है, वह शीघ्र ही अपने मंत्रियों का हर्ष बढ़ाता है। (37-38)
  • पुत्र बोला- माँ! यदि तू मुझे न देखे तो यह सारी पृथ्वी मिल जाने पर भी तुझे क्या सुख मिलेगा? मेरे न रहने पर तुझे आभूषणों की भी क्या आवश्यकता होगी? भाँति-भाँति के भोगों और जीवन से भी तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? (39)
  • विदुला बोली- बेटा! आज क्या भोजन होगा? इस प्रकार की चिंता में पड़े हुए दरिद्रों के जो लोक हैं, वे हमारे शत्रुओं को प्राप्त हों और सर्वत्र सम्मानित होने वाले पुण्यात्मा पुरुषों के जो लोक हैं, उनमें हमारे हितैषी सुहृद पधारें। (40)
  • संजय! भृत्यहीन, दूसरों के अन्न पर जीने वाले, दीन-दुर्बल मनुष्यों की वृत्ति का अनुसरण न कर। (41)
  • तात! जैसे सब प्राणियों की जीविका मेघ के अधीन है तथा जैसे सब देवता इन्द्र के आश्रित होकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण तथा हितैषी सुहृद तेरे सहारे जीवन-निर्वाह करें। (42)
  • संजय! पके फल वाले वृक्ष के समान जिस पुरुष का आश्रय लेकर सब प्राणी जीविका चलाते हैं, उसी का जीवन सार्थक है। (43)
  • जैसे इन्द्र के पराक्रम से सब देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार जिस शूरवीर पुरुष के बल और पुरुषार्थ से उसके भाई-बंधु सुखपूर्वक उन्नति करते हैं, इस संसार में उसी का जीवन श्रेष्ठ है। (44)
  • जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन व्यतीत करता है, वही इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में शुभ गति को पाता है। (45)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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