महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 14-29

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
  • तू तिन्दुक की जलती हुई लकड़ी के समान दो घड़ी के लिए प्रज्वलित हो उठ, थोड़ी देर के लिए ही सही, शत्रु के सामने महान पराक्रम प्रकट कर, परंतु जीने की इच्छा से भूसी की ज्वाला रहित आग के समान केवल धुआँ न कर मंद पराक्रम से काम न ले। (14)
  • दो घड़ी भी प्रज्वलित रहना अच्छा, परंतु दीर्घकाल तक धूआँ छोड़ते हुए सुलगना अच्छा नहीं। किसी भी राजा के घर में अत्यंत कठोर अथवा अत्यंत कोमल स्वभाव के पुरुष का जन्म न हो। (15)
  • वीर पुरुष युद्ध में जाकर यथाशक्ति उत्तम पुरुषार्थ प्रकट करके धर्म के ऋण से उऋण होता है और अपनी निंदा नहीं कराता है। (16)
  • विद्वान पुरुष को अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या ना हो, वह उसके लिए शोक नहीं करता। वह अपनी पूरी शक्ति के अनुसार प्राणपर्यंत निरंतर चेष्टा करता है और अपने लिए धन की इच्छा नहीं करता। (17)
  • बेटा! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिए निश्चित है, अन्यथा किसलिए जी रहा है ? (18)
  • कायर! तेरे इष्ट और आपूर्त कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गयी और भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, अब तू किसलिए जी रहा है? (19)
  • मनुष्य डूबते समय अथवा ऊंचे से नीचे गिरते समय भी शत्रु की टांग अवश्य पकड़े और ऐसा करते समय यदि अपना मूलोच्छेद हो जाये तो भी किसी प्रकार विषाद न करे। अच्छी जाति के घोड़े न तो थकते हैं और न शिथिल ही होते हैं। उनके इस कार्य को स्मरण करके अपने ऊपर रखे हुए युद्ध आदि के भार को उद्योगपूर्वक वहन करे। (20)
  • बेटा! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर। अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर। (21)
  • जिसके महान और अद्भुत पुरुषार्थ एवं चरित्र की सब लोग चर्चा नहीं करते हैं, वह मनुष्य अपने द्वारा जनसंख्या की वृद्धि मात्र करने वाला है। मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न पुरुष ही है। (22)
  • दान, तपस्या, सत्यभाषण, विद्या तथा धनोपार्जन में जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नहीं होता है, वह मनुष्य अपनी माता का पुत्र नहीं, मलमूत्र मात्र ही है। (23)
  • जो शास्त्रज्ञान, तपस्या, धन-संपति अथवा पराक्रम के द्वारा दूसरे लोगों को पराजित कर देता है, वह उसी श्रेष्ठ कर्म के द्वारा पुरुष कहलाता है। (24)
  • तुझे हिजड़ों, कापालिकों, क्रूर मनुष्यों तथा कायरों के लिए उचित भिक्षा आदि निंदनीय वृत्ति का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह अपयश फैलाने वाली और दु:खदायिनी होती है। (25)
  • जिस दुर्बल मनुष्य का शत्रुपक्ष के लोग अभिनंदन करते हों, जो सब लोगों के द्वारा अपमानित होता हो, जिसके आसन और वस्त्र निकृष्ट श्रेणी के हों, जो थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होकर विस्मय प्रकट करता हो, जो सब प्रकार से हीन, क्षुद्र जीवन बिताने वाला और ओछे स्वभाव का हो, ऐसे बंधु को पाकर उसके भाई-बंधु सुखी नहीं होते। (26-27)
  • तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर सम्पूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जाएँगे। (28)
  • संजय! तू सत्पुरुषों के बीच में अशोभन कार्य करने वाला है, कुल और वंश की प्रतिष्ठा का नाश करने वाला है। जान पड़ता है, तेरे रूप में पुत्र के नाम पर मैंने कलि-पुरुष को ही जन्म दिया है। (29)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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