कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद

भीष्म जी कौरव सेना के रथी-अतिरथियों व उनके शौर्य का वर्णन करते हैं और तभी वह कर्ण पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि- 'मेरी दृष्टि में तो ये न रथी है और न ही अतिरथी है। युद्ध में ये अधिरथी होने योग्य ही है।' इस प्रकार उन दोनों में रोषपूर्वक संवाद होता है, जिसका दुर्योधन निवारण करता है, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में रथातिरथसंख्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 168 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-

कर्ण और भीष्‍म का रोषपूर्वक संवाद

भीष्‍म कहते हैं- अचल और वृषक- ये साथ रहने वाले दोनों भाई दुर्धर्ष रथी हैं, जो तुम्‍हारे शत्रुओं का विध्‍वंस कर डालेंगे। गान्‍धारदेश के ये प्रधान वीर मनुष्‍यों में सिंह के समान पराक्रमी, बलवान, अत्‍यन्‍त क्रोधी, प्रहार करने में कुशल, तरुण, दर्शनीय एवं महाबली हैं। राजन! यह जो तुम्‍हारा प्रिय सखा कर्ण है, जो तुम्‍हें पाण्‍डवों के साथ युद्ध के लिये सदा उत्‍साहित करता रहता है और रणक्षेत्र में सदा अपनी क्रूरता का परिचय देता है, बड़ा ही कटुभाषी, आत्‍मप्रशंसी और नीच है। यह कर्ण तुम्‍हारा मन्‍त्री, नेता और बन्‍धु बना हुआ है। यह अभिमानी तो है ही, तुम्‍हारा आश्रय पाकर बहुत ऊँचे चढ़ गया है। यह कर्ण युद्धभूमि में न तो अतिरथी है और न रथी ही कहलाने योग्‍य है, क्‍योंकि यह मूर्ख अपने सहज कवच तथा दिव्‍य कुण्‍डलों से हीन हो चुका है। यह दूसरों के प्रति सदा घृणा का भाव रखता है। परशुराम जी के अभिशाप से, ब्राह्मण की शापोक्ति से तथा विजयसाधक उपर्युक्‍त उपकरणों को खो देने से मेरी द्रष्टि में यह कर्ण अधिरथी है। अर्जुन से भिड़ने पर यह कदापि जीवित नहीं बच सकता। यह सुनकर समस्‍त शस्त्रधारियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य भी बोल उठे ‘आप जैसा कहते हैं, बिल्‍कुल ठीक है। आपका यह मत कदापि मिथ्‍या नहीं है। यह प्रत्‍येक युद्ध में घमंड तो बहुत दिखाता है; परंतु वहाँ से भागता ही देखा जाता है। कर्ण दयालु और प्रमादी है। इसलिये मेरी राय में भी यह अर्धरथी।'

यह सुनकर राधानंदन कर्ण क्रोध से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगा और अपने वचनरूपी चाबुक से पीड़ा देता हुआ भीष्‍म से बोला‌- 'पितामह! यद्यपि मैंने तुम्‍हारा कोई अपराध नहीं किया है तो भी सदा मुझसे द्वेष रखने के कारण तुम इसी प्रकार पग-पग पर मुझे अपने बाग्बाणों द्वारा इच्‍छानुसार चोट पहुँचाते रहते हो। मैं दुर्योधन के कारण यह सब कुछ चुपचाप सह लेता हूँ, परंतु तुम मुझे मूर्ख और कायर के समान समझते हो। तुम मेरे विषय में जो अर्धरथी होने का मत प्रकट कर रहे हो, इससे सम्‍पूर्ण जगत को नि:संदेह ऐसा ही प्रतीत होने लगेगा; क्‍योंकि सब यही जानते हैं कि गंगानन्‍दन भीष्‍म झूठ नहीं बोलते। तुम कौरवों का सदा अहित करते हो; परंतु राजा दुर्योधन इस बात को नहीं समझते हैं। तुम मेरे गुणों के प्रति द्वेष रखने के कारण जिस प्रकार राजाओं की मुझ पर विरक्ति कराना चाहते हो, वैसा प्रयत्‍न तुम्‍हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है? इस समय युद्ध का अवसर उपस्थित है और समान श्रेणी के उदारचरित राजा एकत्र हुए हैं; ऐसे अवसर पर आपस में भेद (फूट) उत्‍पन्‍न करने की इच्‍छा रखकर कौन पुरुष अपने ही पक्ष के योद्धा का इस प्रकार तेज और उत्‍साह नष्‍ट करेगा? कौरव! केवल बड़ी अवस्‍था हो जाने, बाल पक जाने, अधिक धन का संग्रह कर लेने तथा बहुसंख्‍यक भाई-बन्‍धुओं के होने से ही किसी क्षत्रिय को महारथी नहीं गिना जा सकता। क्षत्रिय जाति में जो बल में अधिक हो, वही श्रेष्‍ठ माना गया है। ब्राह्मण वेदमन्त्रों के ज्ञान से, वैश्य अधिक धन से और शूद्र अधिक आयु होने से श्रेष्‍ठ समझे जाते हैं।[1]

तुम राग-द्वेष से भरे हुए हो; अत: मोहवश मनमाने ढंग से रथी-अतिरथियों का विभाग कर रहे हो। महाबाहु दुर्योधन! तुम अच्‍छी तरह विचार कर‍के देख लो। ये भीष्‍म दुर्भाव से दूषित होकर तुम्‍हारी बुराई कर रहे हैं। तुम इन्‍हें अभी त्‍याग दो। नरेश्‍वर! पुरुषसिंह! एक बार सेना में फूट पड़ जाने पर उसमें पुन: मेल करना कठिन हो जाता है। उस दशा में मौलिक[2] सेवक भी हाथ से निकल जाते हैं। फिर जो भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों के लोग किसी एक कार्य के लिये उद्यत होकर एकत्र हुए हों, उनकी तो बात ही क्‍या है? भारत! इन योद्धाओं में युद्ध के अवसर पर दुविधा उत्‍पन्‍न हो गयी है। तुम प्रत्‍यक्ष देख रहे हो, हमारे तेज और उत्‍साह की विशेषरूप से हत्‍या की जा रही है। कहाँ रथियों को समझना और कहाँ अल्‍पबुद्धि भीष्‍म? मैं अकेला ही पाण्‍डवों की सेना को आगे बढ़ने से रोक दूंगा। मेरे बाण अमोघ हैं। मेरे सामने आकर पाण्‍डव और पांचाल उसी प्रकार दसों दिशाओं में भाग जायेंगें, जैसे सिंह को देखकर बैल भागते हैं। कहाँ युद्ध, मारकाट और गुप्‍त मंत्रणा में अच्‍छी बातें बताने को कार्य और कहाँ काल प्रेरित मन्‍दबुद्धि भीष्‍म, जिनकी आयु समाप्‍त हो चुकी है। ये अकेले ही सदा सम्‍पूर्ण जगत के साथ स्‍पर्धा रखते हैं और अपनी व्‍यर्थ दृष्टि के कारण दूसरे किसी को पुरुष ही नहीं समझते हैं। वृद्धों की बातें सुननी चाहिये; यह शास्त्र का आदेश है। परंतु जो अत्‍यन्‍त बूढे़ हो गये हैं, उनकी बातें श्रवण करने योग्‍य नहीं हैं; क्‍योंकि वे तो फिर बालकों के ही समान माने गये हैं। नृपश्रेष्‍ठ! मैं इस युद्ध में अकेला ही पाण्‍डवों की सेना का विनाश करूंगा; परंतु सारा यश भीष्‍म को मिल जायेगा। नरेश्‍वर! तुमने इन भीष्‍म को ही सेनापति बनाया है। विजय का यश सेनापति को ही प्राप्‍त होता है; योद्धाओं को किसी प्रकार नहीं मिलता। अत: राजन! मैं भीष्‍म के जीते-जी किसी प्रकार युद्ध नहीं करूंगा; परंतु भीष्‍म के मारे जाने पर सम्‍पूर्ण महारथियों के साथ टक्‍कर लूंगा।

भीष्‍म ने कहा- सूतपुत्र! इस युद्ध में दुर्योधन का यह समुद्र के समान अत्‍यन्‍त गुरुतर भार मैंने अपने कंधो पर उठाया है। जिसके लिये मैं बहुत वर्षों से चिन्तित हो रहा था, वह संतापदायक रोमांचकारी समय अब आकर उपस्थित हो ही गया, ऐसे अवसर में मुझे यह पारस्‍परिक भेद नहीं उत्‍पन्‍न करना चाहिये, इसीलिये तू अभी तक जी रहा है। सूतकुमार! यदि ऐसी बात न होती तो मैं वृद्ध होने पर भी पराक्रम करके आज तुझ बालक की युद्ध विषयक श्रद्धा और जीवन की आशा का एक ही साथ उच्‍छेद कर डालता। जमदग्निन्‍दन परशुराम ने मेरे ऊपर बड़े-बड़े़ अस्त्रों का प्रयोग किया था; परंतु वे भी मुझे कोई पीड़ा न दे सके। फिर तू तो मेरा कर ही क्‍या लेगा? नीचकुलांगार! साधु पुरुष अपने बल की प्रशंसा करना कदापि अच्‍छा नहीं मानते हैं, तथापि तेरे व्‍यवहार से संतप्‍त होकर मैं अपनी प्रशंसा की बात भी कह रहा हूँ। काशिराज के यहाँ स्‍वंयवर में समस्‍त भूमण्‍डल के क्षत्रिय नरेश एकत्र हुए थे, परंतु मैंने केवल एक रथ पर ही आरूढ़ होकर उन स‍बको जीतकर बलपूर्वक काशिराज की कन्‍याओं का अपहरण किया था।[3] यहाँ जो लोग एकत्र हुए हैं, ऐसे तथा इनसे भी बढ़-चढ़कर पराक्रमी हजारों नरेश वहाँ एकत्र थे; परंतु मैंने समारांगण में अकेले ही उन सबको सेनाओं सहित परास्‍त कर दिया था। तू वैर का मूर्तिमान स्‍वरूप है। तेरा सहारा पाकर कुरुकुल के विनाश के लिये बहुत बड़ा अन्‍याय उपस्थित हो गया है। अब तू रक्षा का प्रबन्‍ध कर और पुरुषत्‍व का परिचय दे। दुर्मते! तू जिसके साथ सदा स्‍पर्धा रखता है, उस अर्जुन के साथ समरभूमि में युद्ध कर। मैं देखूंगा कि तू इस संग्राम से किस प्रकार, बच पाता है?[4]

दुर्योधन द्वारा भीष्म व कर्ण के विवाद का निवारण

राजा दुर्योधन ने भीष्‍म जी से कहा- गंगानन्‍दन! आप मेरी ओर देखिये; क्‍योंकि इस समय महान कार्य उपस्थित है। आप एकाग्रचित्त होकर मेरे परम कल्‍याण की बात सोचिये। आप और कर्ण दोनों ही मेरा महान कार्य सिद्ध करेंगे। अब मैं पुन: शत्रुपक्ष के श्रेष्‍ठ रथियों, अतिरथियों तथा रथ यूथपतियों का परिचय सुनना चाहता हूँ। कुरुनन्‍दन! शत्रुओं के बलाबल को सुनने की मेरी इच्‍छा है। आज की रात बीतते ही कल प्रात:काल यह युद्ध प्रारम्‍भ हो जायेगा।[4]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 168 श्लोक 1-17
  2. पीढ़ियों से चले आने वाले
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 168 श्लोक 18-35
  4. 4.0 4.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 168 श्लोक 36-42

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सेनोद्योग पर्व
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संजययान पर्व
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प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
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यानसंधि पर्व
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भगवद्यान पर्व
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सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

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