संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना

महाभारत उद्योग पर्व में यानसंधि पर्व के अंतर्गत 48वें अध्याय में 'संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना' नामक कथा का वर्णन है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र का संजय से संदेश पूछना

धृतराष्‍ट्र ने कहा- संजय! मैं इन राजाओं के बीच तुमसे यह पूछ रहा हूँ कि अनेक युद्धों के संचालक तथा दुरात्‍माओं के जीवन का नाश करने वाले उदार हृदय महात्‍मा अर्जुन ने हमारे लिये कौन-सा संदेश भेजा है।

संजय द्वारा अर्जुन का संदेश सुनाना

संजय बोला- राजन! युधिष्ठिर की आज्ञा से युद्ध के लिये उद्यत हुए महात्‍मा अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के सुनते-सुनते जो बात कही है, उसे दुर्योधन सुनें। अपने बाहुबल को अच्‍छी तरह जानने वाले धीर-वीर किरीटधारी अर्जुन ने भावी युद्ध के लिये उद्यत हो भगवान श्रीकृष्‍ण के समीप मुझसे इस प्रकार कहा है- ‘संजय! जो काल के गाल में जाने वाला, मन्दबुद्धि एवं महामूर्ख सदा मेरे साथ युद्ध करने के लिये डींग हांकता रहता है, उस कटुभाषी दुरात्‍मा सूतपुत्र कर्ण को सुनाकर तथा और भी जो-जो राजा लोग पाण्‍डवों के साथ युद्ध करने के लिये बुलाये गये हैं, उन सबको सुनाते हुए तुम कौरवों की मण्‍डली में मेरे द्वारा कही हुई सारी बातें मन्त्रियों‍ सहित धृतराष्‍ट्रपुत्र राजा दुर्योधन से इस प्रकार कहना, जिससे वह अच्‍छी तरह सुन ले'। जैसे सब देवता वज्रधारी देवराज इन्‍द्र की बातें सुनना चाहते हैं, निश्चय ही उसी प्रकार समस्‍त सृंजय और पाण्‍डव अर्जुन की मुझसे कही हुई ओज भरी बातें सुन रहे थे। उस समय गाण्‍डीवधारी अर्जुन युद्ध के लिये उत्‍सुक जान पड़ते थे। उनके कमल सदृश नेत्र लाल हो गये थे। उन्‍होंने इस प्रकार कहा- ‘यदि दुर्योधन अजमीढकुलनंदन महाराज युधिष्ठिर का राज्य नहीं छोड़ता है तो निश्चय ही धृतराष्‍ट्र के पुत्रों का पूर्वजन्‍म में किया हुआ कोई ऐसा पापकर्म प्रकट हुआ है, जिसका फल उन्‍हें भोगना है। ‘तभी तो उनका भीमसेन, अर्जुन,नकुल-सहदेव, भगवान श्रीकृष्‍ण, अस्त्र-शस्‍त्रों से सुसज्जित सात्‍यकि, धृष्‍टद्युम्‍न, शिखण्‍डी तथा इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी उन महाराज युधिष्ठिर के साथ युद्ध होने वाला है, जो अनिष्टचिंतन करते ही पृथ्वी तथा स्वर्गलोक को भी भस्म कर सकते हैं।

‘यदि दुर्योधन चाहता है कि इन सब वीरों के साथ कौरवों का युद्ध हो तो ठीक है, इससे पाण्‍डवों का सारा मनोरथ सिद्ध हो जायगा। तुम केवल पाण्‍डवों के लाभ के लिये संधि कराने या आधा राज्य दिलाने की चेष्‍टा न करना। उस दशा में यदि ठीक समझो तो उससे कह देना- ‘दुर्योधन! तुम युद्धभूमि में ही उतरो’। ‘धर्मात्‍मा पाण्‍डुनंदन युधिष्ठिर ने वन में निर्वासित होकर जिस दु:ख शय्‍या पर शयन किया है, दुर्योधन अपने प्राणों का त्‍याग करके उससे भी अधिक दु:खदायिनी और अनर्थ-कारिणी मृत्‍यु की अंतिम शय्‍या को ग्रहण करे। ‘अन्‍यायपूर्ण बर्ताव करने वाले दुरात्‍मा दुर्योधन को उचित है कि वह लज्‍जा, ज्ञान, तपस्या, इन्द्रिय संयम, शौर्य, धर्म रक्षा आदि गुणों तथा धन के द्वारा कौरव-पाण्‍डवों पर अधिकार प्राप्‍त करें।[2] ‘हमारे महाराज युधिष्ठिर नम्रता, सरलता, तप, इन्द्रिय-संयम, धर्म रक्षा और बल- इन सभी गुणों से सम्‍पन्‍न हैं। वे बहुत दिनों से अनेक प्रकार के क्‍लेश उठाते हुए भी सदा सत्य ही बोलते हैं तथा कौरवों के कपटपूर्ण व्‍यवहारों तथा वचनों को सहन करते रहते हैं। ‘परंतु अपने मन को शुद्ध एवं संयत रखने वाले ज्येष्‍ठ पाण्‍डव युधिष्ठिर जिस समय उत्तेजित हो अनेक वर्षों से दबे हुए अपने अत्यन्त भयंकर क्रोध को कौरवों पर छोड़ेंगे, उस समय जो भयानक युद्ध होगा, उसे देखकर दुर्योधन को पछताना पड़ेगा। ‘जैसे ग्रीष्‍मऋतु में प्रज्वलित अग्नि सब ओर से धधक उठती है और घास-फूस एवं जंगलों को जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार क्रोध से तमतमाये हुए युधिष्ठिर दुर्योधन की सेना को अपने दृष्टिपात मात्र से दग्ध कर देंगे।[1]

युद्ध के परिणामों से दुर्योधन के पश्चाताप का वर्णन

संजय कहते हैं- ‘जिस समय दुर्योधन हाथ में गदा लिये रथ पर बैठे हुए भयानक वेग वाले अमर्षशील पाण्‍डुनन्दन भीमसेन को क्रोध रूप विष उगलते देखेगा, उस समय युद्ध के परिणाम को सोचकर उसे महान पश्चात्ताप करना पड़ेगा। ‘जब भीमसेन कवच धारण करके शत्रु पक्ष के वीरों का नाश करते हुए अपने पक्ष के लोगों के लिये भी अलक्षित हो सेना के आगे-आगे तीव्र वेग से बढे़ंगे और यमराज के समान विपक्षी सेना का संहार करने लगेंगे, उस समय अत्यन्त अभिमानी दुर्योधन को मेरी ये बातें याद आयेंगी। ‘जब भीमसेन पर्वताकार प्रतीत होने वाले बड़े-बड़े़ गजराजों को गदा के आघात से उनका कुम्भस्थल विदीर्ण करके मार गिरायेंगे और वे मानो घड़ों से खून उडे़ल रहे हों, इस प्रकार मस्तक से रक्त की धारा बहाने लगेंगे, उस समय दुर्योधन जब यह दृश्‍य देखेगा, तब उसे युद्ध छेड़ने के कारण बड़ा भारी पश्चाताप होगा। ‘जब भयंकर रूपधारी भीमसेन हाथ में गदा लिये तुम्हारी सेना में घुसकर धृतराष्‍ट्र पुत्रों के पास जाकर उनका उसी प्रकार संहार करने लगेंगे, जैसे महान सिंह गायों के झुंड में घुसकर उन्हें दबोच लेता हैं, तब दुर्योधन को युद्ध के लिये बड़ा पछतावा होगा। ‘जो भारी-से-भारी भय आने पर भी निर्णय रहते हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की है तथा जो संग्रामभूमि में शत्रु सेना को रौंद डालते हैं, वे ही शूरवीर भीमसेन जब एकमात्र रथ पर आरूढ़ हो गदा के आघात से असंख्‍य रथ समूहों तथा पैदल सैनिकों को मौत के घाट उतारते और छींको के समान फंदों में बड़े-बडे़ नागों को फंसाकर मरे हुए बछड़ों के समान उन्हें बलपूर्वक घसीटते हुए दुर्योधन की सेना को वैसे ही छिन्न-भिन्न करने लगेंगे, जैसे कोई फरसे से जंगल काट रहा हो, उस समय धृतराष्‍ट्र पुत्र मन-ही-मन यह सोचकर पछतायेगा कि मैंने युद्ध छेड़कर बड़ी भारी भूल की है। ‘जब दुर्योधन यह देखेगा कि जैसे घास-फूस के झोपड़ों का गांव आग से जलकर खाक हो जाता है, उसी प्रकार धृतराष्‍ट्र के अन्य सभी पुत्र भीमसेन की क्रोधाग्नि से दग्ध हो गये, मेरी विशाल वाहिनी बिजली की आग से जली हुई पकी खेती के समान नष्‍ट हो गयी, उसके मुख्‍य-मुख्‍य वीर मारे गये, सैनिकों ने पीठ दिखा दी, सभी भय से पीड़ित हो रणभूमि से भाग निकले, प्राय: समस्त योद्धा साहस अथवा धृष्‍टता खो बैठे तथा भीमसेन के अस्त्र-शस्त्रों की आग से सब कुछ स्वाहा हो गया; उस समय उसे युद्ध के लिये बड़ा पछतावा होगा।

‘रथियों में श्रेष्‍ठ और विचित्र रीति से युद्ध करने वाले नकुल जब दाहिनी हाथ में लिये हुए खड्ग से तुम्हारे सैनिकों के मस्तक काट-काटकर धरती पर उनके ढेर लगाने लगेंगे और रथी योद्धाओं को यमलोक भेजना प्रारम्भ करेंगे, उस समय धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन युद्ध का परिणाम सोचकर शोक से संतप्त हो उठेगा। ‘सुख भोगने के योग्य वीरवर नकुल ने दीर्घकाल त‍क वनों में रहकर जिस दु:ख-शय्यापर शयन किया है, उसका स्मरण करके जब वह क्रोध में भरे हुए विषैले सर्प की भाँति विष उगलने लगेगा, उस समय धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन को युद्ध छेड़ने के कारण पछताना पड़ेगा।[3] संजय! धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा युद्ध के लिये आदेश पाकर उनके लिये प्राण देने को उद्यत रहने वाले भूमण्‍डल के नरेश जब तेजस्वी रथों पर आरूढ़ होकर कौरव सेना पर आक्रमण करेंगे, उस समय उन्हें देखकर दुर्योधन को युद्ध के लिये अत्यन्त पश्चात्ताप करना पड़ेगा। ‘जो अवस्था में बाल‍क होते हुए भी अस्त्र-शस्त्रों की पूर्ण शिक्षा पाकर युद्ध में नवयुवकों के समान पराक्रम प्रकाशित करते हैं, द्रौपदी के वे पाँचों शूरवीर पुत्र प्राणों का मोह छोड़कर जब कौरव सेना पर टूट पड़ेंगे और कुरुराज दुर्योधन जब उन्हें उस अवस्था में देखेगा, तब उसे युद्ध छेड़ने की भूल के कारण भारी पश्‍चाताप होगा। 'जब सहदेव उत्तम जाति के सुशिक्षित घोड़ों से जुते हुए अपनी इच्छा के अनुकूल चलने वाले तथा पहियों की धुरी से तनिक भी आवाज न करने वाले रथ पर, जो अलातचक्र की भाँति घूमने के कारण सोने के गोलाकार तार के समान प्रतीत होता है, आरूढ़ हो अपने बाण समूहों द्वारा विपक्षी राजाओं के मस्तक काट-काटकर गिराने लगेंगे और इस प्रकार महान भय का वातावरण छा जाने पर रथ पर बैठे हुए अस्त्रवेत्ता सहदेव समरभूमि में डटे रहकर जब सभी दिशाओं में शत्रुओं पर आक्रमण करेंगे, उस दशा में उन्हें देखकर धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन के मन में युद्ध का परिणाम सोचकर महान पश्चात्ताप होगा। ‘लज्जाशील, युद्धकुशल, सत्यवादी, महाबली, सर्वधर्म-सम्पन्न, वेगवान तथा शीघ्रतापूर्वक बाण चलाने वाले सहदेव जब घमासान युद्ध में शकुनि पर आक्रमण करके शत्रुओं के सैनिकों का संहार करने लगेंगे तथा जब दुर्योधन महाधनुर्धर शूरवीर अस्त्रविद्या में निपुण तथा रथयुद्ध की कला में कुशल द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को भयंकर विष वाले विषधर सर्पों की भाँति आ‍क्रमण करते देखेगा, तब उसे युद्ध छेड़ने की भूल पर भारी पश्चात्ताप होगा।

अभिमन्यु साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण के समान पराक्रमी तथा अस्त्रविद्या में निपुण है, वह शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने में समर्थ है। जिस समय वह मेघ के समान बाणों की बौछार करता हुआ शत्रुओं की सेना में प्रवेश करेगा, उस समय धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन युद्ध के लिये मन-ही-मन बहुत ही संतप्त होगा। ‘सुभद्राकुमार अवस्था में यद्यपि बालक है, तथापि उसका पराक्रम युवकों के समान है। वह इन्द्र के समान शक्तिशाली तथा अस्त्रविद्या में पारंगत है। जिस समय वह शत्रु सेना पर विकराल के समान आक्रमण करेगा, उस समय उसे देखकर दुर्योधन को युद्ध छेड़ने के कारण बड़ा पश्चात्ताप होगा। ‘अस्त्र-संचालन में शीघ्रता दिखाने वाले, युद्धविशारद तथा सिंह के समान पराक्रमी प्रभद्रकदेशीय नवयुवक जब सेना सहित धृतराष्‍ट्र पुत्रों को मार भगायेंगे, उस समय दुर्योधन को यह सोचकर बड़ा पश्‍चात्ताप होगा कि मैंने क्यों युद्ध छेड़ा? ‘जिस समय वृद्ध महारथी राजा विराट और द्रुपद अपनी पृथक-पृथक सेनाओं के साथ आक्रमण करके सैनिकों सहित धृतराष्‍ट्र पुत्रों पर दृष्टि डालेंगे, उस समय दुर्योधन को युद्ध का परिणाम सोचकर महान पश्चात्ताप करना पड़ेगा। ‘जब अस्त्रविद्या में निपुण राजा द्रुपद कुपित हो रथ पर बैठकर समरभूमि में अपने धनुष से छोडे़ हुए बाणों द्वारा विपक्षी युवकों के मस्तकों को चुन-चुनकर काटने लगेंगे, उस समय दुर्योधन को इस युद्ध के कारण भारी पछतावा होगा।[4]

जब शत्रु वीरों का संहार करने वाले राजा विराट सौम्य स्वरूप वाले मत्स्यदेशीय योद्धाओं को साथ लेकर रणभूमि में शत्रु-सेना के भीतर प्रवेश करेंगे, उस समय दुर्योधन युद्ध छेड़ने का परिणाम सोचकर शोक से संतप्त हो उठेगा। ‘सौम्‍य तथा श्रेष्‍ठ स्‍वरूप वाले राजा विराट के ज्‍येष्‍ठ पुत्र मत्‍स्‍यदेशीय महारथी श्वेत को जब दुर्योधन पाण्‍डवों के हित के लिये कवच धारण किये देखेगा, तब उसे युद्ध का परिणाम सोचकर मन-ही-मन बड़ा कष्‍ट होगा। ‘कौरववंश के प्रमुख वीर शांतनुनंदन साधुशिरोमणि भीष्‍म जी जब युद्ध में शिखण्‍डी के हाथ से मार दिये जायंगे, उस समय हमारे शत्रु कौरव कभी हम लोगों का वेग नहीं सह सकेंगे, यह मैं सत्‍य कहता हूँ, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। ‘जब शिखण्‍डी अपने रथ की रक्षा के साधनों से सम्‍पन्‍न हो रथियों को चुन-चुनकर मारता तथा दिव्‍य अश्वों द्वारा रथ समूहों को रौंदता हुआ रथारूढ़ हो भीष्‍म पर आक्रमण करेगा, उस समय दुर्योधन को युद्ध छिड़ जाने के कारण बड़ा पश्चात्ताप होगा। ‘जिसे परम बुद्धिमान आचार्य द्रोण ने अस्‍त्रविद्या के गोपनीय रहस्‍य की भी‍ शिक्षा दी है, वह धृष्‍टद्युम्‍न जब सृंजयवंशी वीरों की सेना के अग्रभाग में प्रकाशित होगा और उसे उस दशा में दुर्योधन देखेगा, तब वह अत्‍यंत संतप्‍त हो उठेगा। ‘जब शत्रुओं का सामना करने में समर्थ अपरिमित शक्तिशाली सेनापति धृष्‍टद्युम्‍न अपने बाणों द्वारा धृतराष्‍ट्रपुत्रों को कुचलता हुआ आचार्य द्रोण पर आक्रमण करेगा, उस समय युद्ध का परिणाम सोचकर दुर्योधन बहुत पछतायेगा। ‘सोमक वंश का वह प्रमुख वीर धृष्‍टद्युम्न लज्‍जाशील, बलवान, बुद्धिमान, मनस्‍वी तथा वीरोचित शोभा से सम्‍पन्‍न है। इसी प्रकार वृष्णि वंश में सिंह के समान पराक्रमी वीरवर सात्‍यकि जिनके अगुआ हैं, उनके वेग को दूसरे शत्रु कदापि नहीं सह सकते।

‘तुम दुर्योधन से यह भी कह देना कि अब संसार में जीवित रहकर तुम राज्य भोगने की इच्छा न करो। हमने युद्ध के लिये अद्वितीय वीर, महान बलवान, निर्भय तथा अस्त्रविद्या में निपुण शिनिपौत्र रथारूढ़ सात्यकि को अपना सहायक चुन लिया है। ‘शिनि के पौत्र महारथी सात्यकि चार हाथ लंबा धनुष धारण करते हैं। उनकी छाती चौड़ी और भुजाएं बड़ी हैं। वे अद्वितीय वीर हैं और युद्ध में शत्रुओं को मथ डालते हैं। उन्हें उत्तम अस्त्रों का ज्ञान है। वे निर्भय तथा अस्त्रविद्या के पारंगत विद्वान हैं। ‘जब मेरे कहने से शिनिप्रवर शत्रुमर्दन सात्यकि शत्रुओं पर मेघ की भाँति बाणों की झड़ी लगाते हुए मुख्‍य-मुख्‍य योद्धाओं को आच्छादित कर देंगे, उस समय दुर्योधन युद्ध का परिणाम सोचकर बहुत पछतायेगा। सुदृढ़ धनुष धारण करने वाले दीर्घबाहु महामना सात्यकि जब युद्ध के लिये उत्सुक हो समरभूमि में डट जाते हैं, उस समय जैसे सिंह की गंध पाकर गायें इधर-उधर भागने लगती हैं, उसी प्रकार शत्रु युद्ध के मुहाने पर इनके पास आकर तुरंत भाग खडे़ होते हैं। ‘विशालबाहु, दृढ़ धनुर्धर, युद्धकुशल और हाथों की फुर्ती दिखाने वाले अस्त्रवेत्ता सात्यकि पर्वतों को विदीर्ण कर सकते हैं और सम्पूर्ण लोकों का संहार करने में समर्थ हैं। वे आकाश में विद्यमान सूर्यदेव की भाँति प्रकाशित होते हैं। ‘युद्धनिपुण वीर पुरुष जैसे-जैसे अस्त्रों की उपलब्धि को प्रशंसा के योग्य मानते हैं, उन सबसे तथा समस्त वीरोचित गुणों से वृष्णिसिंह सात्यकि सम्पन्न हैं। उन यदुकुल तिलक को बहुत-से उत्तम अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त है। उनका वह अस्त्र-योग विचित्र, सूक्ष्‍म और भली-भाँति अभ्‍यास में लाया हुआ है।[5]

संजय कहते हैं- ‘जब युद्ध में मधुवंशी सात्यकि के चार श्‍वेत घोड़ों से जुते हुए सुवर्णमय रथ को पापात्मा मन्दबुद्धि दुर्योधन देखेगा, तब उसे अवश्‍य संताप होगा। ‘जब सुवर्ण और मणियों से प्रकाशित होने वाले मेरे भयंकर रथ को जिसमें चार श्‍वेत अश्‍व जुते होंगे, जिस पर वानर ध्‍वजा फहरा रही होगी तथा साक्षात भगवान श्रीकृष्ण जिस पर बैठकर सारथि का कार्य संभालते होंगे, अकृतात्मा मन्दबुद्धि दुर्योधन देखेगा, तब मन-ही-मन संतप्त हो उठेगा। ‘महान संग्राम के समय जब मैं गांडीव धनुष की डोरी खींचूँगा, उस समय मेरे हाथों की रगड़ से वज्रपात के समान अत्यन्त भयंकर आवाज होगी, मन्दबुद्धि दुर्योधन जब गांडीव की उस उग्र टंकार को सुनेगा तथा रणस्थली के अग्र-भाग में मेरी बाण वर्षा से फैले हुए अन्धकार में इधर-उधर भागती हुई गायों की भाँति अपनी सेना को युद्ध से पलायन करती देखेगा, तब दुष्‍ट सहायकों से युक्त उस दुर्बुद्धि एवं मूढ़ धृतराष्‍ट्र पुत्र के मन में बड़ा संताप होगा। ‘मेरे गाण्‍डीव धनुष की प्रत्यञ्चा से छोडे़ हुए तीखी धार वाले सुन्दर पंखों से युक्त भयंकर बाण समूह मेघ से निकली हुई अत्यन्त भयानक विद्युत की चिनगारियों के समान जब युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर पड़ेंगे और उनकी हड्डियों को काटते तथा मर्म स्थानों को विदीर्ण करते हुए सहस्र-सहस्र सैनिकों को मौत के घाट उतारने लगेंगे, साथ ही कितने ही घोड़ों, हाथियों तथा कवचधारी योद्धाओं के प्राण लेना प्रारम्भ करेंगे, उस समय जब धृतराष्‍ट्र पुत्र दुर्योधन यह सब देखेगा, तब युद्ध छेड़ने की भूल के कारण वह बहुत पछतायेगा।

‘युद्ध में दूसरे योद्धा जो बाण चलायेंगे, उन्हें मेरे बाण टक्कर लेकर पीछे लौटा देंगे। साथ ही मेरे दूसरे बाण शत्रुओं के शरसमूह को तिर्यग भाव से विद्ध करके टुकडे़-टुकडे़ कर डालेंगे। जब मन्दबुद्धि दुर्योधन यह सब देखेगा, तब उसे युद्ध छेड़ने के कारण बड़ा पश्चात्ताप होगा। ‘जब मेरे बाहुबल से छूटे हुए विपाठ नामक बाण युवक योद्धाओं के मस्तकों को उसी प्रकार काट-काटकर ढेर लगाने लगेंगे, जैसे पक्षी वृक्षों के अग्रभाग से फल गिराकर उनके ढेर लगा देते हैं, उस समय यह सब देखकर दुर्योधन को बड़ा पश्चात्ताप होगा। ‘जब दुर्योधन देखेगा कि उसके रथों से, बड़े-बड़े गजों से और घोड़ों की पीठ पर से भी असंख्‍य योद्धा मेरे बाणों द्वारा मारे जाकर समरांगण में गिरते चले जा रहे हैं, तब उसे युद्ध के लिये भारी पछतावा होगा। ‘दुर्योधन को जब यह दिखायी देगा कि उसके दूसरे भाई शत्रुओं की बाण वर्षा के निकट न जाकर उसे दूर से देखकर ही अदृश्‍य हो रहे हैं, युद्ध में कोई पराक्रम नहीं कर पा रहे हैं, तब वह लड़ाई छेड़ने के कारण मन-ही-मन बहुत पछतायेगा। ‘जब मैं सायकों की अविच्छिन्‍न वर्षा करते हुए मुख फैलाये खड़े हुए काल की भाँति अपने प्रज्‍वलित बाणों की बौछारों से शत्रुपक्ष के झुंड-के-झुंड पैदलों तथा रथियों के समूहों को छिन्‍न-भिन्‍न करने लगूंगा, उस समय मंदबुद्धि दुर्योधन को बड़ा संताप होगा। ‘मंदबुद्धि धृतराष्‍ट्र जब यह देखे‍गा कि सम्‍पूर्ण दिशाओं में दौड़ने वाले मेरे रथ के द्वारा उड़ायी हुई धूलि से आच्‍छादित हो उसकी सारी सेना धराशायी हो रही है और मेरे गाण्‍डीव धनुष से छूटे हुए बाणों द्वारा उसके समस्‍त सैनिक छिन्‍न-भिन्‍न होते चले जा रहे हैं, तब उसे बड़ा पछतावा होगा।[6]

दुर्योधन अपनी आँखों से यह देखेगा कि उसकी सारी सेना भय से भागने लगी है और उसको यह भी नहीं सूझता है कि किस दिशा की ओर जाऊं? कितने ही योद्धाओं के अंग-प्रत्‍यंग छिन्‍न-भिन्‍न हो गये हैं। समस्‍त सैनिक अचेत हो रहे हैं। हाथी, घोड़े तथा वीराग्रगण्‍य नरेश मार डाले गये हैं। सारे वाहन थक गये हैं और सभी योद्धा प्‍यास तथा भय से पीड़ित हो रहे हैं। बहुतेरे सैनिक आर्त स्‍वर से रो रहे हैं, कितने ही मारे गये और मारे जा रहे हैं। बहुतों के केश, अस्थि तथा कपाल समूह सब ओर बिखरे पड़े हैं। मानो विधाता का यथार्थ निश्चित विधान हो, इस प्रकार यह सब कुछ होकर ही रहेगा। यह सब देखकर उस समय मंदबुद्धि दुर्योधन के मन में बड़ा पश्चात्ताप होगा। ‘जब धृतराष्‍ट्र दुर्योधन रथ पर मेरे गाण्डीव धनुष को, सारथि भगवान श्रीकृष्ण को, उनके दिव्‍य पाञ्चजन्य शंख को, रथ में जुते हुए दिव्य घोड़ों को, बाणों से भरे हुए दो अक्षय तूणीरों को, मेरे देवदत्त नामक शंख को और मुझको भी देखेगा, उस समय युद्ध का परिणाम सोचकर उसे बड़ा संताप होगा। ‘जिस समय युद्ध के लिये एकत्र हुए इन डाकुओं के दलों का संहार करके प्रलयकाल के पश्चात युगांतर उपस्थित करता हुआ मैं अग्नि के समान प्रज्‍वलित होकर कौरवों को भस्‍म करने लगूंगा, उस समय पुत्रों‍ सहित महाराज धृतराष्‍ट्र को बड़ा संताप होगा। ‘सदा क्रोध के वश में रहने वाला अल्‍पबुद्धि मूढ़ दुर्योधन जब भाई, भृत्‍यगण तथा सेनाओं सहित ऐश्वर्य से भ्रष्‍ट एवं आहत होकर कांपने लगेगा, उस समय सारा घमंड चूर-चूर हो जाने पर उसे अपने कुकृत्‍यों के लिये बड़ा पश्चात्ताप होगा।[7]

श्रीकृष्ण के शौर्य का वर्णन

‘एक दिन की बात है, मैं पूर्वाह्णकाल में संध्‍या-वंदन एवं गायत्री जप करके आचमन के पश्चात बैठा हुआ था, उस समय एक ब्राह्मण ने आकर एकांत में मुझसे यह मधुर वचन कहा ‘कुंतीनदन! तुम्‍हें दुष्‍कर कर्म करना है। सव्‍यसाचिन! तुम्‍हें अपने शत्रुओं के साथ युद्ध करना होगा। बोलो, क्‍या चाहते हो? इन्‍द्र उच्‍चै:श्रवा घोड़े पर बैठकर वज्र हाथ में लिये तुम्‍हारे आगे-आगे समरभूमि में शत्रुओं का नाश करते हुए चलें अथवा सुग्रीव आदि अश्‍वों से जुते हुए रथ पर बैठकर वसुदेवनंदन भगवान श्रीकृष्ण पीछे की ओर से तुम्हारी रक्षा करें। ‘उस समय मैंने वज्रपाणि इन्‍द्र को छोड़कर इस युद्ध में भगवान श्रीकृष्‍ण को अपना सहायक चुना था, इस प्रकार इन डाकुओं के वध के लिये मुझे श्रीकृष्‍ण मिल गये हैं। मालूम होता है, देवताओं ने ही मेरे लिये ऐसी व्‍यवस्‍था कर रखी है। ‘भगवान श्रीकृष्‍ण युद्ध न करके मन से भी जिस पुरुष की विजय का अभिनंदन करेंगे, वह अपने समस्‍त शत्रुओं को, भले ही वे इन्‍द्र आदि देवता ही क्‍यों न हों, पराजित कर देता है, फिर मनुष्‍य शत्रु के लिये तो चिंता ही क्‍या है? ‘जो युद्ध के द्वारा अत्‍यंत शौर्य सम्‍पन्‍न तेजस्‍वी वसुदेव-नंदन भगवान श्रीकृष्‍ण को जीतने की इच्‍छा करता है, वह अनंत अपार जलनिधि समुद्र को दोनों बांहो से तैर कर पार करना चाहता है। ‘जो अत्‍यंत विशाल प्रस्‍तर राशि पूर्ण श्‍वेत कैलास पर्वत को हथेली मारकर विदीर्ण करना चाहता है, उस मनुष्‍य का नख सहित हाथ ही छिन्‍न–भिन्‍न हो जायगा। वह उस पर्वत का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। ‘जो युद्ध के द्वारा भगवान श्रीकृष्‍ण को जीतना चाहता है, वह प्रज्‍वलित अग्नि को दोनों हाथों से बुझाने की चेष्‍टा करता है, चंद्रमा और सूर्य की गति को रोकना चाहता है तथा हठपूर्वक देवताओं का अमृत हर लाने का प्रयत्‍न करता है।[7]

‘जिन्‍होंने एकमात्र रथ की सहायता से युद्ध में भोजवंशी राजाओं को बलपूर्वक पराजित करके रूप, सौंदर्य और सुयश के द्वारा प्रकाशित होने वाली उस परम सुंदरी रुक्मिणी को पत्नी रूप से ग्रहण किया, जिसके गर्भ से महामना प्रद्युम्न का जन्‍म हुआ। ‘इन श्रीकृष्‍ण ने ही गांधार देशीय योद्धाओं को अपने वेग से कुचलकर राजा नग्नजित के समस्‍त पुत्रों को पराजित किया और वहाँ कैद में पड़कर क्रन्‍दन करते हुए राजा सुदर्शन को, जो देवताओं के भी आदरणीय हैं, बन्धन मुक्त किया। ‘इन्होंने पाण्‍डय नरेश को किंवाड़ के पल्ले से मार डाला, भयंकर युद्ध में कलिंगदेशीय योद्धाओं को कुचल डाला तथा इन्होंने ही काशीपुरी को इस प्रकार जलाया था कि वह बहुत वर्षों तक अनाथ पड़ी रही। ‘ये भगवान श्रीकृष्‍ण उस‍ निषादराज एकलव्य को सदा युद्ध के लिये ललकारा करते थे, जो दूसरों के लिये अजेय था; परंतु वह श्रीकृष्‍ण के हाथ से मारा जाकर प्राण शून्य होकर सदा के लिये रण-शय्या में सो रहा है, ठीक उसी तरह, जैसे जम्भ नाम‍क दैत्य स्वयं ही वेगपूर्वक पर्वत पर आघात करके प्राण शून्य हो महानिद्रा में निमग्न हो गया था। ‘उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा दुष्‍ट था। वह भरी सभा में वृष्णि और अन्धकवंशी क्षत्रियों के बीच में बैठा हुआ था, श्रीकृष्‍ण ने बलदेव जी के साथ वहाँ जाकर उसे मार गिराया। इस प्रकार कंस का वध करके इन्होंने मथुरा का राज्य उग्रसेन को दे दिया। ‘इन्होंने सौभ नामक विमान पर बैठे हुए तथा माया के द्वारा अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके आये हुए आकाश में स्थित शाल्व राज्य के साथ युद्ध किया और सौभ विमान के द्वार पर लगी हुई शतघ्‍नी को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया था। फिर इनका वेग कौन मनुष्‍य सह सकता है?[8]

श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर का वध

असुरों का प्राग्ज्योतिषपुर नाम से प्रसिद्ध एक भयंकर किला था, जो शत्रुओं के लिये सर्वथा अजेय था। वहाँ भुमि-पुत्र महाबली नरकासुर निवास करता था, जिसने देवमाता अदिति के सुन्दर मणिमय कुण्‍डल हर लिये थे। ‘मृत्यु के भय से रहित देवता इन्द्र के साथ उसका सामना करने के लिये आये, परंतु नरकासुर को युद्ध में पराजित न कर सके। तब देवताओं ने भगवान श्रीकृष्ण के अनिवार्य बल, पराक्रम और अस्त्र को देखकर तथा इनकी दयालु एवं दुष्‍टमनकारिणी प्रकृति को जानकर इन्हीं से पूर्वोक्त डाकू नरकासुर का वध करने की प्रार्थना की, तब समस्त कार्यों की सिद्धि में समर्थ भगवान श्रीकृष्‍ण ने वह दुष्कर कार्य पूर्ण करना स्वीकार किया। ‘फिर वीरवर श्रीकृष्‍ण ने निर्मोचन नगर की सीमा पर जाकर सहसा छ: हजार लोहमय पाश काट दिये, जो तीखी धार वाले थे। फिर मुर दैत्य का वध और राक्षस समूह का नाश करके निर्मोचन नगर में प्रवेश किया। ‘वहीं उस महाबली नरकासुर के सा‍थ अत्यन्त बलशाली भगवान श्रीकृष्‍ण का युद्ध हुआ। श्रीकृष्‍ण के हाथ से मारा जाकर वह प्राणों से हाथ धो बैठा और आंधी के उखाडे़ हुए कनेर वृक्ष की भाँति सदा के लिये रणभूमि में सो गया। ‘इस प्रकार अनुपम प्रभावशाली विद्वान श्रीकृष्‍ण भूमि-पुत्र नरकासुर तथा मुर का वध करके देवी अदिति के वे दोनों मणिमय कुण्‍डल वहाँ से लेकर विजयलक्ष्‍मी और उज्ज्वल यश से सुशोभित हो अपनी पुरी में लौट आये।[8]

श्रीकृष्ण के साथ से अर्जुन का युद्ध में विजय की आशा करना

युद्ध में भगवान श्रीकृष्‍ण का वह भयंकर पराक्रम देखकर देवताओं ने वहाँ इन्हें इस प्रकार वर दिये- ‘केशव! युद्ध करते समय आपको कभी थकावट न हो, आकाश और जल में भी आप अप्रतिहत गति से विचरें और आपके अंगों में कोई भी अस्त्र शस्त्र चोट न पहुँचा सके।’ इस प्रकार वर पाकर श्रीकृष्‍ण पूर्णत: कृतकार्य हो गये हैं। इन असीम शक्तिशाली महाबली वासुदेव में समस्त गुण-सम्पत्ति सदैव विद्यमान है। ‘ऐसे अनन्त पराक्रमी और अजेय श्री‍कृष्‍ण को धृतराष्‍ट्रपुत्र दुर्योधन जीत लेने की आज्ञा करता है। वह दुरात्मा सदैव इनका अनिष्‍ट करने के विषय में सोचता रहता है, परंतु हम लोगों की ओर देखकर उसके इस अपराध को भी ये भगवान सहते चले जा रहे हैं। ‘दुर्योधन मानता है कि मुझमें और श्री‍कृष्‍ण में हठात कलह करा दिया जा सकता है। पाण्‍डवों का श्रीकृष्‍ण के प्रति जो ममत्व[9]है, उसे मिटा दिया जा सकता है; परंतु कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में पहुँचने पर उसे इन सब बातों का ठीक-ठीक पता चल जायगा। ‘मैं शान्तनुनन्दन महाराज भीष्‍म को, आचार्य द्रोण को, गुरुभाई अश्वत्थामा को और जिनका सामना कोई नहीं कर सकता, उन वीरवर कृपाचार्य को भी प्रणाम करके राज्य पाने की इच्छा लेकर अवश्‍य युद्ध करूंगा। ‘जो पापबुद्धि मानव पाण्‍डवों के साथ युद्ध करेगा, धर्म की दृष्टि से उसकी मृत्यु निकट आ गयी है, ऐसा मेरा विश्वास है।

कारण कि इन क्रूर स्वभाव वाले कौरवों ने हम सब लोगों को कपटद्यूत में जीतकर बारह वर्षों के लिये वन में निर्वासित कर दिया था; यद्यपि हम भी राजा के ही पुत्र थे। ‘हम वन में दीर्घकाल तक बड़े कष्‍ट सहकर रहे हैं और एक वर्ष तक हमें अज्ञातवास करना पड़ा है। ऐसी दशा में पाण्‍डवों के जीते-जी वे कौरव अपने पदों पर प्रतिष्ठित रहकर कैसे अनान्द भोगते रहेंगे? ‘यदि इन्द्र आदि देवताओं की सहायता पाकर भी धृतराष्‍ट्रपुत्र हमें युद्ध में जीत लेंगे तो यह मानना पड़ेगा कि धर्म की अपेक्षा पापाचार का ही महत्त्व अधिक है और संसार से पुण्‍य-कर्म का अस्तित्त्व निश्चय ही उठ गया। ‘यदि दुर्योधन मनुष्‍य को कर्मों के बन्धन से बंधा हुआ नहीं मानता है अथवा यदि वह हम लोगों को अपने से श्रेष्‍ठ तथा प्रबल नहीं समझता है, तो भी मैं यह आशा करता हूँ कि भगवान श्रीकृष्‍ण को अपना सहायक बनाकर मैं दुर्योधन को उसके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालूंगा। ‘राजन! यदि मनुष्‍य का किया हुआ यह पाप कर्म निष्‍फल नहीं होता अथवा पुण्‍यकर्मों का फल मिले बिना नहीं रहता तो मैं दुर्योधन के वर्तमान और पहले के किये हुए पाप कर्म का विचार करके निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि धृतराष्‍ट्र पुत्र की पराजय अनिवार्य है और इसी में जगत की भलाई है। ‘कौरवों! मैं तुम लोगों के समक्ष यह स्पष्‍ट रूप से बता देना चा‍हता हूँ कि धृतराष्‍ट्र के पुत्र यदि युद्धभूमि में उतरे तो जीवित नहीं बचेंगे। कौरवों के जीवन की रक्षा तभी हो सकती है, जब वे युद्ध से दूर रहें। युद्ध छिड़ जाने पर तो उनमें से कोई भी यहाँ शेष नहीं रहेगा।[10]

अर्जुन द्वारा युध में सबके विनाश का निश्चय करना

‘मैं कर्ण सहित धृतराष्‍ट्र पुत्रों का वध करके कुरुदेश का सम्पूर्ण राज्य जीत लूंगा, अत: तुम्हारा जो-जो कर्तव्य शेष हो, उसे पूरा कर लो। अपने वैभव के अनुसार प्रियतमा पत्नियों के साथ सुख भोग लो और अपने शरीर के लिये भी जो अभीष्‍ट भोग हो, उनका उपभोग कर लो। ‘हमारे पास कितने ही ऐसे वृद्ध ब्राह्मण विद्यमान हैं, जो अनेक शास्त्रों के विद्वान, सुशील, उत्तम कुल में उत्पन्न, वर्ष के शुभाशुभ फलों को जानने वाले, ज्योतिष-शास्त्र के मर्मज्ञ तथा ग्रह-नक्षत्रों के योगफल का निश्चित रूप से ज्ञान रखने वाले हैं। ‘वे दैव सम्बन्धी उन्नति एवं अवनति के फलदायक रहस्य बता सकते हैं। प्रश्‍नों के अलौकिक ढंग से उत्तर देते हैं, जिसमें भविष्‍य घटनाओं का ज्ञान हो जाता है। वे शुभाशुभ फलों का वर्णन करने के लिये सर्वतोभद्र आदि चक्रों का भी अनुसंधान करते हैं और मुहूर्तशास्त्र के तो वे पण्डित ही हैं। वे सब लोग निश्चित रूप से यह निवेदन करते हैं कि कौरवों और सृंजय वंश के लोगों का बड़ा, भारी संहार होने वाला है और इस महायुद्ध में पाण्‍डवों की विजय होगी। ‘अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर मानते हैं, मैं अपने शत्रुओं का दमन करने में निश्चय सफल होऊंगा। वृष्णि वंश के पराक्रमी वीर भगवान श्रीकृष्ण को भी सारी विद्याओं का अपरोक्ष ज्ञान है। वे भी हमारे इस मनोरथ के सिद्ध होने में कोई संदेह नहीं देखते हैं। ‘मैं भी स्वयं प्रमाद शून्य होकर अपनी बुद्धि से भावी का ऐसा ही स्वरूप देखता हूँ। मेरी चिरंतन दृष्टि कभी तिरोहित नहीं होती। उसके अनुसार मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि युद्ध भूमि में उतरने पर धृतराष्‍ट्र के पुत्र जीवित नहीं रह सकते।

गाण्‍डीव धनुष बिना स्पर्श किये ही तना जा रहा है, मेरे धनुष की डोरी बिना खींचे ही हिलने लगी है और मेरे बाण बार-बार तरकश से निकलकर शत्रुओं की ओर जाने के लिये उतावले हो रहे हैं। ‘चमचमाती हुई तलवार म्‍यान से इस प्रकार निकल रही है, मानो सर्प अपनी पुरानी केंचुल छोड़कर चमकने लगा हो तथा मेरी ध्‍वजा पर यह भयंकर वाणी गूंजती रहती है कि अर्जुन! तुम्‍हारा रथ युद्ध के लिये कब जोता जायगा। ‘रात में गीदड़ों के दल कोलाहल मचाते हैं, राक्षस आकाश से पृथ्वी पर टूटे पड़ते हैं तथा हिरण, सियार, मोर, कौआ, गीध, बगुला और चीते मेरे रथ के समीप दौड़े आते हैं। ‘श्‍वेत घोड़ों से जुते हुए मेरे रथ को देखकर सुवर्णपत्र नामक पक्षी पीछे से टूटे पड़ते हैं। इससे जान पड़ता है, मैं अकेला बाणों की वर्षा करके समस्‍त राजाओं और योद्धाओं को यमलोक पहुँचा दूंगा। ‘जैसे गर्मी में प्रज्‍वलित हुई आग जब वन को जलाने लगती है, तब किसी भी वृक्ष को बाकी नहीं छोड़ती, उसी प्रकार मैं शत्रुओं के वध के लिये सुसज्जित हो अस्त्र संचालन की विभिन्‍न रीतियों का आश्रय ले स्‍थूणाकर्ण, महान पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र तथा जिसे इन्‍द्र ने मुझे दिया था, उस इन्‍द्रास्‍त्र का भी प्रयोग करूंगा और वेगशाली बाणों की वर्षा करके इस युद्ध में किसी को भी जीवित नहीं छोडूंगा। ऐसा करने पर ही मुझे शांति मिलेगी। संजय! तुम उनसे स्‍पष्‍ट कह देना कि मेरा यह दृढ़ और उत्तम निश्चय है। ‘सूत! जो पाण्‍डव समरभूमि में इन्‍द्र आदि समस्‍त देवताओं को भी पाकर उन्‍हें पराजित किये बिना नहीं रहेंगे, उन्‍हीं हम पाण्‍डवों के साथ यह दुर्योधन हठपूर्वक युद्ध करना चाहता है, इसका मोह तो देखो। ‘फिर भी मैं चाहता हूँ कि बूढ़े पितामह शांतनुनंदन भीष्‍म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्‍थामा और बुद्धिमान विदुर ये सब लोग मिलकर जैसा कहें, वही हो। समस्‍त कौरव दीर्घायु बने रहें’।[11]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 1-15
  2. सद्गुणों द्वारा सबके हृदय को जीते, अन्‍याय से शासन करना असम्‍भव है
  3. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 16-25
  4. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 26-36
  5. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 37-49
  6. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 50-61
  7. 7.0 7.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 62-73
  8. 8.0 8.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 74-85
  9. अपनापन
  10. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 86-96
  11. महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 97-109

सम्बंधित लेख

महाभारत उद्योग पर्व में उल्लेखित कथाएँ


सेनोद्योग पर्व
विराट की सभा में श्रीकृष्ण का भाषण | विराट की सभा में बलराम का भाषण | सात्यकि के वीरोचित उद्गार | द्रुपद की सम्मति | श्रीकृष्ण का द्वारका गमन | विराट और द्रुपद के संदेश | द्रुपद का पुरोहित को दौत्य कर्म के लिए अनुमति | पुरोहित का हस्तिनापुर प्रस्थान | श्रीकृष्ण का दुर्योधन और अर्जुन को सहायता देना | शल्य का दुर्योधन के सत्कार से प्रसन्न होना | इन्द्र द्वारा त्रिशिरा वध | वृत्तासुर की उत्पत्ति | वृत्तासुर और इन्द्र का युद्ध | देवताओं का विष्णु जी की शरण में जाना | इंद्र-वृत्तासुर संधि | इन्द्र द्वारा वृत्तासुर का वध | इंद्र का ब्रह्महत्या के भय से जल में छिपना | नहुष का इंद्र के पद पर अभिषिक्त होना | नहुष का काम-भोग में आसक्त होना | इंद्राणी को बृहस्पति का आश्वासन | देवता-नहुष संवाद | बृहस्पति द्वारा इंद्राणी की रक्षा | नहुष का इन्द्राणी को काल अवधि देना | इंद्र का ब्रह्म हत्या से उद्धार | शची द्वारा रात्रि देवी की उपासना | उपश्रुति देवी की मदद से इंद्र-इंद्राणी की भेंट | इंद्राणी के अनुरोध पर नहुष का ऋषियों को अपना वाहन बनाना | बृहस्पति और अग्नि का संवाद | बृहस्पति द्वारा अग्नि और इंद्र का स्तवन | बृहस्पति एवं लोकपालों की इंद्र से वार्तालाप | अगस्त्य का इन्द्र से नहुष के पतन का वृत्तांत बताना | इंद्र का स्वर्ग में राज्य पालन | शल्य का युधिष्ठिर आश्वासन देना | युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाओं का संक्षिप्त वर्णन

संजययान पर्व
द्रुपद के पुरोहित का कौरव सभा में भाषण | भीष्म द्वारा पुरोहित का समर्थन एवं अर्जुन की प्रशंसा | कर्ण के आक्षेपपूर्ण वचन | धृतराष्ट्र द्वारा दूत को सम्मानित करके विदा करना | धृतराष्ट्र का संजय से पाण्डवों की प्रतिभा का वर्णन | धृतराष्ट्र का पाण्डवों को संदेश | संजय का युधिष्ठिर से मिलकर कुशलक्षेम पूछना | युधिष्ठिर का संजय से कौरव पक्ष का कुशलक्षेम पूछना | संजय द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र का संदेश सुनाने की प्रतिज्ञा करना | युधिष्ठिर का संजय को इंद्रप्रस्थ लौटाने की कहना | संजय का युधिष्ठिर को युद्ध में दोष की संभावना बताना | संजय को युधिष्ठिर का उत्तर | संजय को श्रीकृष्ण का धृतराष्ट्र के लिए चेतावनी देना | संजय की विदाई एवं युधिष्ठिर का संदेश | युधिष्ठिर का कुरुवंशियों के प्रति संदेश | अर्जुन द्वारा कौरवों के लिए संदेश | संजय का धृतराष्ट्र के कार्य की निन्दा करना

प्रजागर पर्व
धृतराष्ट्र-विदुर संवाद | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर के नीतियुक्त वचन | विदुर द्वारा सुधंवा-विरोचन विवाद का वर्णन | विदुर का धृतराष्ट्र को धर्मोपदेश | दत्तात्रेय एवं साध्य देवताओं का संवाद | विदुर द्वारा धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का हितोपदेश | विदुर के नीतियुक्त उपदेश | धृतराष्ट्र के प्रति विदुर का नीतियुक्त उपदेश | विदुर द्वारा धर्म की महत्ता का प्रतिपादन | विदुर द्वारा चारों वर्णों के धर्म का सक्षिप्त वर्णन

सनत्सुजात पर्व
विदुर द्वारा सनत्सुजात से उपदेश देने के लिए प्रार्थना | सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मज्ञान में मौन, तप तथा त्याग आदि के लक्षण | सनत्सुजात द्वारा ब्रह्मचर्य तथा ब्रह्म का निरुपण | गुण दोषों के लक्षण एवं ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन | योगीजनों द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का प्रतिपादन

यानसंधि पर्व
संजय का कौरव सभा में आगमन | संजय द्वारा कौरव सभा में अर्जुन का संदेश सुनाना | भीष्म का दुर्योधन से कृष्ण और अर्जुन की महिमा का बखान | भीष्म का कर्ण पर आक्षेप और द्रोणाचार्य द्वारा भीष्मकथन का अनुमोदन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के प्रधान सहायकों का वर्णन | भीमसेन के पराक्रम से धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र द्वारा अर्जुन से प्राप्त होने वाले भय का वर्णन | कौरव सभा में धृतराष्ट्र द्वारा शान्ति का प्रस्ताव | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को उनके दोष बताना तथा सलाह देना | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से अपने उत्कर्ष और पांडवों के अपकर्ष का वर्णन | संजय द्वारा अर्जुन के ध्वज एवं अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा युधिष्ठिर के अश्वों का वर्णन | संजय द्वारा पांडवों की युद्ध विषयक तैयारी का वर्णन और धृतराष्ट्र का विलाप | दुर्योधन द्वारा अपनी प्रबलता का प्रतिपादन और धृतराष्ट्र का उस पर अविश्वास | संजय द्वारा धृष्टद्युम्न की शक्ति एवं संदेश का कथन | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | दुर्योधन का अहंकारपूर्वक पांडवों से युद्ध का निश्चय | धृतराष्ट्र का अन्य योद्धाओं को युद्ध से भय दिखाना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्ण और अर्जुन के संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा कौरव-पांडव शक्ति का तुलनात्मक वर्णन | दुर्योधन की आत्मप्रशंसा | कर्ण की आत्मप्रशंसा एवं भीष्म द्वारा उस पर आक्षेप | कर्ण द्वारा कौरव सभा त्यागकर जाना | दुर्योधन द्वारा अपने पक्ष की प्रबलता का वर्णन | विदुर का दम की महिमा बताना | विदुर का धृतराष्ट्र से कौटुम्बिक कलह से हानि बताना | धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | संजय का धृतराष्ट्र को अर्जुन का संदेश सुनाना | धृतराष्ट्र के पास व्यास और गांधारी का आगमन | संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना | संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना | कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन | धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान

भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना | कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय | कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना | भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव | कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना | कृष्ण को भीमसेन का उत्तर | कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना | अर्जुन का कथन | कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना | नकुल का निवेदन | सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति | द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन | कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान | युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश | कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन | वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन | कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार | कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना | दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना | धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार | विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना | दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना | दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना | हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत | धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य | कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना | कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना | कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना | कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना | विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना | कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना | कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश | कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण | कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण | परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन | कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना | मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना | नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन | नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन | नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन | नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन | नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन | मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय | नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव | विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह | विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन | दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना | नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन | गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन | गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना | गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना | गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना | गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना | गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट | गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन | ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना | हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना | दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना | उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना | गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना | ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना | ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना | ययाति का स्वर्गलोक से पतन | ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास | ययाति का फिर से स्वर्गारोहण | स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत | नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना | धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना | भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना | दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय | कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना | कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह | गांधारी का दुर्योधन को समझाना | सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़ | धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना | कृष्ण का विश्वरूप | कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान | कुंती का पांडवों के लिये संदेश | कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ | विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना | विदुला और उसके पुत्र का संवाद | विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश | विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना | कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना | भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना | कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना | कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार | कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन | कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन | कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन | कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन | कुंती का कर्ण के पास जाना | कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध | कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा | कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना | कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन | दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन | कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना

सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव | पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश | कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण | दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश | कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना | युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन | दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक | दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक | युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक | बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान | रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन | धृतराष्ट्र और संजय का संवाद

उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना | पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना | पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर | पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना | धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति

रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथियों का परिचय | कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन | कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद | भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन | पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा | पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन | भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन

अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण | अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना | अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग | अम्बा और शैखावत्य संवाद | होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप | अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप | अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह | परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप | परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना | परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना | परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध | भीष्म और परशुराम का युद्ध | भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति | भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग | भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति | अम्बा की कठोर तपस्या | अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश | अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण | शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप | हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना | द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन | शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना | शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति | स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप | भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय | भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन | अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना | कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान | पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः