श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पूर्ण परात्पर भगवान श्रीकृष्ण का आविर्भावऔर जो जिस भाव से उनके सामने आता है, उसको उसी भाव के अनुसार अपने लीलाचरित्र के द्वारा शिक्षा देकर वे उसका परम कल्याण करते हैं। जो जैसा सम्बन्ध जोड़कर उनके सम्पर्क में आना चाहता है, उसके उसी सम्बन्ध को वे स्वीकार कर लेते हैं; क्योंकि सहज ही वे ‘सर्वभूसुहृद्’ हैं-‘सुहृदं सर्वभूतानाम्।’ इसीलिये वे वसुदेव-देवकी और नन्द-यशोदा के परम सुखस्वरूप सुपुत्र हैं; व्रजबालकों, सुदामा-जैसे दरिद्रों तथा अर्जुन-उद्धवादि-जैसे वीरों-विद्वानों के सखा-मित्र हैं; श्रीगोपांगनाओं के मधुरतम मधुरतम प्राणवल्लभ हैं एवं द्वारका की ऐश्वर्यमयी महिषियों के पूज्य पति हैं; गौओं के अनन्य सेवक हैं, पशु-पक्षियों के बन्धु हैं; असुर-राक्षसों के शत्रु हैं; ज्ञानियों के ब्रह्म हैं, योगियों के परमात्मा हैं, भक्तों के भगवान् हैं, प्रमियों के परम प्रेमास्पद हैं; राजनीतिज्ञों में निपुण राजनीतिविशारद हैं; शूरवीरों में अतुल पराक्रमी महान वीर हैं; शरणागतों के परम रक्षक हैं, शिष्यों के परम ज्ञानदाता गुरु और सन्मार्गदर्शक हैं। सभी कार्यों में वे परम कुशल हैं, कर्मकौशल उनकी लीला में सहज हैं। जहाँ जो काम करते हैं, पूर्णतम अनुभवी पुरुष के रूप में करते हैं। कोई भी कला उनसे बची नहीं। पर सभी कलाओं की लीलाओं में सहज लोककल्याण निहित है। कला केवल कला के नहीं, कल्याण के लिये। वे संगीतशास्त्र के महान आचार्य हैं। बड़े-बड़े संगीतज्ञ उनके शिष्य हैं। उनकी वाद्यकला अनिर्वचनीय है। मुरली की सुरीली ध्वनि ब्रह्मलोक तक पहुँचकर सबको सम्मोहित कर लेती है-जड को चेतन और चेतन को जड बना देती है। कोटि-कोटि व्रजसुन्दरियाँ मुरली की ध्वनि सुनकर उन्मत्त-सी हो जाती हैं और सारे संसार के सम्पूर्ण सम्बन्धों को भूलकर प्रियतम श्रीकृष्ण के पास पहुँच जाती हैं एवं उन्हें सर्वात्म-समर्पण करके परमहंस ज्ञानी-मुनियों और सर्वपूज्य देवताओं के लिये भी परम पूजनीय बन जाती हैं। उनकी नृत्यकला तो सर्वथा विलक्षण है। शिवनृत्य ‘ताण्डव’ और पार्वतीनृत्य ‘लास्य’ कहलाता है, परंतु भयानक विष उगलनेवाले विषधर भुजंगम के सहस्रों फनों पर थिरक-थिरककर नृत्य करना नृत्यकला की पराकाष्ठा के भी परे की वस्तु है और उसका उद्देश्य है-कालिय के समस्त पापों का विनाश करके उसे प्रेमभक्ति प्रदान करना। उनका महारासनृत्य तो बड़े-बड़े तत्त्वज्ञों के लिये रहस्य की वस्तु है। मल्लविद्या के तो आप परमाचार्य ही बन गये। देखने में नन्हें-से होकर ऐसी पैतरेबाजी की कि मल्लविद्याभिमानी मुष्टिक-चाणूर का कचूमर ही निकल गया। वहाँ कुवलयापीड का विनाश, धुनषभंग और कंस का वध करके आपने अपने बल-पौरुष की धाक जमा दी। |
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