श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रियतम से प्रार्थना!मनमोहन! मेरे मन को अपनी माधुरी से मोह लो। मेरे मन में जो मान, यश और विषय-सुख की इच्छा रूपी आग जल रही है, इसे तुम्हीं अपने कृपा-वारि से बुझा दो। प्रभो! मैं केवल तुम्हीं को चाहूँ, केवल तुम्हीं को अपना सर्वस्व समझूँ, तुम्हीं मेरे प्राणाधार और प्राण हो; तुम्हीं मेरे आत्मा और परमात्मा हो- इस बात को जानकर मैं केवल तुम्हीं से प्रेम करूँ; तुम्हारे इस प्रेम-प्रवाह में मेरा अपना माना हुआ धन-जन, मान-मोह-सब बह जाय, तुम्हारे प्रेम सागर में सब कुछ डूब जाय। मैं केवल तुम्हारी ही झाँकी करता रहूँ- ऐसा सौभाग्य दे दो, मेरे प्रियतम! फिर सारे जगत में मुझको तुम्हीं दिखायी पड़ने लगो, सारा जगत तुम्हीं हो जाओ। मैं सब में, सब ओर, सदा-सर्वदा तुम्हीं को देखूँ; सब तुम्हारे ही स्वरूप में परिणत हो जाय। अहा! वह दिन कैसा सुदिन होगा, वह घड़ी कैसी शुभ होगी, वह क्षण कैसा मधुर क्षण होगा और वह स्थिति कैसी आनन्दमयी होगी, जब ऐसा हो जायगा। तब इस जगत में मेरे लिये कोई पराया नहीं रहेगा; तब मेरे मन के राग-द्वेष, वैर-विरोध, सुख-दुःख आदि सारे द्वन्द्व मिट जायँगे और मुझे सब ओर विशुद्ध प्रेम, सब ओर अपार आनन्द सब ओर अनन्त शान्ति और सब ओर सौन्दर्य-माधुर्य भरी तुम्हारी मनमोहिनी मूर्ति दिखायी देगी। मेरी साधना सफल हो जायगी, मैं निहाल हो जाऊँगा; क्योंकि उस समय मैं और तुम- बस, हम दो ही रह जायँगे। मैं तुम्हारी मनमानी सेवा करूँगा और तुम उस सेवा को स्वीकार कर मेरी सेवा करोगे! सभी बातें मेरे मन की होंगी। नहीं, तब मेरा मन भी तो मेरा नहीं रहेगा, वह तो तुम्हारे ही मन की छाया बन जायगा; अतः सब तुम्हारे ही मन की होगी। तुम जब तक महान् संकल्प से मुझे यों अलग रखकर मुझसे खेलोगे, तब तक मैं परम धन्य और परम सुखी बना तुम्हारे साथ तुम्हारी रुचि के अनुसार खेलता रहूँगा और तुम जिस क्षण अपने संकल्प को छोड़कर अपने उस खेल को समेटकर मुझे आलिंगन करना चाहोगे, उसी क्षण मैं तुम्हारे विशाल हृदय में समा जाऊँगा। यह खेल भी कैसा मधुर होगा, मेरे मधुरिमा मय मोहन! मेरा यह सुख स्वप्र सच्चा कर दो, मेरे सनातन स्वामी! |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज