श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधाजी कौन थी?मेरे विश्वास के अनुसार श्रीराधा-कृष्ण तत्त्व सर्वथा अप्राकृत है, इनका विग्रह अप्राकृत है, इनकी समस्त लीलाएँ अप्राकृत हैं— जो अप्राकृत क्षेत्र में, अप्राकृत मन-बुद्धि-शरीर से अप्राकृत पात्रों में हुई थीं।[1] अप्राकृत लीला को देखने, सुनने, कहने और समझने के लिये अप्राकृत नेत्र, कर्ण, वाणी और मन-बुद्धि चाहिये। अतएव मुझ-सा प्राकृत प्राणी, प्राकृत मन-बुद्धि से कैसे इस तत्त्व को जान सकता है और कैसे प्राकृत वाणी में उसका वर्णन कर सकता है। अतएव इस सम्बन्ध में मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, उससे किसी को यह न समझना चाहिये कि मैं जो कहता हूँ यही तत्त्व है, इससे परे और कुछ नहीं है; न यह मानना चाहिये कि मैं किसी मतविशेष पर आक्षेप करता हूँ, या किसी तार्किक का मुँह बंद करने के लिये ऐसा लिखता हूँ, अथवा आग्रहपूर्वक अपना विश्वास दूसरों पर लादना चाहता हूँ। मेरा यह कहना कदापि नहीं है कि मेरी लिखी बातों को पाठक मान ही लें। यह तो सिर्फ अपने विश्वास की बात— शास्त्र और संतों द्वारा सुनी हुई- अपने कल्याण के लिये लिखी जा रही है। मेरी प्रार्थना है कि पाठकगण तर्क-बुद्धि का आश्रय करके मुझसे इसके सम्बन्ध में कोई प्रश्नोत्तर की आशा कृपया न रखें। विवाद में तो मैं अपनी हार पहले ही स्वीकार कर लेता हूँ; क्योंकि मैं इस विषय पर तर्क करना ही नहीं चाहता। अवश्य ही मेरे विश्वास का बदलना तो अन्तर्यामी प्रभु की इच्छा पर ही अवलम्बित है। परिपूर्णतम, परमात्मा, परात्पर, सच्चिदानन्दघन, निखिल ऐश्वर्य, माधुर्य और सौन्दर्य के सागर, दिव्य सच्चिदानन्दविग्रह आनन्दकन्द भगवान श्रीकृष्ण और भगवान श्रीराम में मैं कोई भेद नहीं मानता और इसी प्रकार भगवती श्रीराधाजी, श्रीरुक्मिणीजी और श्रीसीताजी आदि में भी मेरी दृष्टि से कोई भेद नहीं है। भगवान के विभिन्न सच्चिदानन्दमय दिव्य लीला-विग्रहों में विभिन्न नाम-रूपों से उनकी ह्लादिनी शक्ति साथ रहती ही है। नाम-रूपों में पृथक्ता दीखने पर भी वस्तुतः वे सब एक ही हैं। |
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क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ श्रीभगवान के देहादि यदि उस माया के कार्य पंचमहाभूतों में निर्मित- प्राकृत होते, जो माया आवरणरूपा है, जो मायातीत, गुणातीत, आत्माराम मुनिगण भगवान के सौन्दर्य, उनकी अंग-गन्ध, उनकी चरणधूलि के लिये लालायित न होते।
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