विषय सूची
श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवद्विरह की दुर्लभ स्थितिभगवद्विरह एक ऐसी दुर्लभ स्थिति है, जो परम सौभाग्य से किन्हीं उत्कट प्रेमियों को स्वतः ही प्राप्त होती है। इसमें विधि-निषेध की गति नहीं है। प्रेमी का काम तो प्रियतम की समृति बढ़ाते हुए उसके विरह की वेदना को तीव्र करना ही है। जब वह वेदना असह्य हो जाती है, तब प्रियतम के लिये भी दूर रहना कठिन हो जाता है। उन्हें या तो स्वयं आना पड़ता है या वे उसे ही अपने पास बुला लेते हैं। प्रियतम के उस मधुर आवाहन से प्रेमी शरीर को तृणवत त्यागकर भगवद्धाम में प्रवेश कर जाता है। इसे आत्महत्या का नाम देना तो भारी अपराध ही है। यहाँ न कोई मरने वाला है, न मारने वाला यह तो प्रियतम और प्रेमी का मधुर मिलन है। विरह-सुखश्री श्रीगौरांगदेव ने कहा था-
गोविन्द के विरह में मेरा एक निमेष भी युगों के समान लम्बा हो रहा है। ये दोनों आँखे सावन की जलधारा के समान सर्वदा बरस रही हैं और सारा जगत् मेरे लिये सूना हो रहा है।’ इस दुःख पूर्ण विरह में कितना असीम सुख है, इस बात का प्रेम शून्य हृदय से कैसे अनुमान लगाया जाय? विरही जलता है, पर इस जलन में ही महान् शान्ति का अनुभव करता है। वह कभी इस जलन को मिटाना नहीं चाहता। वह मिलन में उतना सुख नहीं मानता, जितना विरह की ज्वाला में जलते रहने में मानता है। वह कहता है- ‘हा प्राणनाथ! हा प्रियतम! हा श्रीकृष्ण! इस तरह रोते-कराहते मेरे जन्म-जन्मान्तर बीत जायँ। मैं तुमसे मिलना नहीं चाहता, चाहता हूँ तम्हारे विरह में जी भरकर रोना और तुम्हारे वियोग की आग मे जलते रहना। मुझे इसमें क्या सुख है, इसको मैं ही जानता हूँ।’ |
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज