श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवान के वचन स्मरण रखने चाहिए-
‘हे अर्जुन! शत्रु सूदन! जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, उस प्रकार वेदाध्ययन, तप, दान और यज्ञ से मैं नहीं देखा जा सकता। केवल अनन्य भक्ति से ही मेरा देखा जाना तत्त्व से समझा जाना और मुझ में प्रवेश होना सम्भव है।’ श्री ब्रह्म वैवर्त पुराणान्तर्गत कृष्ण-जन्म खण्ड के 126 वें अध्याय में कहा गया है कि एक बार भगवान श्रीकृष्णचन्द्र द्वारका से वृन्दावन पधारे। उस समय उनकी वियोग-व्यथा से संतप्ता गोपियों की विचित्र दशा हो गयी। प्रिय संयोगजन्य स्नेह सागर की उत्ताल तरंगों में उनके मन और प्राण डूब गये। गोपीश्वरी श्री राधिका जी की तो बड़ी ही अपूर्व स्थिति थी। उनकी चेतनाशून्य दशा से गोपियों ने समझा कि हाय! क्या नाथ के संयोग ने ही हमें अनाथ कर दिया। वे चिल्ला-चिल्ला कर कहनें लगीं-
‘श्रीकृष्ण! तुमने यह क्या किया? यह क्या किया? हाय! हमारी राधिका तो प्राणों से वियुक्त हो गयी। तुम्हारा मंगल हो, तुम शीघ्र ही हमारी राधा को जीवित कर दो; हम उनके साथ वन को जाना चाहती हैं। यदि तुमने ऐसा न किया तो हम सभी स्त्री-वध का पाप तुम्हारे सिर मढेंगी।’ |
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