श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रियतम का नित्य-स्मरणपरमात्मा को ‘प्रियतम’ जान लेने पर वास्तव में एक भी क्षण ऐसा नहीं बीतेगा, जिसमें उनका स्मरण न हो। भूल इसी लिये होती है कि हम उन्हें प्रियतम नहीं मानते। उन्हें प्रियतम माना था गोपरमणियों ने, जो आधे क्षण के लिये भी श्यामसुन्दर का हृदय-मन्दिर से दूर नहीं कर पाती थीं। श्यामसुन्दर को बाध्य होकर गोपियों की दृष्टि के सामने ही सदा थिरक-थिरक कर नाचना पड़ता था। इसी सत्य तथ्य के आधार पर यह कहा गया है-वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति। (श्यामसुन्दर वृन्दावन को छोड़कर एक पग भी कहीं नहीं जाते।) जाते हों, गये हों; परंतु गोपियों की दृष्टि में तो नहीं गये। उनके श्यामसुन्दर तो नित्य उनके साथ हैं, चौबीसों घंटों के उनके सहचर हैं। इसका कारण क्या था? यही कि गोपियों ने उन्हें ‘परम प्रियतम’ मान लिया था उनके लिये वे इहलोक-परलोक-सबका सारा सम्बन्ध त्याग कर चुकी थीं, अपनी प्यारी-से-प्यारी सभी वस्तुएँ वे श्रीकृष्ण के चरणो में सदा के लिये समर्पण कर चुकी थीं; फिर वे उन्हें कैसे भुलातीं? ‘प्रियतम’-अहा! कितना प्रिय शब्द है! प्रियतम तो कभी चित्त से बिसारा ही नहीं जा सकता। यह सि़द्धान्त है कि तीनों लोकों के वैभव की प्राप्ति का लालच मिलने पर भी प्रभु को ‘प्रियतम’ मानने वाले उनके प्रियजन आधे निमेष के लिये भी प्रभु के चरण कमलों को नहीं भूल सकते। ‘प्रियतम’ के प्यारे जन सब जगह उसी की झाँकी देखते हैं, उसी के शब्द सुनते हैं; उसी से बातें करते हैं और उसी का चिन्तन करते हैं। उसके सामने जगत् की या जगत् के किसी पदार्थ की याद उन्हें कभी नहीं आती। भगवान को ‘प्रियतम’ बनाने भर की देर है, फिर तो जगत का मूल्य कुछ रह ही नहीं जायगा। राज-पाट, धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, मान-इज्जत, जीवन-मरण, लोक-परलोक, स्वर्ग-मोक्ष-सभी कुछ उस प्रियतम के प्रेम प्रवाह में बह जायँगे। फिर वह श्री श्रीचैतन्य के शब्दों में गा उठेगा।- |
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