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प्रेम का नेम
- प्रेम कौ एक मधुर यह नेम।
- जो प्रिय के मन भावै, सोई धर्म, जोग अरु छेम।।
- जो नित प्रेम-सुधा-रस-पूरित, भूल्यौ सब संसार।
- निज बिस्मति सौं भए धर्म बिस्मत कछु रही न सार।।
- धर्मी बिना धर्म कहँ कैसें रहै पृथक रखि टेक।
- धुल-मिल भयौ नित्य प्रियतम के मन सौं प्रेमी एक।।
- नहीं कामना, तृष्ना, आसा, नहिं निज-पर कौ भाव।
- एक मात्र प्रियतम कर की पुतरी , यह सहज सुभाव।।
- नहीं नैक निज दुख-सुख की सुधि , नहीं राग नहिं रोष।
- नहीं अहित-हित की चिंता कछु, नहिं बिराग लखि दोष।।
- सर्ब-त्याग अति सहज, नहीं कछु मद-ममता-अभिमान।
- तन-मन प्रान-बुद्धि सब प्रियतम, जीवन-मरन समान।।
- बिधि-निषेध कौ नहिं बिबेक कछु, नहीं बोध आचार।
- प्यारौ जो करवावै साई करै, न अन्य बिचार।।
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