श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवत्प्रेमसम्बन्धी कुछ बातेंआप के तीन पत्र मिले। बदले में क्या लिखूँ, कुछ समझ में नहीं आया। अतः पत्र का उत्तर न लिखकर जो कुछ मन में आता है, लिख रहा हूँ। मैं नहीं जानता आप की आध्यात्मिक स्थिति कैसी है। ठीक अनुमान भी नहीं लगा सकता। मैं जो कुछ लिखता हूँ, वह यदि आपकी स्थिति से निम्र स्तर के साधकों के काम की बात हो तो आप केवल पढ़कर छोड़ दें। आपके लिये उपकयोगी हो तो उस पर विचार करें। यद्यपि मैंने बहुत ऊँची स्थिति का अनुभव नहीं किया है, तथापि भगवत्प्रेम के मार्ग की कुछ बातें सोचना-कहना किसी-न-किसी सूत्र मैं जान गया हूँ। उसी के आधार मर मेरा यह लिखना है। जहाँ तक मेरा विश्वास है- मैं जो कुछ लिखता हूँ, वह ठीक है। भगवत्प्रेम के मार्ग पर चलने वाले इस पर विचार कर सकते हैं। भगवत्प्रेम के पथिकों का एकमात्र लक्ष्य होता है-भगवत्प्रेम। वे भगवत्प्रेम को छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहते- यदि प्रेम में बाधा आती दीखे तो भगवान के साक्षात् मिलन की भी अवहेलना कर देते हैं, यद्यपि उनका हृदय मिलन के लिये आतुर रहता है। जगत का कोई भी पार्थिव पदार्थ, कोई भी विचार, कोई भी मनुष्य, कोई भी स्थिति, कोई भी सम्बन्ध, कोई भी अनुभव उनके मार्ग में बाधक नहीं हो सकता। वे सबका अनायास- बिना ही किसी संकोच, कठिनता, कष्ट और प्रयास के त्याग कर सकते हैं। संसार के किसी भी पदार्थ में उनका आकर्षण नहीं रहता। कोई भी स्थिति उनकी चित्त भूमि पर आकर नहीं टिक सकती, उनको और नहीं खींच सकती। शरीर का मोह मिट जाता है। उनका सारा अनुराग, सारा ममत्व, सारी आसक्ति, सारी अनुभूति, सारी विचार धारा, सारी क्रियाएँ एक ही केन्द्र में आकर मिल जाती हैं; वह केन्द्र होता है केवल भगवत्प्रेम- वैसे ही जैसे विभिन्न पथों से आने वाली नाना नदियाँ एक समुद्र में आकर मिलती हैं। शरीर के सम्बन्ध, शरीर का रक्षण-पोषण भाव, शरीर की आसक्ति,(अपने या पराये) शरीर में आकर्षण, (अपने या पराये) शरीर की चिन्ता-सब वैसे ही मिट जाते हैं जैसे सूर्य के उदय होने पर अन्धकार। ये तो बहुत पहले मिट जाते हैं। विषय- वैराग्य, काम-क्रोधदिका नाश, विषाद-चिन्ता का अभाव, अज्ञानान्धकार का विनाश भगवत्प्रेम-मार्ग के अवश्यम्भावी लक्षण हैं! भगवत्प्रेम का मार्ग सर्वथा पवित्र, मोहशून्य, सत्त्वमय, अव्यभिचारी, त्यागमय और विशुद्ध होता है। भगवत्प्रेम की साधना अत्यन्त बढ़े हुए सत्त्वगुण में ही होती है। उस में दीखने वाले काम क्रोध, विषाद, चिन्ता, मोह आदि तामसिक वृत्त्तियों के परिणाम नहीं होते, वे तो शुद्ध सत्त्व की ऊँची अनुभूतियाँ होती हैं, जिनका स्वरूप बतलाया नहीं जा सकता। भूल से लोग अपने तामस विकारों को उनकी श्रेणी में ले जाकर ‘प्रेम’ नाम को कलंक्ति करते हैं। |
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