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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधाभाव की एक झाँकी
भक्त हृदय वृत्रासुर ने मरते समय श्रीभगवान् से प्रार्थना की— ‘हे सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर इन्द्रपद, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम— सारी पृथ्वी का एकछत्र राज्य, पाताल का एकाधिपत्य, योग की सिद्धियाँ और अपुनर्भव— मोक्ष भी नहीं चाहता। जैसे पक्षियों के बिना पाँख उगे बच्चे अपनी माँ चिड़िया की बाट देखते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ गैया का दूध पीने के लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी प्रियतमा पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिये छटपटाती रहती है, वैसे ही कमलनयन! मेरा मन आपके दर्शन के लिये छटपटा रहा है।’ उपर्युक्त वाक्य भगवत्प्रेमी के हृदय की त्यागमयी अभिलाषा के स्वरूप को व्यक्त करते हैं। भगवत्प्रेमी सर्वथा निष्काम होता है। प्रेम में किसी भी स्व-सुख की कामना को स्थान नहीं है। प्रेमी देना जानता है, लेना जानता ही नहीं। प्रेमास्पद के सुख के लिये उसका सहज जीवन है, उसके जीवन का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक विचार और प्रत्येक कल्पना है। प्रेमास्पद प्रभु को सुखी बनानी वाली सेवा ही उसके जीवन का स्वभाव है। उसको छोड़कर वह संसार के— इहलोक, परलोक के बड़े-से-बड़े भोग की तो बात ही क्या, पाँच प्रकार की मुक्तियाँ देने पर भी स्वीकार नहीं करता— |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 6। 11। 25-26
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