श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
बिखरे सुमन1- भगवान के कर्म भगवान के स्वरूप से भिन्न नहीं हैं। इसीलिये भगवान के कर्मों का नाम कर्म नहीं, लीला है। लीला सच्चिदानन्दस्वरूप का चित्स्वरूपविलास है। जैसे समुद्र की तरंगें समुद्र के ही विलास हैं, वैसे चिद्-घन-सिन्धु भगवान की लीला चित्स्वरूप के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अखिल ब्रह्माण्डपालक होकर भी वे अपने असीम ऐश्वर्य का तनिक-सा भी प्रकाश न करके साधारण बालकों के साथ ठीक बालक होकर खेलते हैं। पर ऐसा नहीं मानना चाहिये कि वे कोई दम्भ करते हैं; वे सचमुच ही खेलते हैं, सचमुच ही उन्हें इसमें आनन्द मिलत है। आनन्द को आनन्द देना, आनन्दमय में आनन्द की कामना - स्पृहा उत्पन्न करना, यह प्रेमी भक्तों का ही काम है। आनन्द का रस लेने के लिये ही भगवान वात्सल्य, सख्य, मधुर आदि रसों की प्रेमी भक्तों के अनुरूप लीला करते हैं। अप्राकृत की लीला अप्राकृत है, पर देखने में प्राकृत-सी है। प्रेमी भक्तों को सुख हो, भगवान उसी प्रकार की लीलाएँ करते हैं। प्रेमियों के सुख में उन्हें सुख होता है। उनके श्रीकृष्ण आदि अवतारों की लीलाएँ नयी नहीं हैं; वे तो नित्य होता है और नित्य होती रहेंगी - यह नहीं कि पहले नहीं थीं, अब प्रकट हुई हैं। भगवान जिस प्रकार नित्य हैं, उसी प्रकार उनकी लीलाएँ भी नित्य हैं। इनमें मायिक जगत् का काम नहीं। जो भक्त इनमें आनन्द लेते हैं, वास्तविक रूप में वे ही भाग्यवान् हैं। |
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