श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
उपनिषद् में युगल-स्वरूपभारत के आर्य सनातन धर्म में जितने भी उपासक-सम्प्रदाय हैं, सभी विभिन्न नाम-रूपों तथा विभिन्न उपासना-पद्धतियों के द्वारा वस्तुतः एक ही शक्तिसमन्वित भगवान की उपासना करते हैं; अवश्य ही केाई तो शक्ति को स्वीकार करते हैं और कोई नहीं करते। भगवान के इस शक्तिसमन्वित रूप को ही युगल-स्वरूप कहा जाता है। निराकारवादी उपासक भगवान को सर्वशक्तिमान बाताते हैं और साकारवादी भक्त उमा-महेश्वर, लक्ष्मी-नारायण, सीता-राम, राधा-कृष्ण आदि मंगलमय स्वरूपों में उनका भजन करते हैं। महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, दुर्गा, तारा, उमा, अन्नपूर्णा, सीता राधा आदि स्वरूप एक ही भगवत्स्वरूपा शक्ति हैं, जो लीलावैचित्र्य की सिद्धि के लिये विभिन्न रूपों में अपने-अपने धामविशेष में नित्य विराजित हैं। यह शक्ति नित्य शक्तिमान के साथ है और शक्ति है, इसी से वह शक्तिमान् है और इसलिये वह नित्य युगलस्वरूप है। पर यह युगलस्वरूप वैसा नहीं है, जैसे दो परस्पर-निरपेक्ष सम्पूर्ण स्वतन्त्र व्यक्ति या पदार्थ किसी एक स्थान पर स्थित हों। ये वस्तुतः एक होकर ही पृथक-पृथक प्रतीत होते हैं। इनमें से एक का त्याग कर देने पर दूसरे के अस्तित्व का परिचय नहीं मिलता। वस्तु और उसकी शक्ति, तत्त्व और उसका प्रकाश, विशेष्य और उसके विशेषसमूह, पद और उसका अर्थ, सूर्य और उसका तेज, अग्नि और उसका दाहकत्व-इनमें जैसे नित्य युगलभाव विद्यमान है, वैसे ही ब्रह्म में भी युगलभाव हैं ब्रह्म और उनकी शक्ति नित्य दो होकर भी नित्य एक हैं और नित्य एक होकर भी नित्य दो हैं; वे नित्य भिन्न होकर भी नित्य अभिन्न हैं और नित्य अभिन्न होकर भी नित्य भिन्न हैं; वे एक में ही सदा दो हैं और दो में ही सदा एक हैं तथा स्वरूपतः एक होकर भी द्वैधभाव के पारस्परिक सम्बन्ध के द्वारा ही अपना परिचय देते और अपने को प्रकट करते हैं। यह एक ऐसा रहस्यमय परम विलक्षण तत्त्व है कि दो अयुतसिद्ध रूपों में ही उसके स्वरूप का प्रकाश होता है, उसका परिचय प्राप्त होता है और उसकी उपलब्धि होती है। वेदमूलक उपनिषद् में ही इस युगल-स्वरूप का प्रथम और स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है। उपनिषद् जिस परम तत्त्व का वर्णन करते हैं, उसके मुख्यतया दो स्वरूप है- एक ‘सर्वातीत’ और दूसरा ‘सर्वकारणात्मक’। सर्वकारणात्मक स्वरूप के द्वारा ही सर्वातीत का संधान प्राप्त होता है और सर्वातीत स्वरूप की सर्वकारणात्मक स्वरूप का आश्रय है। सर्वातीत स्वरूप को छोड़ दिया जाय तो जगत् की कार्य-कारण श्रृंखला ही टूट जाय, उसमें अप्रतिष्ठा और अनवस्था का दोष आ जाय। फिर जगत् के किसी मूल का ही पता न लगे और सर्वकाणात्मक स्वरूप को न माना जाय, तो सर्वातीत की सत्ता कहीं न मिले। वस्तुतः ब्रह्म की अद्वैतपूर्ण सत्ता इन दोनों स्वरूपों को लेकर ही है। |
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