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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
‘मधुर स्वर सुना दो!’प्यारे व्रजेन्द्र-नन्दन! तुम्हारी विश्व-जन-मोहिनी मुरली के मधुर स्वर में कितनी मादकता है! जिस-किसी के कर्णरन्ध्र में एक बार भी यह स्वर प्रवेश कर जाता है, उसी को तुरंत पागल बना देता है। वह फिर संसार के विषय जन्य मन्द रसों को विस्मृत कर एक दिव्य रस का आस्वाद पाता है। लज्जा-संकोच, धैर्य-गाम्भीर्य, कुल-मान, लोक-परलोक-सभी कुछ भूल जाता है। उसके लिये तुच्छ पार्थिव विलास रस सम्पूर्ण रूप से विनष्ट होकर एक अपूर्व स्वर्गीय अलौकिक रस का प्रादुर्भाव हो उठता है, उसकी चित्त-वृत्तियों की सारी विभिन्न गतियाँ रुक जाती हैं और वे सब-की-सब एक भाव से, एक ही लक्ष्य की ओर, एक ही गति से प्रवाहित होने लगती हैं। एक ऐसा नशा शरीर-मन पर छा जाता है कि फिर जीवन भर वह कभी उतरता ही नहीं; जब कभी उतरता है तो ‘अहम्’ को लेकर ही उतरता है। ऐसे ही नशे में चूर भाग्यवती व्रज-बालाओं ने कहा था-
- रसखानि |
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