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विखरे सुमन
1- प्रेम एक में ही होता है और वह भगवान में ही होना सम्भव है। प्रेम का वास्तविक अर्थ ही है-भगत्प्रेम।
2- वस्तुतः ‘प्रेम’ शब्द तभी सार्थक होता है, जब वह श्री भगवान में होता है।
3- विशुद्ध प्रेम, निःस्वार्थ प्रेम, उज्ज्वल प्रेम जब होगा, तब भगवान में ही होगा और ऐसा होने पर सारा ममत्व सब ओर से सिमटकर एक भगवान में ही लग जाता है।
4- जब भगवान के प्रति प्रेम होने लगता है, तब दूसरी समस्त वस्तुओं से प्रेम हटने लगता है- यह नियम है। और प्रेम हो जाने पर तो प्रेमी सबकी सुधि ही भूल जाता है। वह तो प्रेम ही कहता है, प्रेम ही सुनता है, प्रेम ही देखता है और चारों ओर से प्रेम- का अनुभव करता है।
5- प्रेम की पूर्णता कभी होती ही नहीं। मुझे पूर्ण प्रेम प्राप्त हो गया, इस प्रकार का अनुभव कभी करता ही नहीं।
6- प्रेमी को अपने प्रेम में सदा कमी का अनुभव होता है।
7- प्रेम की कोई सीमा नहीं है।
8- प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता है, निरन्तर बढ़ने रहना उसका स्वरूप है।
9- प्रेम कहीं भी रुकता नहीं।
10- प्रेम में सब कुछ अर्पण हो जाता है, यहाँ तक कि प्रेमी स्वयं भी प्रेमास्पद के अर्पित हो जाता है। सम्पूर्ण त्याग या सम्पूर्ण समर्पण ही प्रेम का स्वभाव है।
11- जो प्रेम दूसरी-दूसरी वस्तुओं में बँटा हुआ है वह प्रेम वस्तुतः प्रेम ही नहीं है।
12- प्रेम वाणी का विषय नहीं है।
13- प्रेम रहता है मन में और मन अपने वश में रहता नहीं, वह रहता है प्रेमास्पद के वश में। प्रेम का यह साधारण नियम है।
14- प्रेमी के मन पर उसका कोई अधिकार नहीं रहता। मन, बुद्धि, प्राण, आत्मा-सब पर अधिकार हो जाता है प्रेमास्पद श्री भगवान का।
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