श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा की प्रेम-साधना और उनका अनिर्वचनीय स्वरूप
सं. 2014 वि. के श्रीराधाष्टमी-महोत्सव पर रतनगढ़ (राजस्थान) में दिया हुआ प्रवचन
जगज्जननी श्रीकृष्ण स्वरूपा भगवती श्रीराधा बहुत-से लोगों के लिये एक विलक्षण पहेली बनी हुई हैं। और श्रीराधा के अनिर्वचनीय तत्त्व-रहस्य को जब तक कोई जान नहीं लेगा, तब तक उसके लिये ये पहेली ही बनी रहेंगी; क्योंकि ये साधन-राज्य की सर्वोच्च सीमा का साधन तथा सिद्ध-राज्य में समस्त पुरुषार्थों में परम और चरम पुरुषार्थ मय हैं। गोपी-रहस्य ही परम गुह्य है, फिर राधाजी की तो बात ही क्या है। लोगों की समझ में ही नहीं आ सकता कि मोक्ष तक की आकांक्षा न रखकर, भगवान से अपने लिये कभी कुछ भी चाहने की इच्छा न रखकर भगवान् से प्रेम करने का क्या अभिप्राय हो सकता है? जिस भगवान की भक्ति करें या जिससे प्रेम करें, उससे अपने लिये कभी कुछ भी न चाहें- यह कैसी भक्ति! और फिर यह और भी आश्चर्य की बात है कि इस भक्ति या प्रेम में सर्वविध श्रृंगार तथा भोग प्रत्यक्ष देखने-सुनने में आते हैं। यद्यपि उस श्रृंगार-भोग से गोपियों का अपना कुछ भी सम्पर्क नहीं है- केवल प्रियतम श्रीकृष्ण-सुखेच्छा में ही उनके जीवन के प्रत्येक श्वास का, मन की प्रत्येक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वृत्तिका और शरीर की प्रत्येक क्रिया का प्रयोग और उपयोग सहज ही होता है, तथापि इस प्रकार परम त्याग तथा समस्त भोगों का एक साथ रहना लोगों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न कर देता है और पहेली और भी दुरूह हो जाती है। |
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