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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 123
बहिन सुधामुखी ने श्रृंगार-विषय संबंधी अमृतोपम वचन की ओर ध्यान आकर्षित किया। कमला ने शीघ्र ही कमल और चम्पा के चंदन चर्चित पत्ते पर कोमल रति-शय्या सजायी। स्वयं सती चम्पावती ने चम्पा के सुंदर पुष्प को चंदन से अनुलिप्त करके श्रीकृष्ण के लिए दोनों में सजाकर रखा। फिर उसने श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए केलि-कदम्बों का पुष्प, मनोहर स्तवक (गुलदस्ता) और कदम्ब-पुष्पों की माला तैयार की। कृष्णप्रिया ने श्रीकृष्ण के लिए कपूर आदि से सुवासित श्रेष्ठ एवं रुचिर पान तथा सुगन्धित जल उपस्थित किया। इसी समय देवताओं तथा मुनियों ने देखा कि जल स्थल सहित सारा आश्रम गोरोचन के समान उद्भासित हो रहा है। उस समय तीनों लोकों में वास करने वाले सभी लोगों ने राधिका के दर्शन किए। जिनके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पक के समान परम मनोहर एवं अनुपम है; जो ऊर्ध्वरेता मुनियों के भी मनों को मोह में डाल देती हैं; जो सुंदर केशोवाली, सुंदरी, षोडशवर्षीया और वटवृक्ष के नीचे मण्डल में वास करने वाली हैं। जिनका मुख करोड़ों चंद्रमाओं की छबि को छीने लेता है; जो सदा मुस्कराती रहती हैं, जिनके दाँत बड़े सुंदर हैं; जिनके शरत्कालीन कमल के समान विशाल नेत्र कज्जल से सुशोभित रहते हैं; जो महालक्ष्मी, बीजरूपा, परमाद्या, सनातनी और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठातृदेवता हैं; परमात्मा की प्राप्ति के लिए जिनकी स्तुति-पूजा की जाती है; जो परा, ब्रह्मस्वरूपा निर्लिप्ता, नित्यरूपा, निर्गुणा, विश्व के अनुरोध से प्रकृति, भक्तानुग्रहमूर्ति, सत्यस्वरूपा, शुद्ध, पवित्र, पतित-पावनी, उत्तम तीर्थों को पावन करने वाली, सत्कीर्तिसंपन्ना, ब्रह्मा की भी विधाती, महाप्रिया, महती, महाविष्णु की माता, रासेश्वर की स्वामिनी, सुंदरी नायिका, रसिकेश्वरी, अग्निशुद्ध वस्त्र धारण करने वाली, स्वच्छारूपा और मंगल की आलय हैं; सात गोपियाँ श्वेत चँवर डुलाकर जिनकी निरन्तर सेवा करती रहती हैं, चार प्यारी सखियाँ जिनके चरणकमल की सेवा में तत्पर रहती हैं, अमूल्य रत्नों बने हुए आभूषण जिनकी शोभा बढ़ा रहे हैं, दोनों मनोहर कुण्डलों से जिनके कर्ण और कपोल उद्भासित हो रहे हैं और जिनकी सुंदर नासिका में गजमुक्ता लटक रही है, जो गरुड़ की चोंच का उपहास करने वाली है; जिनका शरीर कुंकुम कस्तूरीमिश्रित सुस्निग्ध चंदन से चर्चित है, जिनके कपोल सुंदर और अंग कोमल हैं; जो कामुकी, गजराज की सी चालवाली, कमनीया एवं सुंदरी नायिका, कामदेव के अस्त्र की विजय स्वरूपा, काम की कामना का लय करने वाली तथा श्रेष्ठ हैं; जिनके हाथ में प्रफुल्ल क्रीड़ा कमल, पारिजात का पुष्प और अमूल्य रत्नजटित स्वच्छ दर्पण शोभा पाते हैं; जो नाना प्रकार के रत्नों की विचित्रता से युक्त रत्नसिंहासन पर विराजमान होती हैं, जो परमात्मा श्रीकृष्ण के पद्मा द्वारा समर्चित मंगल रूप चरणकमल का अपने हृदय कमल में ध्यान करती रहती हैं तथा मन-वचन-कर्म से स्वप्न अथवा जाग्रत काल में श्रीकृष्ण की प्रीति और प्रेम सौभाग्य का नित्य नूतन रूप में स्मरण करती रहती हैं; जो प्रगाढ़ भावानुरक्त, शुद्धभक्त, पतिव्रता, धन्या, मान्या, गौरवर्णा, निरन्तर श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर वास करने वाली, प्रियाओं तथा प्रिय भक्तों में परम प्रिय, प्रियवादिनी, श्रीकृष्ण के वामांग से आविर्भूत, गुण और रूप में अभिन्न, गोलोक में वास करने वाली, देवाधिदेवी, सबके ऊपर विराजमान, गोपीश्वरी, गुप्तिरूपा, सिद्धिदा, सिद्धिरूपिणी, ध्यान द्वारा असाध्य, दुराराध्य, सद्भक्तों द्वारा वन्दित और पुण्यक्षेत्र भारत में वृषभानु नन्दिनी के रूप में प्रकट हुई हैं; उन राधा की मैं वन्दना करता हूँ। जो ध्यानपरायण मानव समाधि अवस्था में ध्याननिष्ठ हो राधा का ध्यान करते हैं; वे इस लोक में तो जीवन्मुक्त हैं ही, परलोक में श्रीकृष्ण के पार्षद होते हैं। तदनन्तर लोकों के विधाता स्वयं ब्रह्मा ने ब्रह्माओं की जननी परमेश्वरी राधा को देखकर सर्वप्रथम स्तुति करना आरंभ किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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