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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 102
तत्पश्चात गुरुपत्नी बोलीं- प्रभो! आज मेरा जन्म, जीवन, पातिव्रत्य तथा तपोवन का वास सफल हो गया। मैंने जिस हाथ से तुम्हें इच्छित अन्न प्रदान किया है, वह मेरा दाहिना हाथ सफल हो गया। जो आश्रम तीर्थपाद भगवान के चरण से चिह्नित है; वह तीर्थ से भी बढ़कर है। उनकी चरणरज से गृह पावन और आँगन उत्तम हो जाते हैं। तुम्हारा चरणकमल हम दोनों के जन्म-मरण का निवारक है; क्योंकि दुःख, शोक, भोग, रोग, जन्म, कर्म, भूख-प्यास आदि तभी तक कष्टप्रद होते हैं, जब तक तुम्हारे चरण-कमल का दर्शन और भजन नहीं होता[1]। हे भगवान! तुम काल के भी काल, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और संहारकारक शिव के भी ईश्वर तथा माया-मोह के विनाशक हो। कृपानाथ! मुझ पर कृपा करो। इतना कहते-कहते गुरुपत्नी के नेत्रों में आँसू छलक आये। वे पुनः श्रीकृष्ण को अपनी गोद में लेकर प्रेमपूर्वक देवकी की तरह अपना स्तन पिलाने लगीं। तब श्रीकृष्ण ने कहा- माता! तुम मुझ बालक की स्तुति कैसे कर रही हो; क्योंकि मैं तो तुम्हारा दुधमुँहा बच्चा हूँ। अच्छा, अब तुम इस प्राकृतिक मिथ्या नश्वर शरीर को त्यागकर और जन्म, मृत्यु एवं बुढ़ापे का हरण करने वाले निर्मल देह को धारण करके अपने पतिदेव के साथ अभीष्ट गोलोक को जाओ। यों कहकर श्रीकृष्ण ने एक ही महीने में परम भक्ति के साथ मुनिवर सांदीपनि से चारों वेदों का अध्ययन करके पूर्वकाल में मरे हुए उनके पुत्र को वापस लाकर उन्हें समर्पित कर दिया। फिर लाखों-लाखों मणि, रत्न, हीरे, मोती, माणिक्य, त्रैलोक्य दुर्लभ वस्त्र, हार, अँगूठियाँ और सोने की मुहरें दक्षिणा में दीं। तत्पश्चात स्त्री के सर्वांग में पहनने योग्य अमूल्य रत्नों के बने हुए आभूषण और अग्निशुद्ध श्रेष्ठ वस्त्र गुरुपत्नी को प्रदान किये। तदनन्तर मुनि वह सब समान अपने पुत्र को देकर स्वयं पत्नी के साथ अमूल्य रत्न-निर्मित रथ पर सवार हो उत्तम गोलोक को चले गये। उस अद्भुत दृश्य को देखकर श्रीकृष्ण हर्षपूर्वक अपने गृह को लौट गये। नारद! इस प्रकार ब्रह्मण्यदेव भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र को श्रवण करो। यह स्तोत्र महान पुण्यदायक है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, उसकी निःसंदेह श्रीकृष्ण में निश्चल भक्ति हो जाती है। इसके प्रभाव से कीर्तिहीन परम यशस्वी और मूर्ख पण्डित हो जाता है। वह इस लोक में सुख भोगकर अंत में श्रीहरि के पद को प्राप्त होता है। वहाँ उसे नित्य श्रीहरि की दासता सुलभ रहती है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तावद दुःखं च शोकश्च तावद भोगश्च रोगकः। तावज्जन्मानि कर्माणि क्षुत्पिपासादिकानि च। यावत्त्वत्पादपद्मस्य भजनं नास्ति दर्शनम्।। (102। 19-20)
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