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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 91-92
संहाररूपिणी को नमस्कार और महामारी को पुनः पुनः नमस्कार। भया, अभया और मुक्तिदाता को नमस्कार-नमस्कार। स्वधा, स्वाहा, शान्ति और कान्ति को बारंबार नमस्कार। तुष्टि, पुष्टि और दया को पुनः-पुनः नमस्कार। निद्रास्वरूपा को नमस्कार-नमस्कार। श्रद्धा को बार-बार नमस्कार। क्षुत्पिपासास्वरूपा और लज्जा को बारंबार नमस्कार। धृति, चेतना और क्षमा को बारंबार नमस्कार। जो सबकी माता तथा सर्वशक्तिस्वरूपा हैं; उन्हें नमस्कार-नमस्कार। अग्नि में दाहिका-शक्ति के रूप में विद्यमान रहने वाली देवी और भद्रा को पुनः-पुनः नमस्कार। जो पूर्णिमा के चंद्रमा में और शरत्कालीन कमल में शोभारूप से वर्तमान रहती हैं; उन शोभा को नमस्कार-नमस्कार। देवि! जैसे दूध और उसकी धवलता में, गन्ध और भूमि में, जल और शीतलता में, शब्द और आकाश में तथा सूर्य और प्रकाश में कभी भेद नहीं है, वैसे ही लोक, वेद और पुराण में- कहीं भी राधा और माधव में भेद नहीं है; अतः कल्याणि! चेत करो। सति! मुझे उत्तर दो। यों कहकर उद्धव वहाँ उनके चरणों में पुनः पुनः प्रणिपात करने लगे। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस उद्धवकृत स्तोत्र का पाठ करता है; वह इस लोक में सुख भोगकर अंत में वैकुण्ठ में जाता है। उसे बन्धुवियोग तथा अत्यंत भयंकर रोग और शोक नहीं होते। जिस स्त्री का पति परदेश गया होता है, वह अपने पति से मिल जाती है और भार्यावियोगी अपनी पत्नी को पा जाता है। पुत्रहीन को पुत्र मिल जाते हैं, निर्धन को धन प्राप्त हो जाता है, भूमिहीन को भूमि की प्राप्ति हो जाती है, प्रजाहीन प्रजा को पा लेता है, रोगी रोग से विमुक्त हो जाता है, बँधा हुआ बन्धन से छूट जाता है, भयभीत मनुष्य भय से मुक्त हो जाता है, आपत्तिग्रस्त आपद से छुटकारा पा जाता है और अस्पष्ट कीर्तिवाला उत्तम यशस्वी तथा मूर्ख पण्डित हो जाता है[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्धव उचाच-
वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम्। यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम्॥
नमो गोलोकवासिन्यै राधिकायै नमो नमः। शतश्रृंगनिवासिन्यै चंद्रवत्यै नमो नमः।।
तुलसीवनवासिन्यै वृन्दारण्यै नमो नमः। रासण्डलवासिन्यै रासेश्वर्यै नमो नमः।।
विरजातीरवासिन्यै वृन्दायै च नमो नमः। वृन्दावनविलासिन्यै कृष्णायै च नमो नमः।।
नमः कृष्णप्रियायै च शान्तायै च नमो नमः। कृष्णवक्षः स्थितायै च तत्प्रियायै नमो नमः।।
नमो वैकुण्ठवासिन्यै महालक्ष्म्यै नमो नमः। विद्याधिष्ठातृदैव्यै च सरस्वत्यै नमो नमः।।
सर्वैश्वर्याधदेव्यै च कमलायै नमो नमः। पद्मनाभप्रियायै च पद्मायै च नमो नमः।।
महाविष्णोश्च मात्रे च पराद्यायै नमो नमः। नमः सिन्धुसुतायै च मर्त्यलक्ष्म्यै नमो नमः।।
नारायणप्रियायै च नारायण्यै नमो नमः। नमोऽस्तु विष्णुमायायै वैष्णव्यै च नमो नमः।।
महामायास्वरूपायै सम्पदायै नमो नमः। नमः कल्याणरूपिण्यै शुभायै च नमो नमः।।
मात्रे चतुर्णां वेदानां सावित्र्यै च नमो नमः। नमो दुर्गविनाशिन्यै दुर्गादेव्यै नमो नमः।।
तेजःसु सर्वदेवानां पुरा कृतयुगे मुदा। अधिष्ठानकृतायै च प्रकृत्यै च नमो नमः।।
नमस्त्रिपुरहारिण्यै त्रिपुरायै नमो नमः। सुंदरीषु च रम्यायै निर्गुणायै नमो नमः।।
नमो निद्रास्वरूपायै निर्गुणायै नमो नमः। नमो दक्षसुतायै च नमः सत्यै नमो नमः।।
नमः शैलसुतायै च पार्वत्यै च नमो नमः। नमो नमस्तपस्विन्यै ह्युमायै च नमो नमः।।
निराहारस्वरूपायै ह्यपार्णायै नमो नम: ।गौरी लोक विलासिन्यै नमो गौर्यैं नमो नम;।।
नमः कैलासवासिन्यै माहेश्वर्यै नमो नमः। निद्रायै च दयायै च श्रद्धायै च नमो नमः।।
नमो धृत्यै क्षमायै च लज्जायै च नमो नमः। तृष्णायै क्षुत्स्वरूपायै स्थितिकर्त्र्यै नमो नमः ।।
नमः संहाररूपिण्यै महामार्यै नमो नमः। भयायै चाभयायै च मुक्तिदायै नमो नमः।।
नमः स्वधायै स्वाहायै शान्त्यै कान्त्यै नमो नमः। नमस्तुष्ट्यै च पुष्ट्यै च दयायै च नमो नमः।।
नमो निद्रास्वरूपायै श्रद्धायै च नमो नमः। क्षुत्पिपासास्वरूपायै लज्जायै च नमो नमः।।
नमो धृत्यै क्षमायै च चेतनायै नमो नमः। सर्वशक्तिस्वरूपिण्यै सर्वमात्रे नमो नमः।।
अग्नौ दाहस्वरूपायै भद्रायै च नमो नमः। शोभायै पूर्णचन्द्रे च शरत्पद्मे नमो नमः।।
नास्ति भेदो यथा देवि दुग्धधावल्ययोः सदा। यथैव गन्धभूम्योश्च यथैव जलशैत्ययोः।।
यथैव शब्दनभसोर्ज्योतिः सूर्यकयोर्यथा। लोके वेदे पुराणे च राधामाधवयोस्तथा।।
चेतनं कुरु कल्याणि देहि मामुत्तरं सति। इत्युक्त्वा चोद्धवस्तत्र प्रणनाम पुनः पुनः।।
इत्युद्धवकृतं स्तोत्रं यः पठेद् भक्तिपूर्वकम्। इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते हरिमन्दिरम्।।
न भवेद् बन्धुविच्छेदो रोगः शोकः सुदारुणः। प्रोषिता स्त्री लभेत् कान्तं भार्याभेदी लभेत् प्रियाम्।।
अपुत्रो लभते पुत्रान् निर्धनो लभते धनम्। निर्भूमिर्लभते भूमिं प्रजाहीनो लभेत् प्रजाम्।।
रोगाद् विमुच्यते रोगी बद्धो मुच्येत बन्धनात्। भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापत्र आपदः।।
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः।। (92।63-93)
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