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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 86
स्त्रियों का सुन्दर मुख, दोनों नितम्ब तथा स्तन काम-वासना के आधार, नाश के कारण और अधर्म के स्थान हैं। जो लार और मूत्र से संयुक्त है, जिसमें से दुर्गन्ध निकलती है, जो पाप तथा यमदण्ड का कारण है, स्त्रियों का वह मूत्रस्थान (योनि) नरक कुण्ड के सदृश है। ब्राह्मण! एकान्त देखकर जो तुम मेरी धर्षणा करना चाहते हो तो यहीं समस्त देवता, लोकपाल, कर्मों के शासक तथा साक्षी जाज्वल्यमान धर्म, स्वयं श्रीहरि द्वारा नियुक्त दण्डकर्ता, यमराज, स्वयं धर्मात्मा श्रीकृष्ण, ज्ञानरूपी महेश्वर, दुर्गा, बुद्धि, मन, ब्रह्मा, इन्द्रियाँ तथा देवगण उपस्थित हैं। ये संपूर्ण प्राणियों में उनके कर्मों के साक्षीरूप से वर्तमान रहते हैं; अतः अज्ञानी ब्राह्मण! कौन सा स्थान गुप्त है और कौन सा रहस्मय? विप्र! तुम्हारा कल्याण हो। मुझे क्षमा कर दो और जाओ। मैं तुम्हें भस्म कर डालने में समर्थ हूँ; परंतु ब्राह्मण अवध्य होते हैं। अतः वत्स! तुम सुखपूर्वक यहाँ से चले जाओ। द्विज! तपस्या करते हुए मुझे एक सौ आठ युग बीत गये। अब न तो मेरे पिता का गोत्र ही रह गया है और न मेरे माता-पिता ही हैं। सबके अन्तरात्मास्वरूप भगवान श्रीकृष्ण मेरी रक्षा करते हैं। श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित धर्म नित्य मेरी रक्षा में तत्पर है। सूर्य, चंद्रमा, पवन, अग्नि, ब्रह्मा, शम्भु, भगवती दुर्गा- ये सभी सदा मेरी देखभाल करते हैं। जिन्होंने हंसों को श्वेत, शुकों को हरा और मयूरों को रंग-बिरंगा बनाया है; वे ही मेरी रक्षा करेंगे। सभी देवता अनाथों, बालकों तथा वृद्धों की सर्वदा रक्षा करते हैं, अतः नारी समझकर धर्म मेरा परित्याग करके नहीं जा सकते। इसके बाद श्रीवृन्द ने पतिव्रत-धर्म की महिमा और दुराचार की निन्दा करके कोप प्रकाश पूर्वक शाद दे दिया- ‘दुराचार! तुम्हारा नाश हो जाय। पापिष्ठ! तुम नष्ट हो जाओ।’ इतना कहकर जब पुनः शाप देने को उद्यत हुई तब स्वयं सूर्य ने उसे यत्न करके रोक दिया। इसी बीच वहाँ ब्रह्मा, शिव, सूर्य और इंद्र आदि देवता आ पहुँचे। सबने उससे क्षमा माँगी और ‘धर्म तुम्हारी परीक्षा के लिए आया था। उसमें तनिक भी पापबुद्धि नहीं थी। धर्म के नाश से जगत के सनातनधर्म रूप जीवन का नाश हो जाएगा’ यह कहकर धर्म को जीवनदान देने की प्रार्थना की। तब वृन्दा ने कहा- देव! मैं नहीं जानती थी कि ये ब्राह्मणवेशषधारी धर्म हैं और मेरी परीक्षा करने के लिए आये हैं। इसी कारण मैंने क्रोधवश इनका नाश किया है। अब आप लोगों की कृपा से मैं अवश्य धर्म को जीवन-दान दूँगी। व्रजेश्वर! यों कहकर वह वृन्दा पुनः बोली- ‘यदि मेरी तपस्या सत्य हो तथा मेरा विष्णुपूजन सत्य हो तो उस पुण्य के प्रभाव से ये विप्रवर यहाँ शीघ्र ही दुःखरहित हो जायँ। यदि मुझमें सत्य वर्तमान हो और मेरा व्रत सत्य तथा तप शुद्ध हो तो उस पुण्य तथा सत्य के प्रभाव से ये ब्राह्मण कष्टरहित हो जायँ। यदि नित्यमूर्ति सर्वात्मा नारायण तथा ज्ञानात्मक शिव सत्य हैं तो ये द्विजवर संतापरहित हो जायँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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