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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 30
श्रीकृष्ण कहते हैं– मुनि का यह स्तोत्र सुनकर भक्तवत्सल भगवान शंकर स्वयं ही अपने भक्त ब्राह्मण से बोले। शंकर जी ने कहा– मुनिश्रेष्ठ! धैर्य धारण करो। मैं तुम्हारी इच्छा को जानता हूँ; अतः सत्य कहता हूँ। तुम्हें मेरे अंश से मेरे ही समान पुत्र प्राप्त होगा। इसके लिये मैं तुम्हें एक ऐसा मन्त्र दूँगा, जिसकी कहीं तुलना नहीं है तथा जो सबके लिये परम दुर्लभ है। यों कहकर भगवान शिव ने असित मुनि को वहीं षोडशाक्षर मन्त्र, स्तोत्र, पूजाविधि, परम अद्भुत ‘संसार-विजय’ नामक कवच तथा पुरश्चरण का उपदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि ‘इस मन्त्र की इष्टदेवी तुम्हें वर देने के लिये प्रत्यक्ष दर्शन देंगी।’ यों कहकर रुद्रदेव चुप हो गये और असितमुनि उन्हें नमस्कार करके चले गये। उन्होंने सौ वर्षों तक उस उत्कृष्ट मन्त्र का जप किया। सती राधिके! तदनन्तर तुमने ही मुनि को प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्हें वर दिया– ‘वत्स! तुम्हें निश्चय ही महाज्ञानी पुत्र की प्राप्ति होगी।’ यह वर देकर तुम पुनः गोलोक में मेरे पास चली आयीं। तदनन्तर यथासमय भगवान शिव के अंश से असित के एक पुत्र हुआ, जो कामदेव के समान सुन्दर था। उसका नाम हुआ देवल। देवल ब्रह्मनिष्ठ महात्मा हुए। उन्होंने राजा सुयज्ञ की सुन्दरी कन्या रत्नमालावती को, जो सबका मन मोह लेने वाली थी, विवाह की विधि से सानन्द ग्रहण किया। दीर्घकाल तक पत्नी के साथ रहकर कालान्तर में मुनिवर देवल संसार से विरक्त हो गये और सारा सुख छोड़कर धर्म में तत्पर हो श्रीहरि के चिन्तन में लग गये। एक समय रात्रि में वे विरक्त तपोधन शय्या से उठे और कमनीय गन्धमादन पर्वत पर तपस्या के लिये चले गये। उनकी पत्नी की जब निद्रा टूटी, तब वह सती अपने स्वामी को वहाँ न देख विरहाग्नि से दग्ध हो शोकवश अत्यन्त विलाप करने लगी। वह उठकर कभी खड़ी होती और कभी पछाड़ खाकर गिरती थी। रत्नमालावती बारंबार उच्चस्वर से रोदन करने लगी। तपे हुए पात्र में पड़े हुए धान्य की जो दशा होती है, वही दशा उस समय उसके मन की थी। उस सुन्दरी ने खाना-पीना छोड़कर प्राणों का परित्याग कर दिया। उसके पुत्र ने उसका दाह-संस्कार आदि पारलौकिक कृत्य किया। मुनिवर देवल मेरे भक्त एवं जितेन्द्रिय थे। उन्होंने एक सहस्र दिव्य वर्षों तक गन्धमादन की गुफा में तप किया। एक दिन रम्भा ने उन परम सुन्दर, शान्तस्वभाव एवं कन्दर्पसदृश रूपवान मुनि को देख उनसे मिलन की प्रार्थना की। मुनि ने उसकी याचना स्वीकार न करके कहा– ‘रम्भे! सुनो। मैं वेदों का सारभूत वचन सुना रहा हूँ, जो तपस्वी ब्राह्मणों के कुलधर्म के अनुकूल और सत्य है। जो मनुष्य अपनी पत्नी को त्यागकर परायी स्त्री के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है, वह जीते-जी मरा हुआ है। उसके यश, धन और आयु की हानि होती है। भूतल पर जिसके यश का विस्तार नहीं हुआ, उसका जीवन निष्फल है। एक तपस्वी को उत्तम सम्पत्ति, राज्य और सुख से क्या लेना है? मैं निष्काम और वृद्ध हूँ। मुझसे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? माँ! तुम सुन्दरी हो; अतः किसी उत्तम वेशभूषा वाले सुन्दर तरुण पुरुष की खोज करो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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