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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 21
ब्रह्मत्व, अमरत्व अथवा सालोक्य आदि चार प्रकार के मोक्ष आपके चरणकमलों की दास्य-भक्ति की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है: फिर इन्द्रपद, देवपद, सिद्धि-प्राप्ति, स्वर्गप्राप्ति, राजपद तथा चिरंजीवित्व को विद्वान पुरुष किस गिनती में रखते हैं? (क्या समझते हैं?) ईश्वर! यह सब जो पूर्वकथित ब्रह्मत्व आदि पद हैं, वे आपके भक्त के आधे क्षण के लिये प्राप्त हुए संग की क्या समानता कर सकते हैं! कदापि नहीं। जो आपका भक्त है, वह भी आपके समान हो जाता है। फिर आपके महत्त्व का अनुमान कौन लगा सकता है? आपका भक्त आधे क्षण के वार्तालाप मात्र से किसी को भी भवसागर से पार कर सकता है। आपके भक्तों के संग से भक्ति का विविध अंकुर अवश्य उत्पन्न होता है। उन हरिभक्तरूप मेघों के द्वारा की गयी वार्तालापरूपी जल की वर्षा से सींचा जाकर भक्ति का वह अंकुर बढ़ता है। जो भगवान के भक्त नहीं हैं, उनके आलापरूपी ताप से वह अंकुर तत्काल सूख जाता है और भक्त एवं भगवान के गुणों की स्मृतिरूपी जल से सींचने पर वह उसी क्षण स्पष्ट रूप से बढ़ने लगता है। उनमें उत्पन्न आपकी भक्ति का अंकुर जब प्रकट होकर भलीभाँति बढ़ जाता है, तब वह नष्ट नहीं होता। उसे प्रतिदिन और प्रतिक्षण बढ़ाते रहना चाहिये। तदनन्तर उस भक्त को ब्रह्मपद की प्राप्ति कराकर भी उसके जीवन के लिये भगवान उसे अवश्य ही परम उत्तम दास्यरूप फल प्रदान करते हैं। यदि कोई दुर्लभ दास्यभाव को पाकर भगवान का दास हो गया तो निश्चय ही उसी ने समस्त भय आदि को जीता है। यों कहकर नन्द श्रीहरि के सामने भक्तिभाव से खड़े हो गये। तब प्रसन्न हुए श्रीकृष्ण ने उन्हें मनोवांछित वर दिया। इस प्रकार नन्द द्वारा किये गये स्तोत्र का जो भक्तिभाव से प्रतिदिन पाठ करता है, वह शीघ्र ही श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और दास्यभाव प्राप्त कर लेता है। जब द्रोण नामक वसु ने अपनी पत्नी धरा के साथ तीर्थ में तपस्या की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें यह परम दुर्लभ स्तोत्र प्रदान किया था। सौभरि मुनि ने पुष्कर में संतुष्ट होकर ब्रह्माजी को श्रीहरि का षडक्षर-मन्त्र तथा सर्वरक्षणकवच प्रदान किया था। वही कवच, वही स्तोत्र और वही परम दुर्लभ मन्त्र ब्रह्मा के अंशभूत गर्ग मुनि ने तपस्या में लगे हुए नन्द को दिया था। पूर्वकाल में जिसके लिये जो मन्त्र, स्तोत्र, कवच, इष्टदेव, गुरु और विद्या प्राप्त होती है, वह पुरुष उस मन्त्र आदि तथा विद्या को निश्चय ही नहीं छोड़ता है। इस प्रकार वह श्रीकृष्ण का अद्भुत आख्यान और स्तोत्र कहा गया, जो सुखद, मोक्षप्रद, सब साधनों का सारभूत तथा भवबन्धन को छुटकारा दिलाने वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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