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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 19
सौभरि बोले– पक्षिराज! मेरे पास से दूर हटो, दूर हटो। मेरे सामने से इस विशाल जीव को पकड़ लेने की तुममें क्या योग्यता है? तुम अपने को श्रीकृष्ण का वाहन समझकर बहुत बडा मानते हो। श्रीकृष्ण तुम्हारे-जैसे करोड़ों वाहन रच लेने की शक्ति रखते हैं। मैं अपनी भौंहें टेढ़ी करने मात्र से तुम्हें शीघ्र और अनायास ही भस्म कर सकता हूँ। तुम परमेश्वर के वाहन हो तो क्या हुआ? हम लोग तुम्हारे दास नहीं हैं। पक्षिराज! यदि आज से कभी भी मेरे इस कुण्ड में आओगे तो मेरे शाप से तत्काल भस्म हो जाओगे। यह ध्रुव सत्य है। मुनीन्द्र की बात सुनकर पक्षिराज विचलित हो गये। वे श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण करते-करते उन्हें प्रणाम करके चल दिये। विप्रवर नारद! तब से अब तक सदा ही उस कुण्ड का नाम सुनने मात्र से पक्षिराज को कँपकँपी आ जाती है। यह इतिहास, जो धर्म के मुख से सुना गया था, तुमसे कहा गया। अब जिसका प्रकरण चल रहा है, श्रीहरि के उस श्रवणसुखद, रहस्ययुक्त तथा मंगलमय लीलाचरित्र को सुनो। श्रीकृष्ण बहुत देर तक यमुना-जल से ऊपर नहीं उठे। यह जानकर ग्वालबाल दुःखी हो गये। वे मोहवश यमुना के तट पर रोने लगे। कुछ बालक शोक से व्याकुल हो अपनी छाती पीटने लगे। कोई श्रीहरि के बिना पृथ्वी पर पछाड़ खाकर गिरे और मूर्च्छित हो गये। कितने ही बालक श्रीकृष्ण विरह से व्यथित हो कालियदह में प्रवेश करने को उद्यत हो गये और कुछ ग्वालबाल उनको उसमें जाने से रोकने लगे। कोई-कोई विलाप करके प्राण त्याग देने को उद्यत हो गये और उनमें सो समझदार थे, ऐसे कुछ बालक उन मरणोन्मुख बालकों की प्रयत्नपूर्व रक्षा करने लगे। कोई ‘हाय-हाय’ कहकर रोने-बिलखने लगे। कोई ‘कृष्ण-कृष्ण’ की रट लगाने लगे और कोई इस समाचार को बताने के लिये नन्दराय जी के समीप दौड़े गये। कुछ बालक वहाँ शोक, भय और मोह से आतुर हो परस्पर मिलकर यों कहने लगे- ‘हम क्या करें?’ हमारे श्रीहरि कहाँ चले गये? हे नन्दनन्दन! हे प्राणों से भी बढ़कर प्रियतम श्रीकृष्ण! हे बन्धो! हमें दर्शन दो। हमारे प्राण निकले जा रहे हैं। इसी बीच में कुछ बालक नन्दराय जी के निकट जा पहुँचे। वे अत्यन्त चंचल थे और शोक से व्याकुल होकर रो रहे थे। उन्होंने शीघ्र ही यशोदा को, उनके पास बैठे हुए बलराम को तथा अन्यान्य गोपों और लाल कमल के समान नेत्रों वाली गोपांगनाओं को यह समाचार बताया। यह समाचार सुनकर वे सब-के-सब शोक से व्याकुल हो दौड़ते हुए यमुना तट पर जा पहुँचे और बालकों के साथ रोने लगे। सारे व्रजवासी एकत्र हो रोते-रोते शोक से मूर्च्छित हो गये। माता यशोदा कालियदह में प्रवेश करने लगीं। यह देख कुछ लोगों ने उन्हें रोका। गोप और गोपियाँ शोक से अपने ही अंगों को पीटने लगीं। कुछ लोग विलाप करने लगे और कितने ही व्रजवासी अपनी सुध-बुध खो बैठे। राधा भी यमुना जी के उस कुण्ड में घुसने लगीं। यह देख कुछ स्त्रियों ने दौड़कर उन्हें रोका। वे शोक से मूर्च्छित हो गयीं और उस नदी के तट पर मरी हुई के समान पड़ गयीं। नन्दराय जी अत्यन्त विलाप करके बार-बार मूर्च्छित होने लगे। वे चेत होने पर पुनः रोते तथा रो-रोकर फिर मूर्च्छित हो जाते थे। उस समय ज्ञानियों में श्रेष्ठ बलराम जी ने अत्यन्त विलाप करते हुए नन्द को, शोक से कातर हुई यशोदा को, गोपों और गोपांगनाओं को, अत्यन्त मूर्च्छित राधिका को, रोते हुए समस्त बालकों को तथा शोकग्रस्त हुई सम्पूर्ण गोप-बालिकाओं को धीरज बँधाते हुए समझाना आरम्भ किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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