विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 16
मुने! श्रीराधा की जो सुशीला आदि सहेली गोपियाँ थीं, वे नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो बड़ी भव्य दिखायी देती थीं। दिव्य वस्त्र धारण कर हर्ष से मुस्कराती हुई वे सब-की-सब वृन्दावन की ओर चलीं। कोई शिबिका पर सवार थीं तो कोई रथ पर। राधिका देवी रत्नमय अलंकारों से विभूषित हो सुवर्णमय उपकरणों से युक्त रथ पर बैठकर उन सब सहेलियों के साथ यात्रा कर रही थीं। यशोदा और रोहिणी जी भी रत्नमय अलंकारों से अलंकृत हो सुवर्णमय उपकरणों से सुसज्जित रथ पर चढ़कर जा रही थीं। नन्द, सुनन्द, श्रीदामा, गिरिभानु, विभाकर, वीरभानु और चन्द्रभानु– ये प्रमुख गोपगण हाथी पर बैठकर सानन्द यात्रा कर रहे थे। श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों भाई रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित हो सुवर्णमय रथ पर बैठकर बड़े हर्ष को साथ वृन्दावन की ओर जा रहे थे। कोटि-कोटि बूढ़े और जवान गोप उस यात्रा में सम्मिलित थे। कोई घोड़े पर सवार थे, कोई हाथियों पर बैठे थे और कितने ही रथ पर चढ़कर यात्रा करते थे। नन्द के सेवक उद्धत गोपगण बड़े हर्ष के साथ चल रहे थे। उनमें से कुछ लोग बैलों पर सवार थे। वे सब-के-सब संगीत की तान में तत्पर थे। राधिका की दूसरी-दूसरी दासियाँ बहुत बड़ी संख्या में यात्रा कर रही थीं, उनके मन में बड़ा उल्लास था। मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी और वे सब-की-सब सोने के गहनों से सजी थीं। उनमें से कितनों के हाथ में सिन्दूर थे, कितनी ही काजल लेकर चल रही थीं। किन्हीं के हाथों में कन्दुक थे तो किन्हीं के पुतलियाँ। कुछ सुन्दरी दासियाँ अपने हाथों में भोग-द्रव्य और क्रीड़ा-द्रव्य लेकर चल रही थीं। किन्हीं के हाथों में वेषरचना की सामग्री थी तो किन्हीं के हाथों में फूल की मालाएँ। कुछ गोपियाँ हाथों में वीणा आदि वाद्य लिये सानन्द यात्रा कर रही थीं। कुछ अपने साथ अग्निशुद्ध दिव्य वस्त्रों का भार लिये चल रही थीं। कितनी ही चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर का द्रव ले जा रही थीं। कोई संगीत में मग्न थीं तो कोई विचित्र कथाएँ कह रही थीं। उस समय कोटि-कोटि शिबिकाएँ, रथ, घोड़े, गाड़ियाँ, बैल और लाखों हाथी आदि चल रहे थे। मुने! वृन्दावन में पहुँचकर सबने उसे गृहशून्य देखा। तब वे सभी लोग वृक्षों के नीचे यथा स्थान ठहर गये। उस समय श्रीकृष्ण ने गोपों को अभीष्ट गृह और गौओं के ठहरने के स्थान बताते हुए कहा– ‘आज इसी तरह ठहरो। कल सब व्यवस्था हो जायेगी।’ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर गोपों ने पूछा- ‘कन्हैया! यहाँ कहाँ घर हैं।’ उनका यह प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण बोले- ‘इस स्थान पर बहुत-से स्वच्छ गृह हैं, जिन्हें देवताओं ने बनाया है; परंतु उन देवताओं को प्रसन्न किये बिना कोई भी गृह हमारी दृष्टि में नहीं आ सकते। अतः गोपगण! आज वन देवताओं की पूजा करके बाहर ही ठहरो। प्रात:काल तुम्हें यहाँ निश्चय ही बहुत-से रमणीय गृह दिखायी देंगे। धूप, दीप, नैवेद्य, भेंट, पुष्प और चिन्दन आदि के द्वारा वट के मूलभाग में स्थित चण्डिकादेवी की पूजा करो।’ श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर गोपों ने दिन में देवताओं की पूजा करके भोजन आदि किये और रात में वहीं प्रसन्नतापूर्वक शयन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |