ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 31
परिपूर्णतम श्रीकृष्ण पूर्व दिशा में सर्वदा मेरी रक्षा करें। स्वयं गोलोकनाथ अग्निकोण में मेरी रक्षा करें। पूर्ण ब्रह्मस्वरूप दक्षिण दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। श्रीकृष्ण नैर्ऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें। श्रीहरि पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें। गोविन्द वायव्यकोण में नित्य-निरन्तर मेरी रक्षा करें। रसिक शिरोमणि उत्तर दिशा में सदा मेरी रक्षा करें। वृन्दावन विहारकृत सदा ईशानकोण में मेरी रक्षा करें। वृन्दावनी के प्राणनाथ ऊर्ध्वभाग में मेरी रक्षा करें। महाबली बलिहारी माधव सदैव मेरी रक्षा करें। नृसिंह जल, स्थल तथा अन्तरिक्ष में सदा मुझे सुरक्षित रखें। माधव सोते समय तथा जाग्रत-काल में सदा मेरा पालन करें तथा जो सबके आन्तरात्मा, निर्लेप और सर्वव्यापक हैं, वे भगवान सब ओर से मेरी रक्षा करें। वत्स! इस प्रकार मैंने ‘त्रैलोक्यविजय’ नामक कवच, जो परम अनोखा तथा समस्त मन्त्रसमुदाय का मूर्तमान् स्वरूप है, तुम्हें बतला दिया। मैंने इसे श्रीकृष्ण के मुख से श्रवण किया था। इसे जिस-किसी को नहीं बतलाना चाहिये। जो विधिपूर्वक गुरु का पूजन करके इस कवच को गले में अथवा दाहिनी भुजा पर धारण करता है, वह भी विष्णुतुल्य हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। वह भक्त जहाँ रहता है, वहाँ लक्ष्मी और सरस्वती निवास करती हैं। यदि उसे कवच सिद्ध हो जाता है तो वह जीवन्मुक्त हो जाता है और उसे करोड़ों वर्षों की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। हजारों राजसूय, सैकड़ो वाजपेय, दस हजार अश्वमेध, सम्पूर्ण महादान तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा– ये सभी इस त्रैलोक्यविजय की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकते। व्रत-उपवास का नियम, स्वाध्याय, अध्ययन, तपस्या और समस्त तीर्थों में स्नान– ये सभी इसकी एक कला को भी नहीं पा सकते। यदि मनुष्य इस कवच को सिद्ध कर ले तो निश्चय ही उसे सिद्धि, अमरता और श्रीहरि की दासता आदि सब कुछ मिल जाता है। जो इसका दस लाख जप करता है, उसे यह कवच सिद्ध हो जाता है और जो सिद्ध कवच होता है, वह निश्चय ही सर्वज्ञ हो जाता है। परंतु जो इस कवच को जाने बिना श्रीकृष्ण का भजन करता है, उसकी बुद्धि अत्यन्त मन्द है; उसे करोड़ों कल्पों तक जप करने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता। वत्स! इस कवच को धारण करके तुम आनन्दपूर्वक निःशंक होकर अनायास ही इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर डालो। बेटा! प्राणसंकट के समय राज्य दिया जा सकता है, सिर कटाया जा सकता है और प्राणों का परित्याग भी किया जा सकता है; परंतु ऐसे कवच का दान नहीं करना चाहिये[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महादेव उवाच –
वत्सागच्छ महाभाग भृगुवंशसमुद्भव। पुत्राधिकोऽसि प्रेम्णा मे कवचं ग्रहणं कुरु।।
श्रृणु राम प्रवक्ष्यामि ब्रह्माण्डे परमाद्भुतम्। त्रैलोक्यविजयं नाम श्रीकृष्णस्य जयावहम्।।
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके राधिकाश्रये। रासमण्डलमध्ये च मह्यं वृन्दावने वने।।
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम्। पुण्यात् पुण्यतरं चैव परं स्नेहाद् वदामि ते।।
यद् धृत्वा पठनाद् देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी। शुम्भं निशुम्भं महिषं रक्बीजं जघान ह।।
यद् धृत्वाहं च जगतां संहर्ता सर्वतत्त्ववित्। अवध्यं त्रिपुरं पूर्वं दुरन्तमवलीलया।।
यद् धृत्वा पठनाद् ब्रह्मा ससृजे सृष्टिमुत्तमाम्। यद् धृत्वा भगवान् शेषो विधत्ते विश्वमेव च।।
यद् धृत्वा कूर्मराजश्च शेषं धत्तेऽवलीलया। यद् धृत्वा भगवान् वायुर्विश्वाधारो विभुः स्वयम्।।
यद् धृत्वा वरुणः सिद्धः कुबेरश्च धनेश्वरः। यद् धृत्वा पठनादिन्द्रो देवानामधिपः स्वयम्।।
यद् धृत्वा भाति भुवने तेजोराशिः स्वयं रविः। यद् धृत्वा पठनाच्चन्द्रो महाबलपराक्रमः।।
अगस्त्यः सागरान् सप्त यद् धृत्वा पठनात् पपौ। चकार तेजसा जीर्ण दैत्यं वातापिसंज्ञकम्।।
यद् धृत्वा पठनाद् देवी सर्वाधारा वसुन्धरा। यद् धृत्वा पठनात् पूता गङ्गा भुवनपावनी।।
यद् धृत्वा जगतां साक्षी धर्मो धर्मभृतां वरः। सर्वविद्याधिदेवी सा यच्च धृत्वा सरस्वती।।
यद् धृत्वा जगतां लक्ष्मीरन्नदाती परात्परा। यद् धृत्वा पठनाद् वेदान् सावित्री प्रसुषाव च।।
वेदाश्च धर्मवक्तारो यद् धृत्वा पठनाद् भृगो। यद् धृत्वा पठनाच्छुद्धस्तेजस्वी हव्यवाहनः।।
सनत्कुमारो भगवान् यद् धृत्वा ज्ञानिनां वरः। दातव्यं कृष्णभक्ताय साधवे च महात्मने।।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात्। त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः।।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवो रासेश्वरः स्वयम्। त्रैलोक्यविजयप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः।।
परात्परं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम्। प्रणवो मे शिरः पातु श्रीकृष्णाय नमः सदा।।
सदा पायात् कपालं कृष्णाय स्वाहेति पञ्चाक्षरः। कृष्णेति पातु नेत्रे च कृष्णस्वाहेति तारकम्।।
हरये नम इत्येवं भ्रूलतां पातु मे सदा। ऊँ गोविन्दाय स्वाहेति नासिकां पातु संततम्।।
गोपालाय नमो गण्डौ पातु मे सर्वतः सदा। ऊँ नमो गोपाङ्गनेशाय कर्णौ पातु सदा मम।।
ऊँ कृष्णाय नमः शश्वत् पातु मेऽधरयुग्मकम्। ऊँ गोविन्दाय स्वाहेति दन्तावलिं मे सदावतु।।
ऊँ कृष्णाय दन्तरन्ध्रं दन्तोर्ध्वं क्लीं सदावतु। ऊँ श्रीकृष्णाय स्वाहेति जिह्विकां पातु सदा मम।।
रासेश्वराय स्वाहेति तालुकं पातु मे सदा। राधिकेशाय स्वाहेति कण्ठं पातु सदा मम।।
नमो गोपाङ्गनेशाय वक्षः पातु सदा मम। ऊँ गोपेशाय स्वाहेति स्कन्धं पातु सदा मम।।
नमः किशोरवेशाय स्वाहा पृष्ठं सदावतु। उदरं पातु मे नित्यं मुकुन्दाय नमः सदा।।
ऊँ ह्रीं क्लीं कृष्णाय स्वाहेति करौ पादौ सदा मम। ऊँ विष्णवे नमो बाहुयुग्मं पातु सदा मम।।
ऊँ ह्रीं भगवते स्वाहा नखरं पातु मे सदा। ऊँ नमो नारायणायेति नखरन्ध्रं सदावतु।।
ऊँ ह्रीं ह्रीं पद्मनाभाय नाभिं पातु सदा मम। ऊँ सर्वेशाय स्वाहेति कङ्कालं पातु मे सदा।।
ऊँ गोपीरमणाय स्वाहा नितम्बं पातु मे सदा। ऊँ गोपीरमनाथाय पादौ पातु सदा मम।।
ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदावतु। ऊँ केशवाय स्वाहेति मम केशान् सदावतु।।
नमः कृष्णाय स्वाहेति ब्रह्मरन्ध्रं सदावतु। ऊँ माधवाय स्वाहेति लोमानि मे सदावतु।।
ऊँ ह्रीं श्रीं रसिकेशाय स्वाहा सर्वं सदावतु।।
परिपूर्णतमः कृष्णः प्राच्यां मां सर्वदावतु। स्वयं गोलोकनाथो मामाग्नेय्यां दिशि रक्षतु।।
पूर्णब्रह्मस्वरूपश्च दक्षिणे मां सदावतु। नैर्ऋत्यां पातु मां कृष्णः पश्चिमे पातु मां हरिः।।
गोविन्दः पातु मां शश्वद् वायव्यां दिशि नित्यशः। उत्तरे मां सदा पातु रसिकानां शिरोमणिः।।
ऐशान्यां मां सदा पातु वृन्दावनविहारकृत्। वृन्दावनीप्राणनाथः पातु मामूर्ध्वदेशतः।।
सदैव माधवः पातु बलिहारी महाबलः। जले स्थले चान्तरिक्षे नृसिंहः पातु मां सदा।।
स्वप्ने जागरणे शश्वत् पातु मां माधवः सदा। सर्वान्तरात्मा निर्लिप्तो रक्ष मां सर्वतो विभुः।।
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्। त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं परमाद्भुतम्।।
मया श्रुतं कृष्णवक्त्रात् प्रवक्तव्यं न कस्यचित्। गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत् तु यः।।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः। स च भक्तो वसेद् यत्र लक्ष्मीर्वाणी वसेत्ततः।।
यदि स्यात् सिद्धकवचो जीवन्मुक्तो भवेत्तु सः। निश्चितं कोटिवर्षाणां पूजायाः फलमाप्नुयात्।।
राजसूयसहस्राणि वाजपेयशतानि च। अश्वमेधायुतान्येव नरमेधायुतानि च।।
महादानानि यान्येव प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा। त्रैलोक्यविजयस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।
व्रतोपवासनियमं स्वाध्यायाध्ययनं तपः। स्नानं च सर्वतीर्थेषु नास्यार्हन्ति कलामपि।।
सिद्धित्वममरत्वं च दास्यत्वं श्रीहरेरपि। यदि स्यात् सिद्धकवचः सर्वं प्राप्नोति निश्चितम्।।
स भवेत् सिद्धकवचो दशलक्षं जपेत्तु यः। यो भवेत् सिद्धकवचः सर्वज्ञः स भवेद् ध्रुवम्।।
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कृष्णं सुमन्दधीः। कोटिकल्पप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः।।
गृहीत्वा कवचं वत्स महीं निःक्षत्रियां कुरु। त्रिःसप्तकृत्वो निःशङ्कः सदानन्दोऽवलीलया।।
राज्यं देयं शिरो देयं प्राणा देयाश्च पुत्रक। एवंभूतं च कवचं न देयं प्राणसंकटे।।-(गणपतिखण्ड 31। 7-57)
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