ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 14-15
वहाँ से इन कृत्तिकाओं ने तुम्हें पाया है। अब तुम अपने घर चलो। वहाँ तुम्हें सम्पूर्ण शास्त्रास्त्रों की प्राप्ति होगी, विष्णु देवताओं को साथ लेकर तुम्हारा अभिषेक करेंगे और तब तुम तारकासुर का वध करोगे। तुम विश्वसंहर्ता शंकर के पुत्र हो, अतः ये कृत्तिकाएँ तुम्हें उसी तरह नहीं छिपा सकतीं, जैसे शुष्क वृक्ष अपने कोटर में अग्नि को गुप्त नहीं रख सकता। तुम तो विश्व में दीप्तिमान हो। इन कृत्तिकाओं के घर में तुम्हारी उसी प्रकार शोभा नहीं हो रही है, जैसे महाकूप में पड़े हुए चन्द्रमा शोभित नहीं होते। जैसे सूर्य मनुष्य के हाथों की ओट में नहीं छिप सकते, उसी तरह तुम भी इनके अंगतेज से आच्छादित न होकर जगत को प्रकाशित कर रहे हो। शम्भुनन्दन! तुम तो जगद्व्यापी विष्णु हो, अतः इन कृत्तिकाओं के व्याप्य नहीं हो, जैसे आकाश किसी का व्याप्य नहीं है, बल्कि वह स्वयं ही सबका व्यापक है। तुम विषयों से निर्लिप्त योगीन्द्र हो और विश्व के आधार और परमेश्वर हो। ऐसी दशा में कृत्तिकाओं के भवन में तुम सर्वेश्वर का निवास होना उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जैसे क्षुद्र गौरैया के उदर में गरुड़ का रहन असम्भव है। तुम भक्तों के लिये मूर्तिमान अनुग्रह तथा गुणों और तेजों की राशि हो। देवगण तुम्हें उसी तरह नहीं जानते जैसे योगहीन पुरुष ज्ञान से अनभिज्ञ होता है। जैसे मोहित चित्तवाले भक्तिहीन मनुष्यों को हरि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्ञान नहीं होता, उसी तरह ये कृत्तिकाएँ तुम्हें कैसे जान सकती हैं; क्योंकि तुम अनिर्वचनीय हो। भ्राता! जो लोग जिसके गुण को नहीं जानते, वे उसका अनादर ही करते हैं; जैसे मेढक एक साथ रहने वाले कमलों का आदर नहीं करते। कार्तिकेय ने कहा– भ्राता! जो भूत, भविष्यत, वर्तमान– तीनों कालों का ज्ञान है, वह सब मुझे ज्ञात है। तुम भी तो ज्ञानी हो; क्योंकि मृत्युंजय के आश्रित हो। ऐसी दशा में तुम्हारी क्या प्रशंसा की जाये। भाई! कर्मानुसार जिनका जिन-जिन योनियों में जन्म होता है, वे उन्हीं योनियों में निरन्तर रहते हुए निर्वृति लाभ करते हैं। वे चाहे संत हों अथवा मूर्ख हों, जिन्हें कर्मभोग के परिणामस्वरूप जिस योनि की प्राप्ति हुई है, वे विष्णुमाया से मोहित होकर उसी योनि को बहुत बढ़कर समझते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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