ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 44-46
जो गुरु भगवान श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने वाला ज्ञान नहीं देता, उसे ‘शिष्यघाती’ कहते हैं; क्योंकि वह शिष्य को बन्धनमुक्त नहीं कर सका। जो जननी के गर्भ में रहने के क्लेश से तथा यम यातना से मुक्त नहीं कर सकता, उसे गुरु, तात और बान्धव कैसे कहा जाए? भगवान श्रीकृष्ण का सनातन मार्ग परमानन्द-स्वरूप है। जो निरन्तर ऐसे मार्ग का प्रदर्शन नहीं कराता, वह मनुष्यों के लिये कैसा बान्धव है? अतः साध्वि! तुम निर्गुण एवं अच्युत ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करो; इनकी उपासना से पुरुषों के सारे कर्ममूल कट जाते हैं। प्रिये! मैंने जो तुम्हारा त्याग कर दिया है, इस अपराध को क्षमा करो। साध्वी स्त्रियाँ क्षमापरायण होती हैं। सत्त्वगुण के प्रभाव से उनमें क्रोध नहीं रहता। देवि! मैं तपस्या करने के लिये पुष्कर क्षेत्र में जा रहा हूँ। तुम भी सुखपूर्वक यहाँ से जा सकती हो; क्योंकि निःस्पृह पुरुषों के लिए एकमात्र मनोरथ यही है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल की उपासना में लग जाएँ। मुनिवर! जरत्कारु का यह वचन सुनकर देवी मनसा शोक से आतुर हो गयी। उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसने विनयभाव प्रदर्शित करते हुए अपने प्राणप्रिय पतिदेव से कहा। देवी मनसा बोली– प्रभो! मैंने आपकी निद्रा भंग कर दी, यह मेरा दोष नहीं कहा जा सकता, जिससे आप मेरा त्याग कर रहे हैं। अतएव मेरी प्रार्थना है कि जहाँ मैं आपका स्मरण करूँ, वहीं आप मुझे दर्शन देने की कृपा कीजियेगा। पतिव्रता स्त्रियों के लिये सौ पुत्रों से भी अधिक प्रेम का भाजन पति है। पति स्त्रियों के लिये सम्यक प्रकार से प्रिय है; अतएव विद्वान पुरुषों के पति को ‘प्रिय’ की संज्ञा दी है। जिस प्रकार एक पुत्र वालों का पुत्र में, वैष्णव-पुरुषों का भगवान श्रीहरि में, एक नेत्र वालों का नेत्र में, प्यासे जनों का जल में, क्षुधातुरों का अन्न में, विद्वानों का शास्त्र में तथा वैश्यों का वाणिज्य में निरन्तर मन लगा रहता है, प्रभो! वैसे ही पतिव्रता स्त्रियों का मन सदा अपने स्वामी का किंकर बना रहता है। इस प्रकार कहकर मनसा देवी अपने स्वामी के चरणों में पड़ गयी। मुनिवर जरत्कारु कृपा के समुद्र थे। उन्होंने कृपा के वशीभूत होकर क्षण भर के लिये उसे अपनी गोद में ले लिया। मुनि के नेत्रों से जल की ऐसी धारा गिरी कि वह साध्वी मनसा नहा उठी तथा वियोग-भय से कातर हुई मनसा ने भी अपने आँसुओं से मुनि के वक्षःस्थल को भिगो दिया। तत्पश्चात् वे दोनों पति-पत्नी ज्ञान द्वारा शोक से मुक्त हुए। तदनन्तर मुनिवर जरत्कारु परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल का बार-बार स्मरण करते हुए अपनी प्रिया मनसा को समझाकर तपस्या करने के लिये चले गये। उधर देवी मनसा भी कैलास पर पहुँचकर अपने गुरु भगवान शंकर के निवास-गृह में चली गयी। वह शोक से व्याकुल थी। भगवती पार्वती ने उसे भली-भाँति समझाया। भगवान शंकर ने भी उसे मंगलमय ज्ञान देकर ढाढ़स बँधाया। वह शिव धाम में रहने लगी। वहाँ उत्तम दिन की मंगलमयी बेला में साध्वी मनसा ने पुत्र उत्पन्न किया, जो भगवान नारायण का अंश और योगियों एवं ज्ञानियों का भी गुरु था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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