ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 42
कर्मपरायण सत्पुरुषों को दक्षिणा फल देती है तथा कर्म पूर्ण होने पर उनका पुत्र ही फलदायक होता है। अतएव वेदज्ञ पुरुष इस प्रकार कहते हैं कि भगवान यज्ञ देवी दक्षिणा तथा अपने पुत्र ‘फल’ के साथ होने पर ही कर्मों का फल प्रदान करते हैं। नारद! इस प्रकार यज्ञपुरुष दक्षिणा तथा फलदाता पुत्र को प्राप्त करके सबको कर्मों का फल प्रदान करने लगे। तब देवताओं के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सभी सफल मनोरथ होकर अपने-अपने स्थान पर चले गये। मैंने धर्मदेव के मुख से ऐसा सुना है। अतएव मुने! कर्ता को चाहिये कि कर्म करने के पश्चात् तुरंत दक्षिणा दे दें। तभी सद्यः फल प्राप्त होता है– यह वेदों की स्पष्ट वाणी है। यदि दैववश अथवा अज्ञान से यज्ञकर्ता कर्म सम्पन्न हो जाने पर तुरंत ही ब्राह्मणों को दक्षिणा नहीं दे देता तो उस दक्षिणा की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती चली जाती है और साथ ही यजमान का सम्पूर्ण कर्म भी निष्फल हो जाता है। ब्राह्मण का स्वत्व अपहरण करने से वह अपवित्र मानव किसी कर्म का अधिकारी नहीं रह जाता। उसी पाप के फलस्वरूप उस पात की मानव को दरिद्र और रोगी होना पड़ता है। लक्ष्मी अत्यन्त भयंकर शाप देकर उसके घर से चली जाती हैं। उसके दिये हुए श्राद्ध और तर्पण को पितर ग्रहण नहीं करते हैं। ऐसे ही, देवता उसकी की हुई पूजा तथा अग्नि में दी हुई आहुति भी स्वीकार नहीं करते। यज्ञ करते समय कर्ता ने दक्षिणा संकल्प कर दी; किंतु दी नहीं और प्रतिग्रह लेने वाले ने उसे माँगा भी नहीं तो ये दोनों व्यक्ति नरक में इस प्रकार गिरते हैं, जैसे रस्सी टूट जाने पर घड़ा। विप्र! इस प्रकार की यह रहस्य भरी बातें बतला दीं। तुम्हें पुनः क्या सुनने की इच्छा हुई? नारद जी ने पूछा– मुने! दक्षिणाहीन कर्म के फल को कौन भोगता है? साथ ही यज्ञपुरुष ने भगवती दक्षिणा की किस प्रकार पूजा की थी; यह भी बतलाइये। भगवान नारायण कहते हैं– मुने! दक्षिणाहीन कर्म में फल ही कैसे लग सकता है; क्योंकि फल प्रसव करने की योग्यता तो दक्षिणा वाले कर्म में ही है। मुने! बिना दक्षिणा का कर्म तो बलि के पेट में चला जाता है। पूर्वसमय में भगवान वामन बलि के लिये आहार रूप में इस अर्पण कर चुके हैं। नारद! अश्रोत्रिय और श्रद्धाहीन व्यक्ति के द्वारा श्राद्ध में दी हुई वस्तु को बलि भोजनरूप से प्राप्त करते हैं। शूद्रों से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मणों के पूजा सम्बन्धी द्रव्य, निषिद्ध एवं आचरणहीन ब्राह्मणों द्वारा किया हुआ पूजन तथा गुरु में भक्ति न रखने वाले पुरुष का कर्म– ये सब बलि के आहार हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। मुने! भगवती दक्षिणा के ध्यान, स्तोत्र और पूजा की विधि के क्रम कण्वशाखा में वर्णित हैं। वह सब मैं कहता हूँ, सुनो। यज्ञपुरुष ने कहा– महाभागे! तुम पूर्वसमय में गोलोक की एक गोपी थी। गोपियों में तुम्हारा प्रमुख स्थान था। राधा के समान ही तुम उनकी सखी थीं। भगवान श्रीकृष्ण तुमसे प्रेम करते थे। कार्तिकी पूर्णिमा के अवसर पर राधा-महोत्सव मनाया जा रहा था। कुछ कार्यान्तर उपस्थित हो जाने के कारण तुम भगवान श्रीकृष्ण के दक्षिण कंधे से प्रकट हुई थीं। अतएव तुम्हारा नाम ‘दक्षिणा’ पड़ गया। शोभने! तुम इससे पहले परम शीलवती होने के कारण ‘सुशीला’ कहलाती थीं। तुम ऐसी सुयोग्या देवी श्रीराधा के शाप से गोलोक से च्युत होकर दक्षिणा नाम से सम्पन्न हो मुझे सौभाग्यवश प्राप्त हुई हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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