गुरु से बढ़कर दूसरा कोई पूजनीय नहीं है। इष्टदेव के रुष्ट होने पर गुरु शिष्य अथवा साधक की रक्षा करने में समर्थ हैं। परन्तु गुरुदेव के रुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उस साधक की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं। जिस पर गुरु सदा संतुष्ट हैं, उसे पग-पग पर विजय प्राप्त होती है और जिस पर गुरुदेव रुष्ट हैं, उसके लिये सदा सर्वनाश की ही सम्भावना रहती है। जो मूढ़ भ्रमवश गुरु की पूजा न करके इष्टदेव का पूजन करता है, वह सैकड़ों ब्रह्महत्याओं के पाप का भागी होता है, इसमें संशय नहीं है। सामवेद में साक्षात भगवान श्रीहरि ने भी ऐसी बात कही है। इसलिये गुरु इष्टदेव से भी बढ़कर परम पूजनीय हैं।
मुने! इस प्रकार गुरुदेव तथा इष्टदेव का ध्यान एवं स्तवन करके साधक वेद में बताये हुए स्थान पर पहुँचकर प्रसन्नतापूर्वक मल और मूत्र का त्याग करे। जल, जल के निकट का स्थान, बिलयुक्त भूमि, प्राणियों के निवास के निकट, देवालय के समीप, वृक्ष की जड़ के पास, मार्ग, हल से जोती हुई भूमि, खेती से भरे हुए खेत, गोशाला, नदी, कन्दरा के भीतर का स्थान, फुलवाड़ी, कीचड़युक्त अथवा दलदल की भूमि, गाँव आदि के भीतर की भूमि, लोगों के घर के आसपास का स्थान, मेख या खम्भे के पास, पुल, सरकंडों के वन, श्मशान भूमि, अग्नि के समीप, क्रीड़ास्थल[1], विशाल वन, मचान के नीचे का स्थान, पेड़ की छाया से युक्त स्थान, जहाँ भूमि के भीतर प्राणी रहते हों वह स्थान, जहाँ ढेर-के-ढेर पत्ते जमा हों वह भूमि, जहाँ घनी दूब उगी हो अथवा कुश जमे हों वह स्थान, बाँबी, जहाँ वृक्ष लगाये गये हों वहाँ की भूमि तथा जो किसी विशेष कार्य के लिये झाड़-बुहारकर साफ की गयी हो, वह भूमि– इन सबको छोड़कर सूर्य के ताप से रहित स्थान में गड्ढा खोद उसी में मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये।
दिन में उत्तराभिमुख होकर मल-मूत्र का त्याग करे; रात में पश्चिम की ओर मुँह करके और संध्याकाल में दक्षिण की ओर मुँह रखते हुए मलोत्सर्ग तथा मूत्रोत्सर्ग करना उचित है। मौन रहकर, जोर-जोर से साँस न लेते हुए मलत्याग करे, जिससे उसकी दुर्गन्ध नाक में न जाए। मलत्याग के पश्चात् उस मल को मिट्टी डालकर ढक दे। तदनन्तर बुद्धिमान पुरुष गुदा आदि अंगों को शुद्ध करे। पहले ढेले या मिट्टी से गुदा आदि की शुद्धि करे। तत्पश्चात् उसे जल से धोकर शुद्ध करे।