ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 35
पुनः मुनियों ने दिव्यास्त्र द्वारा राजा के बाण सहित धनुष, रथ, सारथि और कवच की धज्जियाँ उड़ा दीं। इस प्रकार राजा को शस्त्रहीन देखकर मुनियों को महान हर्ष हुआ। तब उन्होंने मत्स्यराज का वध करने की इच्छा से शिव जी का त्रिशूल हाथ में उठाया। त्रिशूल चलाते समय आकाशवाणी हुई– ‘विप्रवरो! शिव जी का यह त्रिशूल अमोघ है, इसे मत चलाओ; क्योंकि मत्स्यराज के गले में सर्वांगों की रक्षा करने वाला शिवजी का दिव्य कवच बँधा है, जिसे पूर्वकाल में दुर्वासा ने दिया था। अतः पहले राजा से उस प्राण-प्रदान करने वाले कवच को माँग लो।’ मुने! तदनन्तर परशुराम ने त्रिशूल चलाकर राजा पर चोट की, परंतु राजा के शरीर से टकराकर उस त्रिशूल के सौ टुकड़े हो गये। तब आकाशवाणी सुनकर महान पराक्रमी जमदग्निनन्दन परशुराम ने श्रृंगधारी संन्यासी का वेष धारण करके राजा से कवच की याचना की। राजा ने ‘ब्रह्माण्ड-विजय’ नामक वह उत्तम कवच उन्हें दे दिया। उस कवच को लेकर परशुराम ने पुनः त्रिशूल से ही प्रहार किया। उसके आघात से मत्स्यराज, जो चन्द्रवंश में उत्पन्न, गुणवान और महाबली था, जिसके मुख की कान्ति सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान थी, भूतल पर गिर पड़ा। नारद ने कहा– महाभाग नारायण! मत्स्यराज ने शिवजी के जिस कवच को धारण किया था, उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि उसे सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है। नारायण बोले– विप्रवर! महात्मा शंकर के उस ‘ब्रह्माण्डविजय’ नामक कवच का, जो सर्वांग की रक्षा करने वाला है, वर्णन करता हूँ; सुनो। पूर्वकाल में दुर्वासा ने बुद्धिमान मत्स्यराजा को सम्पूर्ण पापों का समूल नाश करने वाला षडक्षर-मन्त्र बतलाकर इसे प्रदान किया था। यदि सिद्धि प्राप्त हो जाय तो इस कवच को शरीर पर स्थित रहते अस्त्र-शस्त्र के प्रहार के समय, जल में तथा अग्नि में प्राणियों की मृत्यु नहीं होती– इसमें संशय नहीं है। जिसे पढ़कर एवं धारण करके दुर्वासा सिद्ध होकर लोकपूजित हो गये, जिसके पढ़ने और धारण करने से जैगीषव्य महायोगी कहलाने लगे। जिसे धारण करके वामदेव, देवल, स्वयं च्यवन, अगस्त्य और पुलस्त्य विश्ववन्द्य हो गये। ‘ऊँ नमः शिवाय’ यह सदा मेरे मस्तक की रक्षा करे। ‘ऊँ नमः शिवाय स्वाहा’ यह सदा ललाट की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवाय स्वाहा’ सदा नेत्रों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं क्लीं हूँ शिवाय नमः’ मेरी नासिका की रक्षा करे। ‘ऊँ नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा’ सदा कण्ठ की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं हूँ संहारकर्त्रे स्वाहा’ सदा कानों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा’ सदा दाँत की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा’ सदा केशों की रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा’ सदा छाती की रक्षा करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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