ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड: अध्याय 8-9
वह श्रीहीन, पुत्रहीन और दरिद्र होकर घोर रौरव नरक में गिरता है। जो गोचरभूमि को जोतकर धान्य उपार्जन करता है और वही धान्य ब्राह्मण को देता है तो इस निन्दित कर्म के प्रभाव से उसे देवताओं के वर्ष से सौ वर्ष तक ‘कुम्भीपाक’ नामक नरक में रहना पड़ता है। गौओं के रहने के स्थान, तड़ाग तथा रास्ते को जोतकर पैदा किये हुए अन्न का दान करने वाला मानव चौदह इन्द्र की आयु तक ‘असिपत्र’ नामक नरक में रहता है। जो कामान्ध व्यक्ति एकान्त में पृथ्वी पर वीर्य गिराता है, उसे वहाँ की जमीन में जितने रजःकण हैं, उतने वर्षों तक ‘रौरव’ नरक में रहना पड़ता है। अम्बुवाची में भूमि खोदने वाला मानव ‘कृमिदंश’ नामक नरक में जाता और उसे वहाँ चार युगों तक रहना पड़ता है। जो दूसरे के तड़ाग में पड़ी हुई कीचड़ को निकालकर शुद्ध जल होने पर स्नान करता है, उसे ब्रह्मलोक में स्थान मिलता है। जो मन्दबुद्धि मानव भूमिपति के पितरों को श्राद्ध में पिण्ड न देकर श्राद्ध करता है, उसे अवश्य ही नरकगामी होना पड़ता है। दीपक, शिवलिंग, भगवती की मूर्ति, शंख, यन्त्र, शालग्राम का जल, फूल, तुलसीदल, जपमाला, पुष्पमाला, कपूर, गोरोचन, चन्दन की लकड़ी, रुद्राक्ष की माला, कुश की जड़, पुस्तक और यज्ञोपवीत– इन वस्तुओं को भूमि पर रखने से मानव नरक में वास करता है। गाँठ में बँधे हुए यज्ञसूत्र की पूजा करना सभी द्विजातिवर्णों के लिये अत्यावश्यक है। भूकम्प एवं ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदने से बड़ा पाप लगता है। इस मर्यादा का उल्लंघन करने से दूसरे जन्म में अंगहीन होना पड़ता है। इस पर सबके भवन बने हैं, इसलिये यह ‘भूमि’ कहलाती है। कश्यप की पुत्री होने से ‘काश्यपी’ तथा स्थिररूप होने से ‘स्थिरा’ कही जाती है। महामुने! विश्व को धारण करने से ‘विश्वम्भरा’, अनन्तरूप होने से ‘अनन्ता’ तथा पृथु की कन्या होने से अथवा सर्वत्र फैली रहने से इसका नाम ‘पृथ्वी’ पड़ा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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