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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति
शिष्य होते ही मनुष्य गुरु के साथ अभिन्न हो जाता है- ‘साह ही को गोतु होत है गुलाम को’।[1] परंतु जब तक शिष्य में शंकाएं रहती हैं, तब तक उसका गुरु से अलगाव रहता है। शिष्य की शंकाएँ व्यक्तिगत होने से ही उसका गुरु के साथ शंका-समाधान रूप संवाद होता है अर्थात गुरु के साथ अभिन्नता होते हुए भी जहाँ गुरु-शिष्य का संवाद होता है वहाँ गुरु और शिष्य में भेद रहता है। ऐसे ही शरणागत होने के बाद अर्जुन भगवान के साथ अभिन्न हो जाते हैं, परंतु जब तक उनमें शंकाएँ रहती हैं, तब तक उनका भगवान से अलगाव रहता हैं। कारण कि अगर दूसरे अध्याय के चौवनवें श्लोक से लेकर अठारहवें अध्याय के पहले श्लोक तक आए ‘अर्जुन उवाच’ के बाद कहे हुए श्लोक अर्जुन की व्यक्तिगत शंकाओं के द्योतक नहीं होंगे तो ‘श्रीकृष्णार्जुनसंवाद’ भगवान के साथ सर्वथा अभिन्न अर्थात भगवत्स्वरूप हो जाते हैं।[2] अठारहवें अध्याय के बहत्तर में श्लोक में भगवान स्वयं ही प्रश्न करते हैं और तिहत्तरवें श्लोक में लोकसंग्रह के लिए अर्जुन के माध्यम से स्वयं ही उत्तर देते हैं। भगवान और संत-महात्माओं की वाणी में कई जगह ऐसा पाया जाता है कि वे स्वयं ही साधक बनकर प्रश्न करते हैं और गुरु बनकर उत्तर देते हैं। जैसे, ‘अनुगीता’- (महाभारत) में स्वयं भगवान ने अर्जुन के प्रति यह रहस्य प्रकट किया है- अहं गुरुर्महाबाहो मनः शिष्यं च विद्धि मे । ‘हे महाबाहो! मैं ही गुरु हूँ और मेरे मन को ही शिष्य समझो। हे धनंजय! तुम्हारे स्नेहवश मैंने इस रहस्य का वर्णन किया है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कवितावली, उत्तर. 107
- ↑ गीता 18:73
- ↑ महा. आश्वमेधिक. 51।46
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