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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति
श्रीशंकराचार्य जी महाराज की वाणी में भी ऐसा आता है कि वे स्वयं ही शिष्य बनकर प्रश्न करते हैं और स्वयं ही गुरु बनकर उत्तर देते हैं- अपारसंसारसमुद्रमध्ये सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति । ‘हे दयामय गुरुदेव! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसार रूप समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है? (गुरु का उत्तर मिलता है-) विश्वपति परमात्मा के चरणकमल रूप जहाज।’ इसी प्रकार अठारहवें अध्याय के बहत्तरवें श्लोक में भी अर्जुन का मोह नष्ट हुआ या नहीं- यह जानने के लिए भगवान का प्रश्न नहीं है। कारण कि भगवान सर्वज्ञ हैं। वे नाटक के सूत्रधार की तरह संसार रूप नाटक को पूरा जानते हैं। वे जानते हैं कि अर्जुन का मोह नष्ट हो गया है। इसीलिए वे अठारहवें अध्याय के छाछठवें श्लोक में अपने उपदेश का उपसंहार कर देते हैं और फिर गीता-श्रवण के अनधिकारी और अधिकारी का वर्णन करके गीता का माहात्म्य बता देते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि भगवान ने पहले से ही यह जान लिया है कि अर्जुन का मोह अब सर्वथा नष्ट हो गया है। तबी तो वे अपने उपदेश का उपसंहार कर देते हैं, जबकि अर्जुन ने अभी तक अपना मोह नष्ट होना स्वीकार नहीं किया है। अन्य परीक्षक तो ‘परीक्षार्थी क्या जानता है’- इसको जानने के लिए ही उसकी परीक्षा लेते हैं, पर भगवान की परीक्षा जीव (भक्त) को उसकी वास्तविक स्थिति जनाने के लिए होती है अर्थात वे दिखाते हैं कि तू देख ले, तेरी स्थिति कहाँ तक हैं। भगवान तो सर्वज्ञ होने से सबको जानते ही हैं। इसका प्रमाण गीता में ही मिल जाता है। जैसे, ग्यारहवें अध्याय के पहले श्लोक में ‘मोहोऽयं विगतो मय’ कहकर अर्जुन अपने मोह का चला जाना स्वीकार करते हैं; परंतु भगवान सर्वज्ञ होने से जानते हैं कि अभी अर्जुन का मोह नष्ट नहीं हुआ है। अतः अर्जुन को जानने के लिये वे ग्यारहवें अध्याय के ही उन्चासवें श्लोक में कहते हैं- ‘मा ते व्यथा मा च विमूढ़भावः’ अर्थात मोह के सर्वथा चले जाने पर व्याकुलता और विमूढ़भाव (मोह) पैदा नहीं होते; परंतु भैया अर्जुन। तुझे व्याकुलता और विमूढ़भाव- दोनों ही हो रहे हैं; अतः तू देख ले कि अभी तेरा मोह सर्वथा नष्ट नहीं हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रश्नोत्तरी 1
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