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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागतिश्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय को देखने से पता चलता है कि अर्जुन युद्ध के लिए पूर्ण रूप से तैयार हैं। वे स्वयं रथी बने हैं और सारथि बने भगवान को दोनों सेनाओं के बीच में रथ खड़ा करने की आज्ञा देते हैं- ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत’।[1] सारथि बने भगवान भी रथ को दोनों सेनाओं के बीच में, पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण के रथों के ठीक सामने एक विशेष कला के साथ खड़ा करते हैं। भगवान की यह कला युद्धोन्मुख अर्जुन को कल्याण के उन्मुख करने के लिए मानो शक्तिपात थी (जिसकी सिद्धि अठारहवें अध्याय के) तिहत्तरवें श्लोक में हो गयी। भगवान को जीवों के कल्याण के लिए अर्जुन को निमित बनाकर गीता का महान उपदेश देना था और इसके लिए अर्जुन को वैसा ही पात्र बनाना था। अतः युद्धस्थलों में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण को अपने सामने विपक्ष में देखकर अर्जुन का छिपा मोह जाग गया। इतना ही नहीं, भगवान ने स्वयं कहा भी कि हे पार्थ! युद्ध के लिए एकत्र हुए इन कुरुवंसियों को देख- ‘उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति’।[2] यहाँ भगवान ने ‘धृतराष्ट्र के पुत्रों को देख’ यह न कह करके कुरुवंशियों को देखने के लिए कहा है। ऐसा कहने में भी स्पष्ट ही अर्जुन का मोह जाग्रत करने का भाव मालूम देता है। यदि भगवान ‘उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान्कुरूनिति’ की जगह ‘उवाच पार्थ पश्यैतान् धार्तराष्ट्रान्समानिति’ कह देते तो शायद अर्जुन का कौटुम्बिक मोह जाग्रत न होकर युद्ध करने का उत्साह ही विशेष बढ़ता; क्योंकि ‘धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’[3]- यह अर्जुन ने पहले ही कहा था! पांडव और दुर्योधनादि- दोनों ही उस कुरुवंश के थे; अतः ‘कुरु’ शब्द से अर्जुन का मोह जाग्रत होना स्वाभाविक ही था। पहले युद्ध की भावना से जिनको अर्जुन ‘धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः’ कह रहे थे, उनको ही अब वे स्वजन कहने लगे- ‘दृष्टवेमं स्वजनं कृष्ण’।[4] युद्ध में स्वजनों के संहार की आशंका है। इस मोह के कारण अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। फिर भी भगवान की शरण होकर श्रेय (कल्याण) की बात पूछते हैं।[5]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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