श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च । अर्थ- हे अर्जुन! (संसार के हित के लिए) मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उस जल को वर्षारूप से बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ। व्याख्या- ‘तपाम्यहमहं वर्ष निगृह्णाम्युत्सृजामि च’- पृथ्वी पर जो कुछ अशुद्ध, गंदी चीजें हैं, जिनसे रोग पैदा होते हैं, उनका शोषण करके प्राणियों को निरोग करने के लिए[1] अर्थात ओषधियों, जड़ी-बूटियों में जो जहरीला भाग है, उसका शोषण करने के लिए और पृथ्वी का जो जलीय भाग है, जिससे अपवित्रता होती है, उसको सुखाने के लिए मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ। सूर्यरूप से उन सबके जलीय भाग को ग्रहण करके और उस जल को शुद्ध तथा मीठा बना करके समय आने पर वर्षारूप से प्राणिमात्र के हित के लिए बरसा देता हूँ, जिससे प्राणिमात्र का जीवन चलता है। ‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’- मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ अर्थात मात्र जीवों का प्राण धारण करते हुए जीवित रहना (न मरना) और संपूर्ण जीवों के पिंड-प्राणों का वियोग होना (मरना) भी मैं ही हूँ और तो क्या कहूँ, सत्-असत्, नित्य-अनित्य, कारण-कार्यरूप से जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि जैसे महात्मा की दृष्टि में सब कुछ वासुदेव (भगवत्स्वरूप) ही है- ‘वासुदेवः सर्वम्’, ऐसे ही भगवान की दृष्टि में सत्-असत्, कारण-कार्य सब कुछ भगवान ही हैं। परंतु सांसारिक लोगों की दृष्टि में सब एक-दूसरे से विरुद्ध दिखते हैं; जैसे- जीना और मरना अलग-अलग दिखता है, उत्पत्ति और विनाश अलग-अलग दिखता है, स्थूल और सूक्ष्म अलग-अलग दिखते हैं, सत्त्व-रज-तम- ये तीनों अलग-अलग दिखते हैं, कारण और कार्य अलग-अलग दिखते हैं, जल और बर्फ अलग-अलग दिखते हैं। परंतु वास्तव में संसार रूप में भगवान ही प्रकट होने से, भगवान ही बने हुए होने से सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है। भगवान के सिवाय उसकी स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। जैसे सूत से बने हुए सब कपड़ों मे केवल सूत-ही-सूत है, ऐसे ही वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, पदार्थ आदि सब कुछ केवल भगवान-ही-भगवान हैं। संबंध- जगत की रचना तथा विविध परिवर्तन मेरी अध्यक्षता में ही होता है; परंतु मेरे इस प्रभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेकर मेरी अवहेलना करते हैं, इसलिए वे पतन की ओर जाते हैं। जो भक्त मेरे प्रभाव को जानते हैं, वे मेरे दैवी गुणों का आश्रय लेकर अनन्यमन से मेरी विविध प्रकार से उपासना करते हैं, इसलिए उनको सत्-असत् सब कुछ एक परमात्मा ही हैं- ऐसा यथार्थ अनुभव हो जाता है। परंतु जिनके अंतःकरण में सांसारिक भोग और संग्रह की कामना होती है, वे वास्तविक तत्त्व को न जानकर भगवान से विमुख होकर स्वर्गादि लोकों के भोगों की प्राप्ति के लिए सकामभावपूर्वक यज्ञादि अनुष्ठान किया करते हैं, इसलिए वे आवागमन को प्राप्त होते हैं- इसका वर्णन भगवान आगे के दो श्लोकों में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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