श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
साधक में श्रद्धा और विवेक दोनों ही रहने चाहिए। भक्तिमार्ग में श्रद्धा की मुख्यता होती है और ज्ञानमार्ग में विवेक की मुख्यता होती है। ऐसा होने पर भी भक्तिमार्ग में विवेक का ज्ञानमार्ग में श्रद्धा का अभाव नहीं है। भक्तिमार्ग में मानते हैं कि सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवान से ही होते हैं[7] और ज्ञानमार्ग में मानते हैं कि सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति से ही होते हैं- ‘सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः’।[8] दोनों ही साधक अपने में निर्विकारता मानते हैं कि ये गुण अपने नहीं हैं; और दोनों ही जहाँ एक तत्त्व को प्राप्त होते हैं, वहाँ न द्वैत कह सकते हैं, न अद्वैत; न सत कह सकते हैं, न असत। भक्तिमार्ग वाले भगवान के साथ अनन्य प्रेम से अभिन्न होकर प्रकृति से सर्वथा रहित हो जाते हैं और ज्ञानमार्ग वाले प्रकृति एवं पुरुष का विवेक करके प्रकृति से बिलकुल असम्बद्ध अपने स्वरूप का साक्षात अनुभव करके प्रकृति से सर्वथा संबंधरहित हो जाते हैं। संबंध: भगवान ने पहले बारहवें श्लोक में कहा कि ये सात्त्विक, राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं, पर मैं उनमें और वे मेरे में नहीं है। इस विवेचन से यह सिद्ध हुआ कि भगवान प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा निर्लिप्त हैं। ऐसे ही भगवान का शुद्ध अंश यह जीव भी निर्लिप्त है। इस पर यह प्रश्न होता है कि यह जीव निर्लिप्त होता हुआ भी बंधता कैसे है? इसका विवेचन आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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