श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तम अध्याय
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न होने वाले तरह-तरह के जितने भाव[1] हैं, वे सब-के-सब भगवान की शक्ति प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। परंतु प्रकृति भगवान से अभिन्न होने के कारण इन गुणों को भगवान ने ‘मत्त एव’ ‘मेरे से ही होते हैं’- ऐसा कहा है। तात्पर्य यह कि प्रकृति भगवान से अभिन्न होने से ये सभी भाव भगवान से उत्पन्न होते हैं और भगवान में ही लीन हो जाते हैं, पर परा प्रकृति (जीवात्मा) ने इनके साथ संबंध जोड़ लिया अर्थात इनको अपने और अपने लिए मान लिया, यही परा प्रकृति द्वारा जगत को धारण करना है। इसी से वह जन्मता-मरता रहता है। अब उस बंधन का निवारण करने के लिए यहाँ कहते हैं कि सात्त्विक, राजस और तामस- ये सब भाव मेरे से ही होते हैं। इसी रीति से दसवें अध्याय में कहा है- ‘भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथविग्विधाः’[2] अर्थात प्राणियों के ये अलग-अलग प्रकार वाले (बीस) भाव मेरे से ही उत्पन्न होते हैं; और ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’[3] अर्थात सबका प्रभव मैं हूँ और सब मेरे से प्रवृत्त होते हैं। पंद्रहवें अध्याय में भी कहा है कि स्मृति, ज्ञान आदि सब मेरे से ही उत्पन्न होते हैं- ‘मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च’[4]। जब सब कुछ परमात्मा से ही उत्पन्न होता है, तब मनुष्य के साथ उन गुणों का कोई संबंध नहीं है। अपने साथ गुणों का संबंध न मानने से यह मनुष्य बंधता नहीं अर्थात वे गुण उसके लिए जन्म-मरण के कारण नहीं बनते। गीता में जहाँ भक्ति का वर्णन है, वहाँ भगवान कहते हैं कि सब कुछ मैं ही हूँ- ‘सदसच्चाहमर्जुन’[5] और अर्जुन भी भगवान के लिए कहते हैं कि आप सत् और असत् भी हैं तथा उनसे पर भी हैं- ‘सदसत्तत्परं यत्’।[6] ज्ञानी (प्रेमी) भक्त के लिए भी भगवान कहते हैं कि उसकी दृष्टि में सब कुछ वासुदेव ही है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।[7] कारण यह है कि भक्ति में श्रद्धा और मान्यता की मुख्यता होती है तथा भगवान में दृढ़ अनन्यता होती है। भक्ति में अन्य का अभाव होता है। जैसे उत्तम पतिव्रता को एक पति के सिवाय संसार में दूसरा कोई पुरुष दिखता ही नहीं, से ही भक्त को एक भगवान के सिवाय और कोई दिखता ही नहीं, केवल भगवान ही दिखते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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