श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् । व्याख्या- ‘प्रशांतमनसं ह्योनं.........ब्रह्मभूत मकल्मषम्’- जिसके संपूर्ण पाप नष्ट हो गए हैं अर्थात तमोगुण और तमोगुण की अप्रकाश, अप्रवृत्ति, प्रमाद और मोह[1]- ये वृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं, ऐसे योगी को यहाँ ‘अकल्मषम्’ कहा गया है। जिसका रजोगुण और रजोगुण की लोभ, प्रवृत्ति, नये-नये कर्मों में लगना, अशांति और स्पृहा[2]- ये वृत्तियाँ शांत हो गयी हैं, ऐसे योगी को यहाँ ‘शांतरजसम्’ बताया गया है। तमोगुण, रजोगुण तथा उनकी वृत्तियाँ शांत होने से जिसका मन स्वाभाविक शांत हो गया है अर्थात जिसकी मात्र प्राकृत पदार्थों से तथा संकल्प विकल्पों से भी उपरति हो गयी है, ऐसे स्वाभाविक शांत मन वाले योगी को यहाँ ‘प्रशान्तमनसम्’ कहा गया है। ‘प्रशांत’ कहने का तात्पर्य है कि ध्यानयोगी जब तक मन को अपना मानता है, तब तक मन अभ्यास से शांत तो हो सकता है, पर प्रशांत अर्थात सर्वथा शांत नहीं हो सकता। परंतु जब ध्यानयोगी मन से भी उपराम हो जाता है अर्थात मन को भी अपना नहीं मानता, मन से भी संबंध-विच्छेद कर लेता है, तब मन में राग-द्वेष न होने से उसका मन स्वाभाविक ही शांत हो जाता है। पचीसवें श्लोक में जिसकी उपरामता का वर्णन किया गया है, वही (उपराम होने से) पापरहित, शांत रजोगुण वाला और प्रशांत मन वाला हुआ है। अतः उस योगी के लिए यहाँ ‘एनम्’ पद आया है। ऐसे ब्रह्मस्वरूप ध्यायानयोगी को स्वाभाविक ही उत्तम सुख अर्थात सात्त्विक सुख प्राप्त होता है। पहले तेईसवें श्लोक के उत्तरार्ध में जिस योग का निश्चय पूर्वक अभ्यास करने की आज्ञा दी गयी थी- ‘स निश्चयेन योक्तव्यः’ उस योग का अभ्यास करने वाले योगी को निश्चित ही उत्तम सुख की प्राप्ति हो जाएगी, इसमें किञ्चिनमात्र भी संदेह नहीं है। इस निःसंदिग्धता को बताने के लिए यहाँ ‘हि’ पद का प्रयोग हुआ है। ‘सुखमुपैति’ कहने का तात्पर्य है कि जो योगी सबसे उपराम हो गया है, उसको उत्तम सुख की खोज नहीं करनी पड़ती, उस सुख की प्राप्ति के लिए उद्योग, परिश्रम आदि नहीं करने पड़ते, प्रत्युत वह उत्तम सुख उसको स्वतः स्वाभाविक ही प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 14:13
- ↑ गीता 14:12
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